प्रभु श्रीराम का वनवास तथा भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना !

श्रीराम का वनवास मार्ग अध्ययन के योग्य है। इस मार्ग में प्रभु श्रीराम ने सामाजिक समरसता का संदेश दिया है। सज्जन शक्ति का उदय, विकास तथा प्रकाश फैलाते समय सर्वत्र अक्षय जीवनमूल्यों की रक्षा कैसे करें, इसकी सीख श्रीरामायण का ‘वनवास पर्व’ विश्व के अंत तक देता रहेगा। वनवास पर्व जीवन के संघर्ष का स्वीकार कर उसपर विजय पाना सिखाता है। श्रीराम नवमी (६.४.२०२५) निमित्त श्रीराम के वनवास मार्ग की जानकारी दे रहे हैं ।

‘श्रीराम मंदिर संकुल’ चरित्र निर्माण केंद्र बने !

श्री. विवेक सिन्नरकर

वर्तमान का आधुनिक भारत तथा युवा भ्रम में है। राष्ट्र-धर्म कर्तव्य, नेतृत्व, संवेदनशीलता, स्वपराक्रम तथा स्वाभिमान के विषय में सिद्धांतों को एक ओर रखकर क्षणिक लाभ के लिए यदि स्वत्व को दांव पर लगाने का संकट मोल लेता है, तो ऐसी स्थिति में श्रीराम के वनवास काल के जीवन का अध्ययन ही युवा पीढी को उचित मार्ग पर ला सकेगा। वर्तमान युग नवनिर्मिति का है। उसी समय ‘चरित्र निर्माण’ का विस्मरण हो रहा है। रामायण का अध्ययन इसका रामबाण उत्तर है। नूतन श्रीराम मंदिर संकुल युवाशक्ति के चरित्र निर्माण का केंद्र बने, यही मनशा है ! – श्री. विवेक सिन्नरकर

१. एकश्लोकी रामायण

     आदौ रामतपोवनाभिगमनं हत्वा मृगं काञ्चनं

     वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसम्भाषणम्।

     वालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लङ्कापुरीदाहनं

     पश्चात् रावणकुम्भकर्णहननम् एतद्धि रामायणम् ॥

अर्थ : आरंभ में श्रीराम का वन में जाना, उसके पश्चात स्वर्णमृग की मृगया (शिकार) होना, सीताहरण, जटायु की मृत्यु, राम-सुग्रीव मिलन, बाली का दमन, समुद्र लांघना, लंकादहन तथा उसके उपरांत कुंभकर्ण एवं रावण का वध रामायण की महत्त्वपूर्ण घटनाएं हैं।

इसके उपरांत सुग्रीव (एवं हनुमानजी से) श्रीराम की मित्रता हुई तथा श्रीराम ने उसके साथ (परस्पर सहयोग) विचारमंथन किया। उसके उपरांत श्रीराम ने (सुग्रीव का दुष्ट बडा भाई) बाली का वध किया, उसके पश्चात समुद्र पर सेतु का निर्माण कर (वानरसेना को साथ लेकर) समुद्र पार किया। उससे पूर्व हनुमानजी ने लंकापुरी को संपूर्णरूप से जला दिया। उसके उपरांत श्रीराम ने (राक्षस कुल सहित) कुंभकर्ण एवं रावण का वध किया। यह (सीता मुक्ति तक की) संपूर्ण रामायण की संक्षिप्त कथा है। इस एकश्लोकी रामायण में प्रमुखता से ‘वनवासी श्रीराम के पराक्रमों’ का वर्णन है। उनका नित्य स्मरण करने से हम भी जीवन में विजयी बनते हैं।

