१. कर्तापन भगवान के चरणों में अर्पण करना
‘जब किसी व्यक्ति की प्रशंसा होती है, तब उसे ‘मेरी ही प्रशंसा हो रही है’, ऐसा लगता है और उससे उसका अहं तुष्ट होता है । वास्तव में देखा जाए, तो वह कार्य उसमें विद्यमान आत्मशक्ति (चैतन्यशक्ति) के द्वारा अर्थात भगवान के कारण होता है; इसलिए ‘वह प्रशंसा उस भगवान की होती है’, इसका भान रखा गया (भगवान की प्रशंसा को उन्हीं को अर्पण किया गया), तो आनंद मिलेगा और अहं भी नहीं बढेगा । इसीलिए ही अध्यात्म में त्याग का महत्त्व है ।
२. साधना
अ. चैतन्य का ही महत्त्व होने से उसके द्वारा ही कार्य करना । सनातन धर्म का प्रचार ही चैतन्य का प्रचार है !
आ. ‘चाहे कितना भी संघर्ष करना पडे; परंतु ‘मुझे भगवान ही चाहिए । वे ही मुझे इस परिस्थिति से बाहर निकालनेवाले हैं’, यह विचार सदैव ध्यान में रखना चाहिए ।
इ. हमारी बुद्धि का निश्चय न होने के कारण हमारी साधना में निरंतरता नहीं होती । हमारे मन, चित्त, बुद्धि एवं अहं, इन प्रत्येक का कार्य सुनिश्चित है । मन का कार्य है ‘संकल्प एवं शंका निर्माण करना !’ मनोलय होने पर ही मन की सभी शंकाएं नष्ट होंगी । मनोलय होने के लिए साधना अर्थात नामजप करना, सत्संग में जाना, सत्सेवा करना और सत् के लिए त्याग करना अर्थात ही ‘गुरुकृपायोग के अनुसार साधना करना’ इत्यादि आवश्यक है ।
ई. साधना उचित हो, तो परिस्थिति भले कैसी भी क्यों न हो; हम आनंदित ही होते हैं ।
उ. बहुत कष्ट के कारण जीवन में यदि निरंतर भोग भोगने पड रहे हों; तब भी भगवान ने भोग भोगने के लिए ही मेरा चयन किया है अर्थात ही ‘उन्होंने भोग भोगने के लिए ही क्यों न हो; परंतु एक माध्यम के रूप में मेरा चयन किया है’, इसके प्रति कृतज्ञता लगनी चाहिए ।’
– श्रीमती प्रियांका राजहंस, (आध्यात्मिक स्तर ६९ प्रतिशत) सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२६.४.२०२०)