नाथपंथी तत्त्वज्ञान से होते हैं सामाजिक समरसता के दर्शन !

महायोगी श्रीगुरुगोरक्षनाथजी के चिरंजीव वास्तव्य से पुनीत हुए श्रीक्षेत्र गोरखपुर की पावन भूमि पर आप सभी दि. २७ एवं २८ जुलाई २०२४ के द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हेतु एकत्रित आना, यह श्रीगुरुगोरक्षनाथजी की ही कृपा है ! दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर तथा हिन्दुस्थान एकेडमी प्रयागराज के संयुक्त तत्त्वावधान में यह सम्मेलन हो रहा है । सम्मेलन के आयोजन-नियोजन में सहभागी सभी का मनःपूर्वक अभिनंदन ! हमें अपनेपन से आमंत्रित करने के लिए हम आपके ऋणी हैं ।

१. संपूर्ण देश के सर्व प्रांतों के विद्वानों को एकत्रित लानेवाला ऐतिहासिक सम्मेलन !

भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से नवनारायण ने कलियुग में सद्भक्तों को शाश्वत आधार देते हुए उन्हें उद्धार का मार्ग दिखाने के लिए अयोनिसंभव अवतार लिया । नाथजी के अलौकिक प्रकटीकरण से पूरा विश्व चकाचौंध रह गया । कलि का कष्ट कैसे कम होगा? इसके लिए नाथ प्रभावी रूप से कार्यरत रहे । साधु-संत-महंत-योगी-जपी-तपी-विद्वान-मठाधिपति-पिठाधिपति- राजा-महाराजा-सामान्यजनों के साथ भक्तगण, सभी को नाथ परमानंद की स्पष्ट अनुभूति प्रदान करते रहे । आप सब की उपस्थिति में यह सम्मेलन उस परमानंद का ही प्रतीक है ! भारत भूमि के सभी राज्यों को नवनाथ के चरणकमलों का स्पर्श होने का भाग्य मिला । इसीलिए सभी प्रांतों को नवनाथ अपने ही लगते हैं । सर्व प्रांतों से अपनेपन से समरस होते हुए सामाजिक समरसता निर्माण करने के लिए नवनाथ ने अपने सिद्धों के साथ दिया योगदान अचंभित करनेवाला है । नाथसंप्रदाय के आज तक के इतिहास में पहली बार ‘समाज निर्मिति में नाथपंथ का योगदान’ विषय पर पूरे देश के सर्व प्रांतों के विद्वानों को एकत्रित करनेवाला यह सम्मेलन सुवर्णाक्षरों में लिखा जाए, ऐसा ऐतिहासिक ही सिद्ध होगा ।

२. कोई भी भेद न करते हुए नाथ द्वारा अपने कार्य से साध्य की सामाजिक समरसता एकात्म समाजपुरुष के दर्शन कराती है !

नवनाथ के साथ नाथसिद्ध ने तीर्थाटन के निमित्त से की भ्रमंती प्रमुखतः सभी जातियां, दुर्गम पहाडी भागों के वनवासी, समुद्र एवं नदियों के परिसर के श्रमिक, भटके विमुक्त एवं राजघरानों को सहानुभूति से व दयाभाव से शिवाद्वैत तत्त्वज्ञान से जोडकर भक्ति का जागरण करने के लिए ही है ऐसा दिखाई देता है । हिमालय, उत्तर प्रदेश, नेपाल, मध्य प्रदेश, बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान, पूर्वांचल, तिब्बत, असम, ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु आदि विविध प्रांतों में नाथकार्य का प्रसार करते समय वहां की भाषाएं नाथ ने आत्मसात कर ली थीं । आज उपलब्ध अनेकविध भाषाओं में नाथसाहित्य देखते समय नाथ ने संबंधित प्रांतों से समरस होते हुए कितने प्रभावी रूप से कार्य किया, यह ध्यान में रखकर हम अनजाने में ही नतमस्तक हो जाते हैं । गोरक्ष किमयागार, नवनाथ भक्तिसार, नाथलीलामृत, नवनाथ कथासार, इन ग्रंथों में अद्भुत कथा प्रसंगों में यौगिक मूल्य, उसमें निहित सार, तत्त्व हमारे मन को स्फूर्ति प्रदान करते हैं । तत्कालीन समाज को शाश्वत आधार देते हुए नाथ ने समरसता का क्रियाशील संदेश सहजता से दिया है, यह रहस्य उजागर होता जाता है । किसी भी प्रकार का जातिभेद, पंथभेद, ऐसा भेद न करते हुए नाथ ने सामान्यजनों के साथ उच्चवर्णियों को भी अपना बना लिया था । नाथ के कार्य से साध्य हुई सामाजिक समरसता एकसंघ-एकात्म समाजपुरुष के दिव्य दर्शन कराती है ।

