‘मनुष्य के मन में २ प्रकार के विचार होते हैं- सकारात्मक एवं नकारात्मक ! सकारात्मक विचारों के कारण व्यक्ति आनंदमय जीवन व्यतीत करता है, जबकि नकारात्मक विचारोंवाले व्यक्ति को दुख भोगना पडता है ।
‘काला चश्मा पहननेवाले को पूरा विश्व काला ही दिखाई देता है । उसी प्रकार ‘नकारात्मक विचार’ स्वभावदोषवाले व्यक्ति को सामने घटित हो रहे प्रसंग एवं व्यक्ति में सदैव कुछ शंका दिखाई देती है । अनावश्यक शंकाओं तथा प्रश्नों के कारण वह व्यक्ति स्वयं को तथा अन्यों को उलझन में डाल देता है ।
एक बार ‘बाटा’ प्रतिष्ठान ने एक वरिष्ठ अधिकारी को अफ्रिका में जूतों के ‘सेल्स प्रमोशन’ के लिए भेजा । उस अधिकारी ने व्यवस्थापन से ‘वहां के सभी लोग नंगे पैर ही घूमते हैं’, यह देखकर कहा, ‘हम वहां ‘सेल्स प्रमोशन’ नहीं कर सकते ।’ यह बात सुन रहे एक युवक ने अफ्रिका में ‘सेल्स प्रमोशन’ के लिए जाने का अवसर मांगा । वह जब वहां जाकर वापस आया, उसके पश्चात उसने सोचा, ‘वहां सभी लोग नंगे पैर घूमते हैं; इसलिए वहां जूतों के ‘सेल्स प्रमोशन’ का बडा अवसर है’, व्यवस्थापन को कुछ इस प्रकार बताया । स्थिति वही होते हुए भी इन दो लोगों की विचार-प्रक्रिया में अंतर हमारे ध्यान में आता है; इसलिए सदैव सकारात्मक विचार करना चाहिए ।
मनुष्य सत्ता, संपत्ति, शक्ति अथवा पद के कारण बडा नहीं होता अथवा बडा नहीं माना जाता, उसका बडप्पन उसके अच्छे एवं सकारात्मक विचारों से सिद्ध होता है ।
१. नकारात्मकता का प्रकटीकरण
‘चिडचिडाहट होना, क्रोध आना, भय प्रतीत होना, चिल्लाना, रोना, उत्पात मचाना, तोडफोड करना, अन्यों की आलोचना करना’ जैसी कृतियों से नकारात्मकता प्रकट होती है ।
२. नकारात्मक विचारों के कारण होनेवाली हानि
अ. नकारात्मक विचारोंवाला व्यक्ति मन से दुर्बल एवं शंकालु वृत्ति का होता है । वह अनावश्यक एवं अर्थहीन विचारों के बोझ से दबा रहता है ।
आ. नकारात्मक विचारों के कारण उसकी इच्छाशक्ति एवं क्रियाशक्ति दुर्बल होती है । निष्क्रियता के कारण उस व्यक्ति के ज्ञानार्जन की तथा सीखने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है ।
इ. उसका व्यष्टि एवं समष्टि जीवन दुखी हो जाता है तथा उसे निराशा आती है ।
ई. नकारात्मक विचारोंवाले व्यक्ति के कारण सामनेवाला व्यक्ति हतोत्साहित होकर आनंद से दूर चला जाता है ।
उ. नकारात्मक विचारों के कारण स्वयं उस व्यक्ति की तथा उसके परिजनों की हानि होती है । उसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है ।
३. शरीर पर नकारात्मक विचारों का परिणाम
एक चिकित्सालय में उपचार ले रहे २ रोगियों की स्थिति बहुत ही गंभीर थी । उन्हें उनका अंतकाल निकट प्रतीत हो रहा था । यह देखकर उसी चिकित्सालय में उपचार ले रहे तीसरे रोगी के मन में विचार आया कि ‘अब मैं भी नहीं बचूंगा ।’ वास्तव में देखा जाए, तो वह तीसरा रोगी उपचारों से स्वस्थ हो सकता था; परंतु उसके मन के नकारात्मक विचारों के कारण उसकी शारीरिक स्थिति गंभीर हो जाने से उसकी मृत्यु हो गई । इससे यह ध्यान में आता है कि ‘मन में आनेवाले विचार किस प्रकार शरीर पर परिणाम करते हैं ?’
