अध्यात्ममें प्रगतिके लिये साहाय्यक क्षमता

।। श्रीकृष्णाय नम: ।।

पू. अनंत आठवलेजी

अध्यात्ममें ध्येयप्राप्तिके लिये अलग अलग मार्ग हैं । प्रगति होनेके लिये प्रत्येक मार्गमें अलग अलग क्षमता काममें आती है । उन क्षमताओंको संक्षेपमें आगे दिया है । स्वयंमें कौनसी क्षमता अधिक है, यह पहचानकर स्वयंको अनुकूल साधना करनेपर आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र होनेकी संभावना बढेगी ।

१. ईश्वरप्राप्तिके लिये – ‘एक कोटि जप करेंगे’, ‘बारह वर्ष तप करेंगे’ ऐसे अधिक समय लगनेवाले प्रयास करनेकी अपेक्षा ईश्वरके प्रति भक्तिभाव और ईश्वरप्राप्तिका ध्यास, ईश्वरप्राप्तिकी तडप अधिक काममें आती है ।

२. कर्मोंसे आध्यात्मिक प्रगतिके लिये – निष्कामता आवश्यक है । काम पूर्ण उत्साहसे, दक्षतासे करना; दूसरोंकी भलाईके लिये करना; जिसका भला किया, उससे चुकौतीकी अपेक्षा ही न होना; वह कर्म यशस्वी हो अथवा अयशस्वी, उससे सुख-दु:ख न होना (अलिप्तता); ऐसा जो कर्मयोग है, वह पूर्ण निष्कामता साधनेके लिये होता है । महत्त्व कर्मका नहीं, निष्कामताका है ।

३. समाधिके लिये – चित्तकी एकाग्रता का महत्त्व है । पातञ्जल अष्टांगयोग के पहिले पांच-अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, मुख्यत: पूर्वसिद्धता है । अगले दो अंग-धारणा और ध्यान, चित्तकी एकाग्रताके प्रयास हैं । अंतिम अंग अर्थात् समाधिमें चित्तकी एकाग्रता हो जाती है ।

४ अ. आत्मज्ञानप्राप्तिके लिये – अत्यंत तीव्र जिज्ञासा होनी चाहिये । जाननेतक मन पूर्णत: अस्वस्थ रहा तो जिज्ञासा पूरी करनेके अथक प्रयास होते हैं और वे यशस्वी भी होते हैं ।

४ आ. ब्रह्मलीन होनेके लिये – वैराग्य और तीव्र मुमुक्षुत्व होना चाहिये । तब, प्राप्त आत्मज्ञानकी प्रत्यक्ष अनुभूति, प्रचीति होकर सभी इच्छाओंसहित मोक्षप्राप्तिकी इच्छाका भी लोप होकर मनुष्य कामनाशून्य हो जाता है और ब्रह्मलीन होनेकी योग्यता आ जाती है ।

– अनंत आठवले. २५.०५.२०२३

।। श्रीकृष्णापर्णमस्तु ।।

पू. अनंत आठवलेजी के लेखन का चैतन्य न्यून न हो इसलिए ली गई सावधानी

लेखक पू. अनंत आठवलेजी के लेखन की पद्धति, भाषा एवं व्याकरण का चैतन्य न्यून (कम) न हो; इसलिए उनका लेख बिना किसी परिवर्तन के प्रकाशित किया गया है । – संकलनकर्ता