(‘डीप स्टेट’ का अर्थ है सरकारी तंत्र तथा निजी संगठनों की गुप्त सांठगांठ ! इस व्यवस्था के द्वारा सरकारी नीतियां निजी संगठनों के लिए अनुकूल बनाई जाती हैं ।)
वर्ष १८९३ में शिकागो की विश्व सर्वधर्म परिषद में स्वामी विवेकानंदजी ने हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करनेवाला भाषण दिया तथा उसके उपरांत उन्होंने अमेरिका सहित अन्य देशों की भी यात्रा की । वहां स्वामीजी ने अनेक बार बताया, ‘वे किसी का भी धर्मांतरण करने नहीं आए हैं, वेदांत ही ईसाईयों को और अच्छा ईसाई बना देगा ।’ विश्व के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ माने जानेवाले हिन्दुओं के ‘ऋग्वेद’ में कहा गया है, ‘एकम सत् विप्रा बहुधा वदन्ति’ अर्थात सत्य एक ही है, जिसे ज्ञानी लोग विभिन्न प्रकार से व्यक्त करते हैं ।’ इसी प्रकार ‘महोपनिषद’ में कहा गया है, ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।’ अर्थात पूरी पृथ्वी पर रहनेवाले सभी लोग एक परिवार ही हैं ।’ उसके कारण भारत ने पूरे विश्व में ही हिन्दू धर्म का प्रचार किया, तब भी उसके पीछे पाश्च्यात्यों के धर्मांतरण का कोई उद्देश्य नहीं था । इसकी तुलना में अन्य धर्माें की (वास्तव में देखी जाए, तो पंथों की) अपने पंथ-विस्तार की, स्वर्गप्राप्ति की इच्छा तथा उसके लिए किसी भी स्तर तक जाकर अन्य धर्मियों पर अमानुषिक अत्याचार किए जाने का इतिहास भारत के लिए नया नहीं है । विश्व के विभिन्न धर्माें का प्रत्यक्ष अध्ययन करने वाले, स्वामी विवेकानंदजी ने भारत में चल रहे धर्मांतरण के संकट को पहचानकर कहा, एक हिन्दू का धर्मांतरण अर्थात धर्म से एक हिन्दू की संख्या घटना इतना ही नहीं है, अपितु हिन्दू धर्म के शत्रुओं में एक शत्रु का बढना है । धर्मांतरण के कारण हिन्दू जहां अल्पसंख्यक हो चुके हैं ऐसे कश्मीर, मणिपुर, नागालैंड जैसे भारत के राज्य तथा पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि देशों में हम आज भी इसका प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं । आज पूरे देश में भारत विरोधी विभाजनकारी आंदोलन चल रहे हैं तथा धर्मांतरण करनेवाले ये संगठन उन्हें बल देने का कार्य कर रहे हैं । स्वयं को ‘सेक्युलर’ (धर्मनिरपेक्ष) कहनेवाले ये राजनेता ऐसे लोगों को संरक्षण देने का कार्य कर रहे हैं । उसके कारण ही ऊपर से दिखाई देनेवाले धर्मांतरण के पीछे ‘डीप स्टेट’ है, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं । इस लेख से निश्चित ही आपके ध्यान में यह बात आएगी ।
श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति
१. चर्च के प्रभाव में ईसाई देशों का अपने पंथविस्तार हेतु पूरे विश्व के देशों पर आक्रमण तथा उनके द्वारा वहां की मूल संस्कृति नष्ट करना
आज महाविद्यालयों की क्रमिक पुस्तकों में पुर्तगाली, ब्रिटिश, फ्रेंच आदि के भारत में व्यापार के लिए आने की बात लिखी गई है; परंतु वास्तव में उसका वास्तविक कारण ईसाई पंथ का प्रसार करना था, इसका कहीं उल्लेख भी नहीं किया जाता । वर्ष १४०० के आरंभ में यूरोप के देशों में राज्यविस्तार का विचार प्रबल हुआ । उस काल में यूरोप के अधिकांश राजा चर्च के प्रभाव में कार्य करते थे तथा पोप के अर्थात चर्च के इस राज्यविस्तार को तथा उसके माध्यम से पंथविस्तार की अनुमति होने से इस कार्य में मांझियों को धन एवं सुविधा देनी पडती थी । उसके कारण यूरोप के देशों ने समुद्रीमार्ग से अन्य देशों का मार्ग ढूंढना आरंभ किया । नए व्यापारी मार्ग ढूंढने की प्रतिस्पर्धा, ईसाई पंथ के प्रसार का उद्देश्य तथा प्रगत नौकानयन के कारण उनके लिए इसे ढूंढना संभव हुआ ।