श्री. मिलिंद चवंडके

 ३. सभी के कल्याण के लिए सिद्धियों का उपयोग करनेवाले नवनाथ !

नवनाथ ने समाजविघातक दुष्ट प्रवृत्तियों का, अंधश्रद्धाओं का, अंधविश्वासों का, दिशाहीन रूढि-परंपराओं का समूल नाश करते हुए आत्मरक्षा, समाजरक्षा, ग्राम व्यवस्था रक्षा, राज्यव्यवस्था रक्षा, सृष्टि संवर्धन अर्थात सभी के कल्याण के लिए सिद्धियों का सटीक उपयोग किया है । वह आंखें चौंधिया देनेवाला चमत्कार सिद्ध हुआ ।

४. पंचमहाभूत नवनाथों के नियंत्रण में हैं !

मठ-मंदिर-पीठ-गढ-गद्दी की स्थापना करते समय प्राकृतिक सान्निध्य को प्रधानता देते हुए पर्यावरण संरक्षण का महत्त्व अधोरेखित किया । ज्ञानचिंतन का व्रत लेकर समरसता का प्रसार-प्रचार किया । पूरी सृष्टि के लिए नवनाथ ने कार्य किया । पंचमहाभूत के प्रभाव से ही सृष्टि चलती है । पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश वे पंचमहाभूत हैं ! नवनाथ के नियंत्रण में ये पंचमहाभूत थे और आज भी हैं ।

५. ‘देह से ही देह के पंचमहाभूतों का विनाश करना’, यह आदिनाथ का गुप्त वर्म है !

पिंडें पिंडाचा ग्रासु । तो हा नाथ संकेतींचा दंशु ।

परि दाऊनि गेला उद्देशु । महाविष्णु ।।

{ज्ञानेश्वरी अध्याय ६, ओवी २९१}

देह से ही देह के पंचमहाभूतों का नाश करना आदिनाथ का गुप्त वर्म है । महाविष्णु भगवान श्रीकृष्ण वही वर्म प्रकट कर दिखाते हैं । यह सीधा सरल अर्थ है ! ज्ञाननाथ की ‘परा’ वाणी का गूढार्थ समझने के लिए अद्वैत सिद्धांत को ध्यान में लेना होगा । पिंड से ब्रह्मांड । ब्रह्मांड कुण्डलिनी से अद्वैत पाना हो, तो पिंड में स्थित कुण्डलिनी ऊपर जानी चाहिए । ब्रह्मांड कुण्डलिनी के रूप में कुलदेवी की स्थापना सहस्रार में करने पर उससे एकता साध्य करने के लिए पिण्डान्तर्गत कुंडलिनी का भी उत्थान होने लगता है । पिंडे पिंडाचा ग्रासु । (ग्रासू = निगलना । इसका सूक्ष्म अर्थ – स्वयं में एकरूप कर लेना) तो हा नाथ संकेतीचा दंशु. साधक साधना आरंभ करता है तब देहान्तर्गत परपिंड, अनादिपिंड, आदिपिंड, महाकारणपिंड एवं प्रकृतिपिंड, इन पांचों पिंडों का क्रम से एक से दूसरे में लय होता जाता है । पांचों पिंड एक-दूसरे से समरस होकर पंचमहाभूतों का निराकरण होता है ! पिंड कुंडलिनी शक्ति: पदं हॅसमुदाह्रतम् । रूपे बिंदूरिती ज्ञेयम । रूपातीतम निरंजनम् ।। पिंड की उत्पत्ति से मूल दशा को जाना यह ‘दंशु’ अर्थात ‘रहस्यबोध’ है । यही रहस्य भगवान श्रीकृष्ण नाथपंथ के माध्यम से बता रहे हैं । यह कुण्डलिनी योग केवल गुरुकृपा से ही मिल सकता है । देहभाव से देवभाव में (स्व रूप) जाने का यह दिव्यमार्ग नाथपंथ ने ही विशाल किया । नाथसंप्रदाय में गुरु अर्थात निजशक्ति की सूक्ष्मतम अंतिम अवस्था । अनात्मा के स्थान पर स्थिर होना अर्थात गुरुचरणों तक पहुंचना । गुरुचरणों का आकर्षण श्रद्धावानों को होता ही है । पंचमहाभूतों के स्पंदन ग्रहण कर उसका लाभ नवनाथ ने सर्वसामान्य श्रद्धालुओं को प्राप्त करवाया । इतना ही नहीं, उसमें पारंगत सिद्ध निर्माण किए । आज भी यह ज्ञान परंपरा से उपलब्ध है । व्रतस्थ आचरण नाथ की विशेषतापूर्ण जीवनशैली है । भगवान श्रीकृष्ण के नियोजनानुसार नवनाथ ने जन्म लिया ।