४. नकारात्मकता दूर कर सकारात्मकता बढाने से होनेवाले लाभ
४ अ. सभी प्रकार के संकटों से सहजता से बाहर निकलना संभव होना : सकारात्मक व्यक्ति का मन आनंदित एवं उत्साहित होने के कारण उसका शरीर उसे उतनी ही सकारात्मकता से उसका साथ देता है । किसी भी प्रकार के संकटों अथवा शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से वह व्यक्ति बडी सहजता से बाहर निकल जाता है, इसका एक उदाहरण आगे दिया गया है ।
दूसरे विश्वयुद्ध के समय हिटलर ने शत्रु सैनिकों को पकडकर तंबू में (कैंप) उनपर भयंकर अत्याचार किए । उसने उन्हें स्नान के लिए उबलता हुआ पानी दिया, जीवाणुओं से युक्त इंजेक्शन दिए, खाने में निकृष्ट तथा आधा-अधूरा अन्न दिया, साथ ही उनसे शारीरिक परिश्रम भी करवाए । उन व्यक्तियों ने सभी प्रसंगों का सकारात्मकता से तथा संतोष के साथ सामना किया । उसके कारण बहुत दुख झेलकर भी वे आनंदित रह पाए । उनकी मृत्यु नहीं हुई; परंतु अन्य सभी नकारात्मक विचारोंवाले व्यक्तियों को शारीरिक बीमारियों की चपेट में आने से उन्हें मृत्यु को स्वीकार करना पडा ।
४ आ. हमारे विचार यदि सकारात्मक हों, तो घर के वातावरण, परिजन, मित्र, कार्यालयीन सहयोगियों तथा समाज के व्यक्तियों पर उनका सकारात्मक परिणाम होता है तथा उससे वे भी सकारात्मक हो जाते हैं ।
५. सकारात्मक रहने के उपाय
५ अ. सवेरे जागने के उपरांत भगवान से प्रार्थना करना : सकारात्मक विचार सुखी एवं स्वस्थ जीवन के आधारस्तंभ हैं । सवेरे जागने पर ‘आज का दिन देखने का अवसर मिला’, इसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर निम्न प्रकार से प्रार्थना करें, ‘हे भगवान, आप पूरा दिन मुझे अपने आंतरिक सान्निध्य में रखें । मेरे लिए सदैव सकारात्मक रहना संभव हो तथा मैं प्रत्येक कृति एवं प्रसंग का आनंदित होकर सामना कर पाऊं । यदि मुझे कोई समस्या आए, तो आपकी प्रेरणा से मैं उत्साह एवं आनंद के साथ उसपर विजय प्राप्त कर पाऊं । मेरे द्वारा दृढ श्रद्धा तथा सकारात्मकता से प्रयास होकर मुझे सफलता एवं आनंद प्राप्त हो’, यह आपके चरणों में प्रार्थना है ।’
५ आ. दर्पण में देखकर स्वयं से सकारात्मक बोलना : दर्पण में देखकर ‘आज मैं आनंदित दिख रहा हूं । मेरा आज का यह दिन आनंद एवं उत्साह में बीतनेवाला है । आज पूरा दिन मुझे किसी प्रकार का शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कष्ट नहीं होगा’, स्वयं से ही ऐसा बोलें ।
५ इ. शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान रखना : शरीर के स्वास्थ्य की अनदेखी न करें । शरीर स्वस्थ हो, तभी मन स्वस्थ एवं शांत रहता है । प्रतिदिन नियमित रूप से कुछ समय देकर शरीर के स्वास्थ्य हेतु व्यायाम एवं योगासन करें । दीर्घ सांस लें तथा प्राणायाम करें ।
५ ई. सत्संग में रहना : निरंतर अच्छे लोगों के सान्निध्य में तथा सत्संग में रहने से नकारात्मकता निकट नहीं आएगी । सदैव अच्छे ग्रंथ पढें, संतों के दर्शन करें, साथ ही भगवान के दर्शन हेतु मंदिर जाएं ।
५ उ. हमारी बातें आनंद एवं प्रेम को बढानेवाली हों ।
५ ऊ. अन्यों के गुण देखना : अन्यों के दोषों की अनदेखी करें । उनके गुणों को ही देखें । उसके कारण दोनों के ही जीवन में आनंद आता है, उदा. एक राजा का एक पैर नहीं था । उस राजा ने चित्रकारों को उसका एक अच्छा चित्र बनाने के लिए कहा । तब चित्रकारों ने चित्र बनाने से मना कर दिया; परंतु एक चित्रकार ने ‘वह राजा अपने एक पैर पर बैठकर शिकार करने की स्थिति में है’, ऐसा चित्र बनाकर राजा से पुरस्कार प्राप्त किया ।
५ ए. स्वसूचना देना : ‘नकारात्मक विचार मन में न आएं’, इसके लिए तथा मन में नकारात्मकता आने पर तुरंत ही मन को उसका भान होने हेतु स्वसूचनाएं दें ।
५ ऐ. मन को सकारात्मक दृष्टिकोण : सकारात्मक दृष्टिकोण के कुछ उदाहरण आगे दिए हैं ।
१. जीवन बहुत सुंदर है । सूर्य एवं चंद्र नियमित रूप से उदित तथा अस्त होते हैं । सृष्टि का सौंदर्य प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है । उसमें भी बहुत आनंद होता है, जिसे मुझे अनुभव करना है ।
२. निरंतर सीखने की स्थिति में रहने से मुझे सीखने का आनंद मिलनेवाला है ।
३. किसी भी प्रसंग अथवा घटना में ‘किस सूत्र को कितना महत्त्व देना है ?’, यह सुनिश्चित कर मैं निर्णय ले सकता हूं ।
‘सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी ने ही मुझे उक्त सूत्र सुझाए तथा उन्होंने ही उन्हें मुझसे यह लिखवाया । इन सूत्रों को मैं कृतज्ञभाव से उनके चरणों में समर्पित करता हूं ।’
– श्री. अशोक लिमकर, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल. (३०.१.२०२४)