अक्षय तृतीया का महत्त्व

अक्षय तृतीया सत्कार्याें का अक्षय फल प्रदान करती है ! इस दिन किए सभी सत्कर्म अविनाशी होते हैं  !

अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं । तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया ।
उद्दिश्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः । तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव ॥

– मदनरत्न

अर्थ : (श्रीकृष्ण कहते हैं) हे युधिष्ठिर, इस तिथि को किया हुआ दान एवं हवन का क्षय नहीं होता है; इसलिए मुनिगण ने इसे ‘अक्षय तृतीया’ कहा है । देव एवं पितरों को उद्देशित कर इस तिथि को जो कर्म किया जाता है, वे सभी अक्षय (अविनाशी) हो जाते हैं ।’

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘त्योहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत’)

अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्मा एवं श्रीविष्णु की मिश्रित तरंगें उच्च देवताओं के लोक से, अर्थात सगुण लोक से पृथ्वी पर आती हैं । इस कारण पृथ्वी की सात्त्विकता १० प्रतिशत बढ जाती है । – ईश्वर (सुश्री [कु.] मधुरा भोसले के माध्यम से)

अक्षय तृतीया का संपूर्ण दिन शुभ क्यों ?

अक्षय तृतीया को साढे तीन मुहूर्ताें में से एक मुहूर्त क्यों कहते हैं ?

त्रेतायुग के आरंभ का दिन अर्थात अक्षय तृतीया । जिस दिन एक युग का अंत होकर दूसरे युग का आरंभ होता है, हिन्दू धर्मशास्त्र में उस दिन का अनन्यसाधारण महत्त्व है । इस दिन से एक कलहकाल का अंत एवं दूसरे युग के सत्ययुग का आरंभ, ऐसा ‘अवसर’ साध्य होने के कारण उस पूरे दिन को ‘मुहूर्त’ कहते हैं ।

मुहूर्त केवल एक क्षण से साध्य किए जाने पर भी संधिकाल के कारण उसका परिणाम २४ घंटे तक कार्यरत रहता है । इसलिए वह पूरा दिन शुभ माना जाता है;  इसीलिए अक्षय तृतीया को ‘साढे तीन मुहूर्ताें में से एक मुहूर्त’ माना जाता है ।

अक्षय तृतीया की तिथि पर ही हयग्रीव अवतार, नरनारायण का प्रकटीकरण एवं परशुराम अवतार हुए । इससे अक्षय तृतीया तिथि का महत्त्व समझ में आता है ।

– ब्रह्मतत्त्व

अक्षय तृतीया तिथि का महत्त्व !

१. भारतीय पंचांग की तिथि का क्षय होना अथवा बढना एक सामान्य बात है; परंतु यह तिथि स्थिर (स्थायी) है । उसका कभी भी क्षय नहीं होता । यह तिथि सभी प्रकार के मंगल एवं पुण्य कार्य हेतु अतिशय शुभ मानी गई है ।

२. यह तिथि विवाह के लिए अत्यंत शुभ मान जाती है; इसलिए इस दिन सामूहिक विवाह के आयोजन किए जाते हैं ।

३. इस दिन किए कृत्यों का क्षय होने की अपेक्षा उनमें वृद्धि होती है । इसलिए सोना, चांदी (रजत) आदि मूल्यवान वस्तुएं क्रय की जाती हैं; इसलिए इस दिन नया व्यवसाय (उद्योग) अथवा उपक्रम आरंभ करना, दान करना श्रेष्ठ माना गया है ।

(संदर्भ : श्री विश्वशांति टेकडीवाल परिवार, मुंबई.)

अक्षय तृतीया के दिन  भावपूर्ण विधि करने से देह के चारों ओर आया १ फुट काला आवरण अल्प हो जाना  !

मैंने अक्षय तृतीया के दिन की जानेवाली विधि की पूरी तैयारी कर ली थी । विधि की सभी सामग्रियों से  प्रार्थना की । विधि होने के उपरांत कुछ समय पश्चात मेरी देह पर आया १ फुट का काला (कष्टदायक शक्तिका) आवरण न्यून (कम) होने का भान हुआ एवं हलका लगा । इससे मुझे यह सीखने को मिला कि यदि कोई भी कृत्य भावपूर्ण किया जाए, तो अनुभूति होती है ।

– श्री. नरेंद्र नारायण सांगावरकर, निपाणी, बेळगांव, कर्नाटक.

अक्षय तृतीया के दिन परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के कक्ष में दीप का घी समाप्त हो जाने पर भी दीपक एक घंटे से अधिक समय जलते रहना ! 