६. नवनाथों के जन्म का रहस्य !

नवनाथ

नाथसंप्रदाय में ‘त्राटक’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण साधना है । मच्छिंद्रनाथ के जन्म का संबंध जलतत्त्व से है । इसी का अर्थ वह जलत्राटक द्वारा सिद्ध हुआ । उन्होंने सूर्यमंत्र से अभिमंत्रित विभूति सरस्वती नामक गृहिणी को दी, तब उसने वह भक्षण न कर गवळीवाडा की गोशाला के निकट बिखेरी । उससे गोरक्षनाथ प्रकट हुए । गोरखपुर के गोरक्षनाथ का मंदिर एवं मंदिर के पीछे विशाल गौशाला का अन्योन्यसंबंध उनकी जन्मकथा का स्मरण कराते हैं । गोरक्षनाथ के जन्म का संबंध सूर्यनारायण से होने के कारण वे सूर्यत्राटक द्वारा सिद्ध हुए । जालंदरनाथ के जन्म का संबंध अग्नि से है । अग्नित्राटक के आधार पर वे सिद्ध हुए । कानिफनाथ के जन्म का संबंध हाथी से है । गणेशोपासना द्वारा वे सिद्ध हुए । नागनाथ नागासन पर तपश्चर्या कर सिद्ध हुए । चौरंगीनाथ बिंदु त्राटक के कारण सिद्ध हुए । रेवणनाथ रेवा तट पर साधना कर सिद्ध हुए ।

७. नवनाथों द्वारा निर्मित ८४ सिद्ध !

नवनाथ द्वारा निर्मित चौरासी सिद्धों की सिद्ध होने के लिए की गई साधना प्रभावित करनेवाली ही है । विशेष यह कि इन चौरासी सिद्धों के नामों की सूची अलग अलग देखने को मिलती है । इन चौरासी सिद्धों का रहस्य उजागर करते समय चौरासी सिद्ध संख्यावाचक शब्द सम्माननीय विद्वानों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं । जिनकी ८४ फेरों से मुक्ति हो गई वे हैं ये सिद्ध ! यौगिक, तांत्रिक, मांत्रिक, यांत्रिक, रासायनिक, ऐसे सभी प्रकारों से संपूर्ण नाडी शुद्धि हुई वे हैं ये सिद्ध ! अलक्ष निरंजन, आदेश, नाथजी को आदेश चौरासी सिद्धों को आदेश…. यह अनामिक ऊर्जा देनेवाली घोषणाओं की ओर सामाजिक समरसता के दृष्टिकोण से देखने पर नित्य नूतन नवनीत मिलने के चमत्कार का अनुभव होता है ।

८. नाथपंथ में महत्त्वपूर्ण अजपा साधना !