वर्ष १४८८ में पुर्तगाली मांझी बार्थोलोम्यू डायस पूर्व की ओर निकल पडा । वर्ष १४९२ में स्पेन का मांझी क्रिस्टोफर कोलंबस पश्चिम की ओर निकल पडा तथा अज्ञानतावश वह पूर्व के कैरेबियन प्रदेश में पहुंच गया । पुर्तगालियों को इसमें यह संदेह था कि कोलंबस ने जिस भूमि पर दावा किया था, वहां पोर्तुगीज मांझी पहले पहुंच गए होंगे । उसके कारण उस भूमि पर स्वामित्व के अधिकार के संबंध में विवाद उत्पन्न हुआ तथा यह शत्रुता कुछ वर्षाें में और बढ गई । इसका समाधान निकालने हेतु तत्कालीन पोप ने स्पेन एवं पुर्तगाल के राजाओं को समझौता करने का सुझाव दिया । उसके अनुसार वर्ष १४९४ में पुर्तगाल एवं स्पेन के मध्य ‘टॉर्डेसिलस’ समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें एक काल्पनिक रेखा के द्वारा २ महासत्ताओं में विश्व का विभाजन किया गया । यह काल्पनिक रेखा एटलांटिक महासागर में थी । उस रेखा के पूर्व की भूमि पर पुर्तगाल ने दावा किया था, जबकि उस रेखा के पश्चिम की पूरी भूमि पर स्पेन का दावा था । इस समझौते में ‘नए सिरे से खोजे गए जिन देशों में ईसाई राज्य नहीं है, उसपर आक्रमण कर उस भूमि को नियंत्रण में लिया जाए’, पोप ने बिना किसी के साथ विचार-विमर्श किए यह निर्णय घोषित कर दिया । उसके कारण अमेरिका, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, मेक्सिको सहित अन्य देशों की इंका, टाइनो, रेड इंडियन तथा एज्टेक जैसी मूल प्राचीन संस्कृतियां नष्ट कर दी गईं । आज वहां केवल ईसाई चर्च का प्रभाव शेष रह गया है ।
वर्ष १४९८ में जब वास्को द गामा ने केप ऑफ गुड होप से हिन्द महासागर में प्रवेश किया, उस समय अकस्मात ही उन्हें अफ्रीकी, भारतीय तथा अरब देशों के समावेशवाले व्यापार के जाल में प्रवेश मिला । वास्को द गामा ने भारत से आगे जाकर पूर्व में इंडोनेशिया एवं जापान की ओर प्रस्थान किया; परंतु अमेरिका एवं अफ्रीका की तुलना में पूर्व के राज्य पहले ही सामर्थ्यशाली थे । चीन-जापान के सम्राट, भारत के मराठा राज्यकर्ता, दक्षिण भारत के पांडियन, विजयनगर साम्राज्य तथा मलेशिया के सुल्तान के कारण पुर्तगालियों को इन देशों में स्पेन की भांति अनियंत्रित सत्ता नहीं मिली । आगे जाकर इस मार्ग पर होनेवाले व्यापार का लाभ ध्यान में रखकर १५ वीं शताब्दी के अंत में यूरोप के नीदरलैंड्स, इंग्लैंड, फ्रांस आदि देश भी नौसेना बनाकर इस प्रतिस्पर्धा में कूद पडे तथा उन्होंने पुर्तगाली-स्पैनिश उपनिवेशों पर आक्रमण किया, जिससे टॉर्डेसिलस का समझौता प्रभावहीन सिद्ध हुआ ।
२. व्यापार सहित ईसाईकरण करने का प्रयास
पुर्तगाली राजा भी पूर्वी देशों में अपने उपनिवेश स्थापित करना तथा वहां के लोगों का धर्मांतरण करना अपना पवित्र कर्तव्य समझते थे । उसके कारण उन्होने वहां चर्च की स्थापना हेतु धन दिया । पोप निकोलस (पांचवें) ने वर्ष १४५२ में आधिकारिक आदेश जारी किया, ‘सभी गैरईसाई लोगों के विरुद्ध युद्ध कर उनके प्रदेशों पर विजय प्राप्त करना वैध होगा । गैरईसाईयों के संस्कृतिहीन एवं जंगली होने से उनकी भूमि अथवा राष्ट्र पर उनका किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं है । उसके कारण उनकी भूमि पर नियंत्रण स्थापित करने का अधिकार ईश्वर ने ईसाईयों को दिया है ।’अन्य प्रदेशों में बिना किसी कारण युद्ध, उपनिवेश, वहां के मूल निवासियों का नरसंहार तथा गुलामी का समर्थन करने के लिए पोप के इस आदेश का उपयोग किया गया । चर्च एवं पोप के आदेश का उपयोग कर पुर्तगाली, स्पैनिश, साथ ही ब्रिटिश सत्ता ने अमानुषिक कृत्य किए !
