नारियों के लिए पाठशालाएं तथा सहशिक्षा की व्यवस्था

वेदों में उल्लेखित कुछ मंत्र इस बात को रेखांकित करते हैं कि कुमारियों के लिए शिक्षा अपरिहार्य एवं महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी । स्त्रियों को लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शिक्षाएं दी जाती थीं । गोभिल गृहसूत्र में कहा गया है कि अशिक्षित पत्नी यज्ञ करने में समर्थ नहीं होती थी ।

प्राचीन परंपरा के अनुसार ऋग्वेद की रचना में २०० स्त्रियों का योगदान है । ऋग्वेद के दशम मंडल के ३९ एवं ४० सूक्त की ऋषिका घोषा, रोमशा, विश्ववारा, इन्द्राणी, शची और अपाला थी ।

श्री. रमेश शिंदे

शतपथ ब्राह्मण में स्त्रियों के व्रतोपनयन का उल्लेख है । हरित संहिता के अनुसार वैदिक काल में शिक्षा ग्रहण करनेवाली दो प्रकार की कन्याएं होती थीं – ब्रह्मवादिनी एवं सद्योवात् । सद्योवात् १५ या १६ वर्ष की आयु तक, जब तक उनका विवाह नहीं हो जाता था, तब तक अध्ययन करती थीं । ब्रह्मावादिनी ब्रह्मचर्य का पालन कर जीवन के अंत तक ज्ञानार्जन करती थीं । इन्हें प्रार्थना एवं यज्ञों के लिए आवश्यक महत्त्वपूर्ण वैदिक मंत्र पढाए जाते थे तथा संगीत एवं नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी । कन्याओं के लिए अलग पाठशालाएं नहीं थीं । जिन कन्याओं को गुरुकुल में अध्ययन करने का अवसर प्राप्त होता था, वे पुरुषों के साथ ही अध्ययन करती थीं । सहशिक्षा को बुरा नहीं समझा जाता था । उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ आत्रेयी अध्ययन कर रही थी । भवभूति ने ॠमालती माधव’ (प्रथमांक) में कामन्दकी के गुरुकुल में अध्ययन करने का वर्णन किया है । इसी प्रकार पुराणों में कहोद और सुजाता, रूहु और प्रमदवरा की कथाएं वर्णित हैं । इनसे ज्ञात होता है कि कन्याएं बालकों के साथ-साथ पाठशालाओं में पढती थीं । ये समस्त प्रमाण इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि उस युग में स्त्रियां बिना पर्दे के पुरुषों के बीच रहकर ज्ञान की प्राप्ति कर सकती थीं । गुरुकुलों में सहशिक्षा का प्रचार था, इस धारणा का समर्थन आश्वलायन गृहसूत्र में दिए गए समावर्तन संस्कार की विधि से भी मिलता है । इस विधि में स्नातक के अनुलेपन क्रिया के वर्णन में बालक एवं बालिका का समार्वतन संस्कार साथ-साथ संपन्न होना पाया जाता है । उस युग में स्त्री के ब्रह्मचर्याश्रम, वेदाध्ययन तथा समावर्तन संस्कार का औचित्य आश्वलायन के मतानुसार प्रमाणित हो जाता है । आद्य शंकराचार्य से हार जाने के फलस्वरूप अपने पति मण्डन मिश्र के संन्यास लेने पर उनकी पत्नी उभयभारती श्रृंगेरी में अध्यापन कार्य करने लगी थीं । कहा जाता है कि भारती द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के कारण ही शृंगेरी और द्वारका के मठों का शिष्य संप्रदाय ‘भारती’ नाम से अभिहित हुआ ।

– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति