शून्य से आरंभ कर विश्वव्यापक कार्य करनेवाले श्रीमन्नारायण स्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी

सनातन के साधकों का भाव है कि सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी भगवान श्रीविष्णु का अवतार हैं । ब्रह्मर्षि ने भी जीवनाडी-पट्टिका में कहा है कि वे श्रीमन्नारायण का अवतार हैं । त्रेतायुग में भगवान श्रीविष्णु का श्रीरामावतार एवं द्वापरयुग में कृष्णावतार हुआ । कृष्णावतार को पूर्णावतार माना जाता है; क्योंकि इस अवतार ने जन्म से ही दैवी चमत्कार अथवा अवतारत्व की शक्ति दिखाना प्रारंभ किया । जन्म के उपरांत माता-पिता वसुदेव एवं देवकी को रखे गए कारागृह के द्वार खुलना, बाढ आई हुई यमुना नदी के जल को भगवान कृष्ण के अंगूठे का स्पर्श होते ही यमुना नदी द्वारा वसुदेवजी को नदी के पार जाने के लिए मार्ग देना, पूतना का वध आदि अनेक बातें दर्शाती हैं कि भगवान श्रीकृष्ण जन्मतः ही अवतार थे । दशावतारों में से भगवान श्रीकृष्ण के पश्चात अब कल्कि अवतार होगा; परंतु ब्रह्मर्षि ने नाडीपट्टिका वाचन में आगे दिए अनुसार कहा है ।

प्रत्येक १ सहस्र वर्ष पश्चात भगवान श्रीविष्णु पृथ्वी पर अवतार धारण करते हैं । तब पृथ्वी के लोगों को वह पता चलेगा ही, ऐसा नहीं है । गत १ सहस्र वर्ष उपरांत ईश्वर ने ‘गुरुदेव डॉ. आठवले’ (परात्पर गुरु डॉ. आठवले) के रूप में जन्म लिया है । (सप्तर्षि जीवनाडी-पट्टिका वाचन क्र. १४६ [१.६.२०२०])

इसके अनुसार धर्मसंस्थापना के लिए बीच-बीच में कुछ मात्रा में श्रीमन्नारायण का तत्त्व पृथ्वी पर अवतरित होगा तथा वही इस कलियुगांतर्गत पांचवें कलियुग में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के रूप में अवतरित हुआ है । भगवान श्रीविष्णु ‘श्री’सहित होते हैं । उनका अवतार भी ‘श्री’ सहित अर्थात श्रीराम एवं श्रीकृष्ण ऐसे ही हैं । इसलिए जहां भगवान श्रीविष्णु वहां सेवा के लिए श्री लक्ष्मी होंगी ही । वर्तमान में श्री लक्ष्मी किस रूप में सेवा कर रही हैं ? वह मेरी अल्प मति को जैसा प्रतीत हुआ है, वैसे यहां प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूं । उससे सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का अवतारत्व हमें जान लेना है ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी

४५ वर्ष की आयु में (वर्ष १९८७ में) मुझे प.पू. भक्तराज महाराज के रूप में गुरुप्राप्ति हुई । वर्ष १९९० में प.पू. बाबा ने कहा ‘देश-विदेश में सर्वत्र धर्मप्रसार करें ।’ उसके लिए उन्होंने केवल आवश्यक ज्ञान ही नहीं दिया, अपितु धर्मप्रसार हेतु जाने के लिए स्वयं की कार (चारपहिया वाहन) दी एवं डीजल के लिए पैसे भी दिए । उस समय उन्होंने यह भी कहा था, ‘‘डॉक्टर, आप पैर फैलाइए । हम आपकी चादर उससे अधिक फैलाएंगे ।’’ (‘चादर देखकर पैर फैलाएं’, इस कथन से परे उनके ये उद्गार थे ।) उनके संकल्प के कारण ‘हम साधना में जब ईश्वर की दिशा में एक कदम आगे बढाते हैं, तब ईश्वर हमारी दिशा में १० कदम आगे बढाते हैं’, यह अनुभूति मुझे अध्यात्म के सभी क्षेत्रों में हुई ।

– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले (संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी का अद्वितीय कार्य : खंड १’)

१.  श्री लक्ष्मी हैं गुरुदेवजी के व्यापक स्वरूप कार्य के लिए आवश्यक धन के रूप में !

श्रीमन्नारायण का तत्त्व पृथ्वी पर सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के रूप में अर्थात मानवीय रूप में यद्यपि अवतरित हुआ, तथापि श्री लक्ष्मी मानवीय रूप में न होकर वह सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के धर्म के पुनरुत्थान के कार्य को आर्थिक सहायता करते हुए उनके चरणों में प्रस्तुत हुई है ।

प.पू. डॉ. आठवलेजी ने साधना प्रारंभ की तथा उनका सबकुछ उन्होंने गुरुचरणों में (प.पू. भक्तराज महाराजजी के चरणों में) अर्पित किया । इसमें धन का भी समावेश था । उन्होंने गुरु के आशीर्वाद से वर्ष १९९० में ‘सनातन भारतीय संस्कृति संस्था’ स्थापित की एवं मुंबई में उनके निवासस्थान पर कार्य प्रारंभ किया । व्यावहारिक दृष्टि से कोई कार्य प्रारंभ करना हो, तो उसके लिए बडी आर्थिक पूंजी की आवश्यकता होती है । उद्योगपति भी किसी उद्योग के लिए बैंक से ऋण लेते हैं । प.पू. डॉ. आठवलेजी के पास ऐसी कोई आर्थिक पूंजी नहीं थी । ऐसी आर्थिक स्थिति में प.पू. डॉ. आठवलेजी ने पूरे विश्व में अध्यात्मप्रसार करने का शिवधनुष उठाया था । इससे उनकी ईश्वर के प्रति पराकोटि की श्रद्धा दिखाई देती है । ‘यह ईश्वरीय कार्य है तथा उसके लिए ईश्वर कभी पैसा कम नहीं पडने देंगे’, ऐसी उनकी पराकोटि की (यह शब्द भी कम ही है) श्रद्धा थी । ‘सनातन भारतीय संस्कृति संस्था’ द्वारा उन्होंने प्रवचन, सत्संग, अभ्यासवर्ग के साथ ही अध्यात्म पर ग्रंथ प्रकाशित करने का निश्चय किया । इसके लिए आवश्यक मनुष्य बल स्वयंप्रेरणा से एवं निधि अर्पण द्वारा अपनेआप मिलती गई । जो कार्य आरंभ किया था, वह भी उदात्त एवं उत्तुंग था । इसलिए अर्पणदाता निःसंकोच उसके लिए अर्पण देते थे । श्रीमन्नारायण का तत्त्व जिस विभूति के स्थान पर कार्यरत है, उस विभूति द्वारा आरंभ किए गए कार्य के लिए श्री लक्ष्मी प्रसन्न न हों, तो आश्चर्य है !

श्री. वीरेंद्र मराठे

स्वयं अलिप्त एवं विरक्त रहनेवाले सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का कार्य, उसके लिए होनेवाले लेनदेन में स्वयं सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी कहीं भी अटके नहीं हैं । वे स्वयं १० X १० के कक्ष में रहते हैं । कक्ष में वातानुकूलित यंत्र स्थापित करने के लिए कहने पर वे कहते हैं कि आश्रम के साधकों को वातानुकूलित कक्ष नहीं हैं, तो मुझे वातानुकूलित कक्ष किसलिए ? लिखने के लिए एक ओर से कोरे कागद, औषधियों के आच्छादन के कोरे भाग का उपयोग करते हैं । प्रत्येक वस्तु का उपयोग संभालकर एवं जीर्ण होने तक करते हैं । साधकों को भी उन्होंने वैसी ही सीख दी है । ऐसा विरक्त जीवन जीनेवाले के धर्मसंस्थापना के कार्य के लिए श्री महालक्ष्मी प्रसन्न न हों, तो आश्चर्य ही है !

– श्री. वीरेंद्र मराठे (१७.४.२०२४)

२. दिन दोगुना रात चौगुना !