अनादि काल से ऋषि, मुनि, साधु, संन्यासी, योगी, जपी, तपी अजपा साधना द्वारा आत्मोन्नति करते आए हैं । भगवान शिवशंकर ने पार्वतीदेवी को अजपा साधना सिखाई ऐसा आगम ग्रंथ बताते हैं । अत्रि मुनि के पुत्र दत्तात्रेय ने नाथपंथ में यह साधना प्रचारित की । सिद्धयोगी श्रीगुरुगोरक्षनाथ ने योगबीज नामक ग्रंथ में अजपा साधना का उल्लेख किया है – ‘न भूतो न भविष्यति’ । नाथसंप्रदाय की यह महत्त्वपूर्ण साधना । श्रीसमर्थ रामदासस्वामी ने दासबोध ग्रंथ में अजपा साधना पर एक स्वतंत्र समास लिखा है । अजपा साधना में मंत्र-हठ- लय-राज, इन चार मार्गार्ें का समन्वय दिखाई देता है । ध्यान एवं प्राणायाम की अजपा साधना पूर्णतः प्राकृतिक है । प्रथम श्वास फिर उच्छ्वास से सोहम् मंत्र बनता है । दिन के २४ घंटे मानव २१,६०० बार श्वासोच्छ्वास करता है । अर्थात प्रतिदिन सोहम् मंत्र का श्वास के माध्यम से २१,६०० बार उच्चारण होता है । इस अजपा मंत्र को गायत्री भी कहा गया है । गायत्री अर्थात प्राणों की रक्षा करनेवाली शक्ति ।

९. गुरु के मार्गदर्शन में साधना करने से कुंडलिनीशक्ति जागृत होती है !

साधक जब साधना आरंभ करता है तब उसे उसके अहंकार, क्रोध, द्वेष, लोभ, मत्सर, इन सभी का पहले सामना करना पडता है । यह सामना करते समय साधक को कष्ट होने से कुछ साधक बीच में ही साधना अधूरी छोड देते हैं । इसीलिए गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक होता है । साधना से साधक की सकारात्मक ऊर्जा बढती जाती है । साधक को कंपन-स्पंदन अनुभव होते हैं । वह जैसे-जैसे शुद्ध होता है, वैसे-वैसे उसका अनुभव- अनुभूति बढते जाते हैं । ध्यानसाधना से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है । गुरु के मार्गदर्शन में की गई साधना के माध्यम से मन पर नियंत्रण प्राप्त होकर वह परमेश्वर के चरणों में समर्पित करना संभव होता है ।

महायोग {सिद्धयोग}

।। सर्वेऽपि सिद्ध योग दीक्षिता: भवन्तु ।।

विश्व में प्रत्येक व्यक्ति का जन्म योगाभ्यास करने के लिए ही हुआ है । जीवन की कृतार्थता के लिए कुण्डलिनी शक्ति का जागरण सहजसाध्य महायोग तथा सिद्धयोग साधना है । गुरुसेवा की कुण्डलिनी जागृति शक्तिपात योग में है और नाथपंथी गुरु अमृत दृष्टि से, शरीरस्पर्श, आलिंगन, वाचा, दृष्टांत, अग्निसाक्षी, ऐसे विविध पद्धतियों से विधिपूर्वक शक्तिपात करते हैं । त्राटक साधना से भी कुण्डलिनी जागृत होती है; परंतु यह साधना गुरु सान्निध्य में ही की जाए, ऐसा नाथपंथियों का दंडक है । साधक के साधना करने पर कुण्डलिनी जागृत होती है व उसे मूलाधार (परा), स्वाधिष्ठान (पश्यंती), मणिपुर, अनाहत (बुद्धि से वैखरी), विशुद्ध, आज्ञा, इन षट्चक्रों के दर्शन होते हैं । ये दर्शन नियमित करने पर साधक निरोगी होता है । कालांतर में अणिमादि सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।

तस्मात्सचं ल येन्नित्यं । सुखसुप्तामरून्धतीम ।।

तस्या: संचालनेनैव योगी । रोग: प्रमुच्यते ।।

येन संचालिता शक्ति: । स योगी सिद्धिमाजनम् ।।

किमत्र बहुनोत्केन । कालं जयति लिलया ।।

कुण्डलिनी जागृति का यह फल श्रीगुरुगोरक्षनाथ ने बताया है । साधक इस कुण्डलिनी योग का अभ्यास योग साधना में करने के लिए पहले हठयोगी प्राणायाम साध्य कर ले । उसके बिना इस अत्यंत शक्तिशाली यौगिक वैभव से युक्त चमत्कार का फल नहीं मिलेगा ! साधना मार्ग पर निरंतर रहने से बुद्धि दोषरहित होकर ज्ञानी महात्मा की भेंट होती है । मार्गदर्शन मिलकर विकास होता है ।

१०. हमारी नित्य साधना जीवनशैली का अविभाज्य भाग होनी चाहिए !