२. भारतीयों के श्वास एवं निःश्वास

महर्षि वाल्मीकिकृत ‘रामायण’ में न्यूनतम २४ सहस्र श्लोक हैं। देश में सहस्रों वर्षाें से उनका अखंड अध्ययन तथा पाठ चलते ही रहते हैं। उक्त संस्कृत ‘एकश्लोकी रामायण’ द्वारा संपूर्ण रामायण के पाठ का बडी सहजता से पुण्य प्राप्त हो सकता है। इस श्लोक का पाठ करने से श्रीराम एवं श्री हनुमान की कृपा प्राप्त होकर रामायण आत्मसात् होता है। उक्त का एक श्लोक तो भारतीयों के ‘श्वास एवं निःश्वास’ हैं। सहस्रों वर्षाें से रामायण कथामृत भारत में तथा भारतीय उपखंड में सभी को प्रेरणा दे रहा है तथा अखंड देता ही रहेगा।

३. भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना

वनवास काल धैर्यवान व्यक्ति को सिखाता है कि प्राप्त स्थिति में वचनबद्ध रहना, आनेवाले संकटों का सामना करते समय नैतिकता न त्यागना, शत्रु का जो बलवान शत्रु हो, उससे मित्रता करना, सामान्य लोगों की अस्मिता जगाकर उसका रूपांतरण संगठित सेना में करना, शत्रु के घर का भेदन कर उसका आत्मबल गिरा देना, शत्रु के प्रदेश में घुसकर उसका पारिपत्य कर स्वतंत्रता प्राप्त करना ! सीतामाता को सम्मानपूर्वक छुडाया; उसके कारण श्रीराम अयोध्या में सम्मान के साथ लौटे, यह महत्त्वपूर्ण सारांश है। यह उत्कंठा वनवास के काल की कथा का उत्कलबिंदु है। यह कथा सभी के लिए मार्गदर्शक है। यह वनवासपर्व भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना का महान कार्य कर रहा है।

४. वनवासी राम से लेकर पुरुषोत्तम राम

पृथ्वीपालन एवं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की रक्षा एवं संवर्धन करना केवल मनुष्य जीवन में ही संभव है। श्रीरामायण रसीली कथा के माध्यम से देवताओं सहित मनुष्यों को भी, इस आद्यकर्तव्य का कैसे निर्वहन करना चाहिए, यह बडी सहजता से बताता है। श्रीराम सहित सभी ने कठोर वनवास भोगा। अग्निपरीक्षा दी, आक्षेपों का दंश झेला तथा उससे रामायणरूपी स्वर्ण अधिक चमका उठा, यह दिखाई देता है। उसमें समाहित व्यक्तिरेखाएं हमें अपनी लगती हैं। आज की युवा पीढी को श्रीराम, सीतामाता एवं लक्ष्मण से तत्त्वनिष्ठा, संयम तथा ध्येयासक्ति सीखनी चाहिए, उससे ही वे जीवन में सफल होंगे।

रामायण का परमोच्च रोमांचक, जीवनदायी तथा वरदायिनी काल है श्रीराम-सीतामाता एवं लक्ष्मण का वनवास ! मूलतः मनौती मांग पर जन्मे राजा दशरथ के ये पुत्र स्त्री हठ एवं पुत्रप्रेम के कारण उनके सामने ही विभाजित हुए। राजलोभ एवं जनमत का विस्मरण होने पर सत्तासंघर्ष की चिंगारी भडककर भी संयम एवं वचनबद्धता का धीरादात्त दर्शन प्रभु श्रीराम, साध्वी सीता, वीर लक्ष्मण, महात्मा भरत तथा धैर्यवान शत्रुघ्न देते हैं। उससे रामायण की ऊंचाई अंत तक वर्धिष्णु होती जाती है। ऋषि-मुनियों तथा वेदप्रणित संस्कृति को स्वीकार्य ऐसा यह आर्षकाव्य ! ‘रामायण’ श्री नारदकथित तथा मुनि वाल्मीकि द्वारा रचित अक्षय मुक्ति प्रदान करनेवाला पवित्र ग्रंथ है। वनवासपर्व जीवन के संघर्ष का स्वीकार कर उसपर विजय प्राप्त करना सिखाता है।