वर्ष १९९८ में प.पू. डॉ. आठवलेजी ने साप्ताहिक ‘सनातन प्रभात’ प्रारंभ किया । इसके द्वारा अध्यात्मप्रसार भी होने लगा एवं समाज में भ्रष्टाचार, अनाचार, मिलावट के विरुद्ध जागृति भी प्रारंभ हुई । उसके पश्चात उन्होंने अप्रैल १९९९ में ईश्वरीय राज्य की स्थापना का ध्येय रखकर दैनिक ‘सनातन प्रभात’ प्रारंभ किया ।

स्वतंत्रता आंदोलन के काल में भी कुछ ध्येयनिष्ठ पत्रकारों ने स्वयं की आर्थिक हानि सहकर समाचार पत्र चलाए । स्वतंत्रता के पश्चात भी ऐसे कुछ समाचार पत्र थे; परंतु पश्चात आए बडे समाचार पत्रों के आगे ध्येयनिष्ठ समाचार पत्र बिक्री के दृष्टिकोण से टिक नहीं पाए ।

कोई समाचार पत्र चलाना हो, तो उसके लिए आवश्यक खर्च समाचार पत्र के मूल्य से वसूल नहीं होता । उसके लिए सरकारी विज्ञापन अथवा प्रतिष्ठानों के विज्ञापनों की सहायता लेनी पडती है । ‘सनातन प्रभात’ निर्भीकता से लेखन करनेवाला दैनिक समाचार पत्र है । उसके लिए कुछ गिने-चुने धर्मनिष्ठ एवं राष्ट्रनिष्ठ अर्पणदाताओं को छोडकर कौन विज्ञापन देगा ? दैनिक ‘सनातन प्रभात’ प्रारंभ हुआ, तब भी समाज के कुछ लोगों को लगा था कि निधि के अभाव में वह शीघ्र ही बंद हो जाएगा; परंतु ईश्वरीय योजना अलग ही थी । आज दैनिक ‘सनातन प्रभात’ को २५ वर्ष हो चुके हैं । इस अवधि में दैनिक की पृष्ठसंख्या एवं गुणवत्ता बढती ही गई है । कोई भी व्यवसायिक उद्देश्य न रख समाजप्रबोधन के लिए एवं केवल अध्यात्म, धर्म तथा राष्ट्र विषय लेकर दैनिक प्रारंभ करना एवं निरंतर २५ वर्ष गुणोत्तर वृद्धि कर चलाना क्या ईश्वरीय लीला नहीं है ?

कोई उद्योगपति राष्ट्र एवं धर्म के लिए नहीं, अपितु व्यावसायिक उद्देश्य से दैनिक प्रारंभ करने का निश्चय करे, तब भी उसने आर्थिक पूंजी, प्रतिदिन होनेवाला खर्च, उसे मिल सकनेवाले विज्ञापन आदि का विचार कर निर्णय लिया होता ।
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का अवतारत्व, उनपर रहनेवाली श्री लक्ष्मी की अपार कृपा आदि बातें समझने के लिए यहां केवल दैनिक ‘सनातन प्रभात’ का उदाहरण दिया है । अभी भी सनातन संस्था, सनातन प्रभात नियतकालिक, सनातन के आश्रम, सनातन पंचांग, समाज में होनेवाले उपक्रम आदि के लिए अर्पण स्वरूप में धन मिलता है एवं कार्य संपन्न होता है । अनेक स्थानों पर कार्यक्रमों के लिए निःशुल्क सभागृह देना, साधकों/कार्यकर्ताओं को भोजन, अल्पाहार आदि निःशुल्क उपलब्ध करवाना, स्वयं का मालवाहक वाहन अथवा चारपहिया वाहन उपयोग के लिए देना आदि द्वारा समाज से सहायता मिल रही है ।

गत २५ वर्षों में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा प्रारंभ किया हुआ अध्यात्मप्रसार का कार्य अपार बढ गया है तथा वह पूरे विश्व में फैल रहा है । आर्थिक अडचन के कारण कार्य रुका है अथवा कोई उपक्रम बंद करना पडा है, ऐसा कभी नहीं हुआ है । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की प्रेरणा से प्रारंभ हुए कार्य का विश्वव्यापी स्वरूप देखने और अनुभव करने को मिल रहा है । उसके पीछे प.पू. डॉक्टरजी का असीम त्याग, दुर्दम्य इच्छाशक्ति आदि मानवीय गुणों सहित उनके अवतारत्व का भाग अधिक कार्यरत है । कदम-कदम पर इसका स्मरण रखकर हम धन बचाने तथा उचित विनियोग करने का निश्चय करेंगे । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी एवं उनके कार्य में सहायता करनेवाली श्री महालक्ष्मी देवी के चरणों में कोटिशः कृतज्ञता !

– श्री. वीरेंद्र मराठे, व्यवस्थापकीय न्यासी, सनातन संस्था (१७.४.२०२४)