नाथसिद्ध परंपरा एवं साधना प्रक्रिया का अध्ययन करते समय शिवाद्वैत, वज्रासन में कठोर योग साधना- परंपरा (श्रीगुरुगोरक्षनाथ की सिद्ध सिद्धांत पद्धति एवं ज्ञानेश्वरी ग्रंथ का छठा अध्याय), पिंड से ब्रह्मांड इस तत्त्व सहित प्रयोगसिद्ध साधना एवं व्यवहार, शाक्त तंत्र के पंचमकारों का (मद्य, मांस, मुद्रा, मैथुन, मत्स्य) उदात्तीकरण कर नाथतंत्र का मंडन, साबरी तंत्रसाधना, हठयोग, पंचकंचुक (कला, विद्या, काल, राग, नियति) इत्यादि विषयों का गहन चिंतन करना पडता है । साधना केवल साधना के लिए सीमित न रहकर संपूर्ण जीवन साधनामय हो । जिसमें सिद्ध गायत्री श्वास-प्रश्वास में प्रस्फुटित हो । चराचर में विद्यमान जीवन ब्रह्म सहज सरल सर्वानुकरणीय अनुभव हो । सबमें स्थित चिदब्रह्म संपूर्ण जीवन में अनुभव करना सुलभ हो । उसके लिए हमारी नित्य साधना जीवनशैली का अविभाज्य भाग हो । हमारी धर्मसंस्कृति, हमारे पीढीजात आए हुए संस्कार फलीभूत होने के लिए श्रीनाथ निरंजन कौलवाधुत कुलाचार सृष्टिधर्म से प्रत्येक के जीवन में क्रियाशील होता है । परंतु उसकी पहचान सदेह गुरु के सान्निध्यमें रहने से ही होती है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के प्रगति के शिखर पर ले जानेवाला जीवनतंत्र विकसित होने के पीछे त्रिकाल शक्ति की हुंकार श्रीनाथसिद्ध से ही मिलती है । सर्व जीवनधारा में प्रविष्ट होकर क्रियाशील हुआ प्रमाण अर्थात अनुग्रह सिद्धांत ।

११. हिमालय की निरंजन पादुका

निरंजन तत्त्व से आनेवाला मार्गदर्शन-आदेश नवनाथ एवं नाथसिद्ध साधकों तक पहुंचाते हैं । निरंजन तत्त्व का सगुण रूप अर्थात हिमालय की निरंजन पादुकाएं । श्रीगुरुगोरक्षनाथ के ध्यानयोग से इन पादुकाओं के दर्शन होते हैं । सिद्धाग्नि प्रत्यक्ष दिखाई देती है । गुरुकृपा से साधक आज भी यह अनुभव करते हैं ।

१२. सर्वशक्तिमान होते हुए भी दासोऽहं भाव में रहनेवाले नवनाथ !

नगुरोधिकम् नगुरोधिकम् नगुरोधिकम्, यह गोरक्षनाथ ने बडे गर्व से उच्च स्वर में की घोषणा नाथसंप्रदाय पूर्णत: गुरुनिष्ठ है, इस ओर ध्यान आकर्षित करती है । नाथसिद्ध द्वैताद्वैत विलक्षण इस स्वयंभु विलक्षण अवस्था में विचरण करते हैं । इसीलिए वे संपूर्ण विश्व में बलवान सिद्ध होते हैं । सर्वशक्तिमान होते हुए भी नवनाथ एवं नाथसिद्ध सामान्यजनों की भांति रहे । कार्य करते समय अहंभाव नहीं होना चाहिए । भक्ति का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए । नाथपंथी सदैव दासोऽहं भाव में रहता है । उसके मुख से आनेवाले आदेश एवं अलख निरंजन, घोष सुनते समय उसमें विद्यमान ज्ञानज्योति श्रद्धालु को मोक्ष की ओर जाने का मार्ग दिखाती है । नाथ साधक विश्व में आकर पुनः स्व-रूप प्राप्त कर लेते हैं ।