‘७.५.२०१९ को अक्षय तृतीया थी । उस दिन मुझे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के कक्ष में देवपूजा करने की सेवा मिली थी । उस दिन मेरा जलाया हुआ दीपक ढाई घंटे तक जलता रहा था । सामान्यतः यह दीपक एक से डेढ घंटा जलता है । उस दिन ‘घी समाप्त होने पर भी वह दीप अधिक समय तक जलता रहा’, यह मुझे परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने बताया ।’

– एक साधिका, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१०.५.२०१९)

अक्षय तृतीया को  कौन से व्रत करते हैं ?

१. अक्षय तृतीया पर करनेयोग्य व्रत !

वैशाख मास में पितृतर्पण, अश्वत्थ परिक्रमा, एकभुक्त एवं अयाचित व्रत का विशेष महत्त्व है ।

२. वसंतपूजन !

इस तिथि को गंध (चंदन), पुष्पमाला, कच्चे आम का शरबत तथा केले से ‘वसंतपूजन’ करते हैं ।

३. परशुराम पूजन !

वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुरामजी का अवतार हुआ । जमदग्निपुत्र रामजी का (परशुरामजी का) शस्त्र परशु (कुल्हाडी) था, जिस प्रकार दशरथी रामजी का चापबाण, श्रीकृष्णजी का सुदर्शनचक्र, भीम की गदा, बलराम का हल (नांगर), ये शस्त्र थे । अक्षय तृतीया को प्रदोषकाल में परशुरामजी की पूजा कर अर्घ्य अर्पित करें ।

(साभार : मासिक ‘घनगर्जित’, अप्रैल २०१८)

इस शुभ दिन को  क्या-क्या हुआ ?

१. त्रेतायुग का आरंभ हुआ था ।

२. गंगामाता पृथ्वी पर अवतीर्ण हुईं ।

३. अन्नपूर्णादेवी भी अवतीर्ण हुईं ।

४. वेदव्यासजी ने ‘महाभारत’ नामक विश्वप्रसिद्ध एकमेवाद्वितीय ग्रंथ की रचना आरंभ की थी ।

५. कुबेर भी इसी दिन धनाध्यक्ष हुए ।

६. आदि शंकराचार्यजी ने कनकधारा’ स्तोत्र की रचना की थी ।

७. युधिष्ठिर को ‘अक्षयपात्र’ मिला था ।

– श्री विश्वशांति टेकडीवाल परिवार, मुंबई.

अक्षय तृतीया को देवता एवं पूर्वज हेतु किए जानेवाले ‘उदककुंभ दान विधि’ के समय करनेयोग्य संकल्प !

‘श्रीपरमेश्वरप्रीतिद्वाराउदकुम्भदानकल्पोक्तफलावाप्यर्थं
ब्राह्मणाय उदकुम्भदानं करिष्ये ।

अर्थ : श्री परमेश्वर के प्रीतिरूप कृपाप्रसाद के कारण उदककुंभदान के कल्पसूत्रादि धर्मशास्त्र में जो कुछ फल विशद किया है, उस फल की प्राप्ति हेतु मैं ब्राह्मण को उदककुंभ का दान कर रहा हूं ।’ इस प्रकार संकल्प कर सूत्र से वेष्टित एवं गंध (चंदन), पुष्प, जव आदि से युक्त कलश की एवं उसी प्रकार ब्राह्मण की पंचोपचार पूजा करें ।

आगे दिया मंत्र बोलकर ब्राह्मण को कलश-दान दें ।

‘एष धर्मघटो दत्तो ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः ।
अस्य प्रदानात् तृप्यन्तु पितरोऽपि पितामहाः ॥
गन्धोदकतिलैर्मिश्रं स्नानं कुम्भफलान्वितम् ।
पितृभ्यः संप्रदास्यामि अक्षय्यमुपतिष्ठतु ॥

अर्थ : यह धर्मघट (उदककुंभ) जो मैंने पूर्वजों को दिया है, वह साक्षात ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश का स्वरूप है । इसके दान से मेरे (जीवित अथवा मृत) माता-पिता, एवं दादा आदि पितर भी तृप्त हों । तिल मिश्रित गंधोदक के (चंदनादि सुगंधित द्रव्य युक्त ऐसे पानी के) कुंभदान के फल से युक्त स्नान मैं पितरों को अर्पण कर रहा हूं । वे सदैव अक्षय (क्षयविरहित) रहें, यही ईश्वर के श्रीचरणों में प्रार्थना !’
(साभार : ‘धर्मसिंधु’ पृष्ठ क्र. ७२)

साधक की दृष्टि से सच्चा अक्षय दान !

‘अक्षय तृतीया को दान देने की धर्मपरंपरा है । देखा जाए तो साधक गुरु को दान नहीं दे सकते; क्योंकि साधक का सबकुछ गुरु का ही दिया हुआ होता है, अर्थात उसे सब कुछ गुरुकृपा से ही प्राप्त होता है ! मन में निरंतर यही भाव जागृत रखने का संकल्प करना, साधक की दृष्टि से यही सच्चा अक्षय दान प्रमाणित होगा  !’

– (पू.) श्री. संदीप आळशी