पोप के आदेश में कहा गया था, ‘खोजी गई नई भूमि के मूल नागरिकों को अपने नियंत्रण में कर उन पर हमारी आस्था थोपने का प्रयास कीजिए’, अर्थात उनका धर्मांतरण कर उसके आधार पर ‘ईसाई साम्राज्य’ स्थापित कीजिए । इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में पाश्चात्त्य लोगों का आगमन केवल व्यापार के उद्देश्य से नहीं था, अपितु उनके धर्मगुरुओं द्वारा ‘हडपी गई भूमि की संस्कृति एवं धर्म नष्ट कर वहां ईसाई पंथ की स्थापना करने’, के आदेश का पालन करना था ।
उसके उपरांत फ्रांसिस जेवियर, जो कुछ वर्ष उपरांत सेंट जेवियर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, वह वर्ष १५४२ में गोवा आया तथा उसने धर्मांतरण हेतु गोवा में भी इंक्विजिशन की (धर्मसमीक्षा सभाओं की) नींव रखी । उसमें सहस्रों नहीं, अपितु लाखों ज्यू, मुसलमान, हिन्दू एवं नवईसाईयों का अमानुषिक शोषण किया गया ।
८.२.१५४५ को ‘सोसाइटी ऑफ जीजस’ संस्था को लिखे गए पत्र में फ्रांसिस जेवियर मलबार के तट पर किए गए धर्मांतरण का वर्णन करते हुए लिखता है, ‘बाप्तिस्मा लेने के उपरांत ये नवईसाई अपने घर जाते हैं तथा वे अपनी पत्नी, बच्चे तथा पूरे परिवार को लेकर पुनः आकर उन्हें भी बाप्तिस्मा दिलाते हैं । उसके उपरांत मैं उन्हें झूठे देवताओं के मंदिरों को गिराने का तथा मूर्तिभंजन करने का आदेश देता हूं । इन लोगों ने जिन मूर्तियों की पूजा की, उन मूर्तियों का भंजन करते समय तथा उनके ही मंदिरों को गिराए जाने का दृश्य देखते समय मुझे कितना आनंद आता है, इसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता ।’फ्रांसिस जेवियर का यह पूरा धर्मांतरण पुर्तगाली सत्ता के विस्तार तथा ईसाई पंथ का प्रभाव बढाने के लिए था । २० जनवरी १५४८ को कोचीन से लिखे गए पत्र में उसकी यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति दिखाई देती है । वह कहता है, ‘सरकार की सक्रिय सहायता के बिना भारतीयों को कैथॉलिक धर्म में लाना संभव ही नहीं होता ।’ राज्य के विस्तार के लिए वह धर्मांतरण का उपयोग कर रहा था, वर्तमान में धर्मांतरण के आधार पर लोकतंत्र में भी उसी राजविस्तार की पद्धति का उपयोग किया जा रहा है । (२३.१०.२०२४)
३. वर्ष १९४७ की स्वतंत्रता की प्राप्ति के उपरांत भी ब्रिटिशों की ‘मिशनरी सेना’ भारत में ही रह गई
एक पुरानी पुस्तक में मैंने पढा था कि वर्ष १९४७ में भारत को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात ब्रिटिशों ने ब्रिटेन लौटने से पूर्व कहा था कि हम कुछ ही दिनों में भारत छोडकर इंग्लैंड जाते समय अपनी भूदल, नौसेना तथा वायुदल, ये तीनों सेनाएं वापस लेकर जाएंगे; परंतु हमारी जो चौथी सेना है अर्थात मिशनरी सेना भारत में ही रहकर अपना कार्य करती रहेगी तथा कुछ ही दिनों में आपको उसका परिणाम दिखाई देगा ।
उसका परिणाम यह दिखाई दे रहा है कि ईशान्य भारत के अधिकांश राज्य आज ईसाईबहुल हो चुके हैं । वर्ष २०११ की अंतिम जनगणना के अनुसार नागालैंड एवं मिजोरम में ईसाई जनसंख्या ८८ प्रतिशत, जबकि मेघालय राज्य में उनकी जनसंख्या ७५ प्रतिशत है । इन तीनों राज्यों में ईसाई समुदाय के ही मुख्यमंत्री बनते हैं । भारत एक ‘सेक्यूलर’ (धर्मनिरपेक्ष) देश होते हुए भी इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों तथा मंत्रियों का शपथग्रहण समारोह ईसाई पद्धति से किया जाता है । जहां ईसाई बहुसंख्यक जनसंख्या है, उन राज्यों में भारत से अलग होकर स्वतंत्र देश बनाने का विभाजनकारी आंदोलन बडे स्तर पर चल रहा है । अर्थात यह कार्य ब्रिटिशों द्वारा भारत में छोडी गई मिशनरी सेना का है, इसे हमें भूलना नहीं चाहिए ।
श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति (साभार : साप्ताहिक ‘हिन्दुस्थान पोस्ट’ का दीपावली विशेषांक)