१३. नाथ संप्रदाय के पंथ

नाथसंप्रदाय के सत्यनाथ पंथ, आई पंथ, धर्मनाथ पंथ, कपिलानी पंथ, पाव पंथ, माननाथी पंथ, वैराग्य पंथ, पागल पंथ, गंगानाथ पंथ, नाटेश्वरी पंथ, राम पंथ, रावल पंथ, ध्वज पंथ, दास पंथ, ये सभी उपपंथ हैं ।

१४. नाथपंथ की विशेषता

सामाजिक समरसता का क्रियाशील संदेश देते हुए प्रभावी रूप से सक्रिय हैं । पिंडी से ब्रह्मांडी देखने की दृष्टि नाथ प्रदान करते हैं । वायुतत्त्व हमारे मन में निवास करता है । गति एवं भान वायुतत्त्व के गुण, रक्ताभिसरण जैसी क्रिया एवं श्वास में गति तथा मन में भान, इन गुणों के दर्शन होते हैं । मन एवं पवन के हमारे श्वास से अटूट नाते का भान रखते हुए उसका लाभ लेना, यह नाथपंथ की विशेषता है ।

१५. नवनाथों द्वारा विश्व के श्रद्धालुओं को अध्यात्ममार्ग पर लाकर उन्हें शांति एवं आनंद प्राप्त करवाने का कार्य प्रभावी रूप से किया जाना

शक्ति-उपासना, मंत्र, तंत्र, यंत्र, गुरु, परमगुरु, परात्पर गुरु, परमेष्ठी गुरु तथा तांत्रिक क्रिया के रहस्य समझते समय समरस समाज निर्मिति का नाथपंथी ध्येय सामने आता है । मंत्रसिद्धि के लिए तंत्र का उपयोग करना पडता है । यंत्र अर्थात उसके द्वारा होनेवाली प्राप्ति । अहं-निर्मूलन, भावजागृति, प्रार्थना, जपानुसंधान का पालन भी एक अप्रतिम तंत्र ही है । गुरु सदैव निसर्गचक्र अर्थात सृष्टि विधान के लिए अनुकूल रहते हैं । युगों- युगों से समृद्ध हमारी आध्यात्मिक विचारधारा को विश्वकल्याण के लिए प्रखर बनाने की शक्ति नाथपंथ में समाई हुई है । नवनाथ ने विश्व के श्रद्धालुओं को अध्यात्म के मार्ग पर लाकर शांति-आनंद प्राप्त करवाने का कार्य प्रभावी रूप से किया । युगानुकूल साधना-उपासना पद्धति नाथ ने हमारे समक्ष रखी । भगवद्गीता के सातवें अध्याय में इसी को ज्ञान सहित विज्ञान कहा है ।

१६. साधक नाथपंथी साधना-उपासना कर आनंद की प्राप्ति कर लें !

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: ।

गुरु:साक्षात परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।

इस परब्रह्म स्थिति को नाथपंथ में निरंजन तत्त्व, अवधूत अवस्था कहा जाता है । देवत्व की दिव्य ऊर्जा का संचार हममें होने लगे, तो हमारा कायाकल्प होता है । नाथचरित्र का श्रद्धापूर्वक भक्तिभाव से वाचन कर आप अपने हृदय का गर्भगृह सुगंधित कर लें । नाथपंथी साधना-उपासना से आनंद की प्राप्ति कर लें । नाथ आज भी सम्मेलनों के माध्यम से संवाद कर रहे हैं यही इस संप्रदाय की विशेषता है ! संजीवन समाधि लेकर भी नाथ कार्यरत हैं, इसका यह प्रतीक है ! अवधूत अवस्था में होने के कारण उनके कार्य की कक्षा बढने की यह प्रत्यक्षानुभूति है !

– श्री. मिलिंद चवंडके, नाथ साहित्य संशोधक / पत्रकार, अहमदनगर, महाराष्ट्र.