५. स्वदेश भक्ति के आद्यप्रणेता

‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अर्थात ‘(लंका भले ही सोने की हो तब भी) मुझे मेरी माता एवं जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान प्रतीत होती है’; इन शब्दों में भरतभूमि का गौरवगान करनेवाले श्रीराम को सच्चा राष्ट्रपुरुष मानना पडेगा। स्वदेश भक्ति के आद्यप्रणेता श्रीराम देशभक्ति का प्रकटीकरण करते हैं। यह रामायण बडी सहजता से उत्तर एवं दक्षिण भारत को तथा पूर्व से पश्चिम भारत को जोडने का कार्य करता है। ऋषि-मुनि, मांझी, आदिवासी, वनवासी, वानर आदि जातियों से लेकर वनपशु, वृक्ष, पर्वत, नदियां, शिलाएं तथा पतित शबरी सहित अनेक साधक, मुनि, राक्षस, शापित असुर, वानर, पक्षी तथा पशु, इन सभी को मुक्ति सहित अभय प्रदान किया। श्रीराम ने अपने वनवास में जनसामान्यों का संज्ञान लेकर एक प्रकार से सामाजिक समरसता लाई है।

६. श्रीराम के दैवी गुण

श्रीराम ने रघुकुल नीति से पिताश्री दशरथ को दिया वचन सत्य बनाने हेतु बडी सहजता से वनवास गमन स्वीकार किया। केवल स्वीकारा ही नहीं, अपितु उन्होंने इस संकट को स्वर्णिम अवसर में परिवर्तित किया । उन्होंने सज्जन शक्ति को जगाया । उन्होंने दंडकारण्य में राक्षसों से पीडित ऋषि-मुनियों की रक्षा की । सहस्रों दुष्ट राक्षसों का वध कर रघुकुल का महत्त्व बढाया । उन्होंने वानरों एवं वन्य पशुओं का संगठन किया तथा हनुमान, सुग्रीव आदि को बंधवत् प्रेम दिया ।

बिभीषण को अपना मित्र बनाकर उसे लंका का राज्य सौंप दिया । उन्होंने स्वआचरण से बंधुप्रेम, एकपत्नी व्रत, शौर्य एवं अंगभूत प्रभुता, राजा का कर्तव्य, शरणागत को अभय देना तथा स्वर्णमयी लंका का मोह त्यागकर स्वयं की जननी एवं जन्मभूमि का गौरवगान कर इन धीरोदात्त दैवी गुणों का साक्षात्कार कराया ।

७. श्रीराम के वनवास का मार्ग

अयोध्या से श्रीलंका तक की प्रदीर्घ यात्रा में श्रीराम ने उत्तर भारत की तमसा नदी, कोशल प्रांत, शृंगवेरपूर, प्रयाग, गंगा-यमुना घाटी, चित्रकूट के मार्ग से दंडकारण्य में प्रवेश किया । उन्हें ने शृंगवेरपर के निषादराजा गुह  का आतिथ्य स्वीकार किया । श्रीराम ने इस बालमित्र से गंगा नदी पार करने के लिए सहायता ली । यहां से आगे राजपुत्र श्रीराम ‘तपस्वी श्रीराम’ बन गए ।

आगे जाकर प्रयाग में भरद्वाजमुनी का आश्रम तथा यमुना नदी पार कर महर्षि वाल्मीकि के निर्देश के अनुसार माल्यवती नदी के तट पर पर्णकुटी बनाकर भरतमिलन तक वे वही रहे । वहां से शृंगवेरपूर के निकट के कुराई से गंगा नदी पार कर चित्रकूट से लेकर दक्षिण की ओर, अत्रीऋषि एवं श्री दत्तमाता अनसूया के आश्रम में निवास किया । अनसूयामाता ने सीतामाता को दिव्य आभूषण भेंट किया । शरभंग ऋषि, सूतिक्ष्णमुनि, वालखिल्यमुनि, अगस्त्यऋषि आदि से भेंट की । उन्होंने सनातन संस्कृति, यज्ञ एवं आश्रमव्यवस्था की रक्षा की । योद्धा संन्यासी अगस्त्यऋषि ने श्रीराम को श्रीविश्वकर्मा द्वारा निर्मिति अमोघ धनुष्यबाण तथा सोने की तलवार भेंट की । उसके कारण यह वनवास श्रीराम के लिए सहनीय बना । उन्होंने दक्षिण दिग्विजय कर दुष्टों का निर्दालन कर धर्मस्थापना की, यह तो सर्वविदित ही है ।

पंचवटी के अपने दीर्घ निवास में लोकसंग्रह, राक्षसों का दमन करते समय शूर्पणखा, मारिच राक्षस तथा कपटी रावण द्वारा किए गए सीताहरण से प्रक्षुब्ध श्रीराम ने हनुमानसहित वानरसेना की सहायता से रावण का वध किया । आगे जाकर सीतामातासहित वनवास पूर्ण कर अयोध्या में विजयी प्रवेश किया । इस प्रदीर्घ यात्रा में जहां जहां श्रीराम-सीतामाता के चरणों का स्पर्श हुआ, उनका निवास हुआ; वो सभी स्थान तथा संपूर्ण वनवास मार्ग पवित्र तीर्थस्थल बन गए हैं । उसमें वर्तमान के प्रयाग, जबलपुर, रामटेक, पंचवटी, लोणार सरोवर, हंपी, अनेगुंदी, केरल, तमिलनाडू का महेंद्रगिरी प्रदेश, त्रिचनापल्ली, रामनाथपुरम्, रामेश्वरम् एवं धनुष्कोडी सेतुबंध जैसे स्थान मोक्षदायी हैं ।

८. श्रीराम के द्वारा नियमों का कठोरता से पालन

१४ वर्ष के वनवास काल में किसी भी शहरी प्रदेश में जाने पर प्रतिबंध, वल्कल धारण कर विजनवास में रहना, किसी से भी संपर्क टालना, कंदमूल एवं फलों का सेवन कर पर्णकुटी में रहकर कष्टमय जीवन व्यतीत करना तथा उस काल में श्रीराम द्वारा किसी प्रकार के सुखोपभोग न लेना, संयत एवं संन्यस्त वृत्ति से रहना, ये सभी माता कैकयी की कठोर शर्तें थीं । कदाचित वे प्रभु श्रीराम के धैर्य की परीक्षा लेना चाहती थीं । इसका व्यावहारिक अर्थ ऐसा होता है कि श्रीराम का अयोध्या का अधिकार शाश्वतरूप से छीन लेना तथा उनसे संपत्ति, मानसम्मान एवं सेना छीन लेना ! सामान्यतः १२ अथवा १४ वर्ष से नागरिक के कानूनी अधिकार समाप्त हो जाते हैं । ‘उनका अस्तित्व समाप्त होने की घोषणा की जा सकती है’, यह पहले से चली आ रही परिपाटी थी और है । अर्थात श्रीराम ने उसका कठोर पालन किया, ऐसा दिखाई देता है । वे कंदमूल खाकर रहे, भूमि पर सोए, वल्कल धारण किया, किष्किंधानगरी में तथा अंत में श्रीलंका में स्वयं प्रवेश नहीं किया । युद्ध में अयोध्या की सेना नहीं मंगाई । स्वयं वानरसेना का संगठन कर अपने बलबूते पर रावण का वध किया ।

यह लेख पढकर ‘श्रीराम हमें देश के समक्ष उभरी चुनौतियों का सामना करने की बुद्धि व शक्ति प्रदान करें’, यह उनके चरणों में प्रार्थना है !

– श्री. विवेक सिन्नरकर, आर्किटेक्ट तथा रामायण के अध्येता, पुणे (२२.१.२०२४) (साभार : दैनिक ‘सकाळ’, श्रीराम मंदिर विशेष संस्करण)