महाशिवरात्रि पर विशेष आलेख

शिव नाम सुनते ही मन में कर्पूर जैसे गौर वर्ण, देह में भस्मी लगाये हुए, बाघाम्बर पहने हुए, सर्पों को आभूषण व यज्ञोपवीत की तरह धारण किये हुए, जटाओं में चन्द्रकला को व गंगा को धारण किये हुए, हाथ में डमरु व त्रिशूल लिये हुए, नीले कण्ठ व तीन नेत्र वाले दिव्य शरीर का अनायास ध्यान आ जाता है। शिव के साथ ही उनका वाहन श्वेत-धवल वृषभ, उनकी शक्ति पार्वती, उनके पुत्र कार्त्तिकेय (षडानन=छः मुख वाले) व गजानन तथा इन तीनों के वाहन सिंह, मोर व मूषक मानस-पटल पर उभरते हैं। साधारणतः सिंह से वृषभ को भय होता है, सर्प को मोर से भय है, चूहा सर्प का भोजन है।

शिव का भाल-नेत्र, अग्नि-रूप है, दाहिना नेत्र सूर्य है व वाम नेत्र चन्द्रमा है, शिव की जटा में गंगा व चन्द्रमा है, शिव के कण्ठ में विष है, शिव का बाँया अर्द्धभाग गौरी-रूप है और वे कामदेव का दहन करने वाले भी हैं और आश्चर्य यह कि वे विष्णु के मोहिनी रूप पर आसक्त भी हो जाते हैं। श्मशान में क्रीड़ा करने वाले, भूत-प्रेत गणों के साथ रहने वाले, कपालों की माला पहने हुए दिगम्बर शिव अपने भ्रूविक्षेप से देवताओं को समस्त ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। शिव के रूप में, पहनावे में, चर्या में, व्यवहार में, परिवार में अनेक विरोधी तत्त्व देखने में आते हैं और वे सभी तत्त्व एक समरस में रहते हैं क्योंकि शिव स्वयं समरस-मूर्ति हैं। वे अखण्ड-अद्धैत स्वरूप होते हुए समस्त द्वैत को द्वितीया के चन्द्र रूप में अपनी जटाओं में धारण किये रहते हैं। वे द्वन्द्वातीत होकर सभी द्वन्द्वों को अपनाते हैं। शिव की अनन्त करुणा में सभी विरोध, सभी विषमताएँ आश्रय पाकर सामरस्य की ओर अग्रसर होती हैं। शिव के विभिन्न रूप व शिव-लीलाएँ भी रोचक, रहस्यमय गूढ़, आश्चर्यमयी हैं व शिव-तत्त्व को, शिव-महिमा को प्रकट करती हैं।

वरिष्ठ पत्रकार, प्रखर विचारक, चिंतक एवं लेखक, विवेक मित्तल, बिकानेर.

स्वरूपतः शिव परब्रह्म हैं। वे नित्यशुद्ध-बुद्ध-मुक्त हैं, वे देश-काल-वस्तु परिच्छेद से रहित हैं, उनमें सजातीय, विजातीय, स्वगत भेद नहीं है। माण्डूक्य उपनिषद् में शिव का ओंकार रूप से प्रतिपादन है। इस उपनिषद् के सातवें मन्त्र में कहा है- वह ओंकार न अन्तःप्रज्ञ है, न बहिःप्रज्ञ है, न उभयतःप्रज्ञ है, न प्रधानघन है, न प्रज्ञ है, न अप्रज्ञ है, वह अदृष्ट है अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य है, एकात्मप्रत्ययसार है, प्रपंचोपशम है, शान्त है, शिव है, अद्वैत है, तुरीय है, आत्मा है, उसको अनुभव कर लेना चाहिये। निर्गुण, निराकार, निष्क्रिय शिव ही अपनी अचिन्त्य, अनिर्वचनीय शक्ति का प्रयोग करके सगुण-निराकार व सगुण-साकार बनते हैं। वे ही जीव, जगत् रूप से प्रतिभासित होते हैं। अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए वे ईश्वर कहलाते हैं। वे जगत् की सृष्टि, स्थिति, लय करते हुए क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व महेश कहे जाते हैं। इन तीन कृत्यों के अलावा उनके दो कृत्य और हैं- निग्रह करना अर्थात् जीव को अज्ञान अवस्था में बाँधकर रखना, अनुग्रह करना अर्थात् जीव को स्वरूपबोध (मुक्ति) की ओर ले जाना। ये दो कृत्य करते हुए वे क्रमशः ईश्वर व सदाशिव कहे जाते हैं। वेद में सृष्टि, स्थिति, लय, निग्रह, अनुग्रह-इन पंचकृत्यों को करने वाले शिव-रूपों को क्रमशः सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान कहा गया है। जिस ज्ञान को लेकर शिव पंचकृत्य करते हैं उसको वेद कहते हैं। वेद परमेश्वर का विवर्त हैं। वेद अनन्त, अनादि, सनातन व अपौरुषेय हैं। शिव ने वेद को प्रकट किया और वेद ही शिव-स्वरूप के निर्धारण में परम प्रमाण हैं। वेद में धर्म व ब्रह्म तत्त्व का प्रतिपादन है। जिस विधान को लेकर परब्रह्म शिव स्पन्दित होते हैं, पंचकृत्य करते हैं, उसे धर्म कहते हैं। धर्म, शिव का वाहन नन्दीश्वर वृषभ है-धर्मो वृषः।

यह अखिल सृष्टि प्रकट होती है और अपनी अवधि पूर्ण होने पर महाप्रलय में लीन हो जाती है। सृष्टि और महाप्रलय में उस शिव की त्रिगुणात्मिका शक्ति के तीनों गुण (सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण) साम्य अवस्था में रहते हैं। महाप्रलय की अवधि पूर्ण होने पर जब वह परमेश्वर सृष्ट्युन्मुख होता है तो त्रिगुणों में विक्षेप उत्पन्न होता है। तब विशुद्ध सत्त्वगुण वाली प्रकृति से युक्त ‘ईश्वर-चैतन्य’ व मलिन सत्त्वगुण वाली प्रकृति से युक्त ‘प्राज्ञ’ नामक असंख्य जीव प्रकट होते हैं। तमोगुण-प्रधान प्रकृति से पांच तन्मात्राएँ (शब्द-तन्मात्रा, स्पर्श-तन्मात्रा, रूप-तन्मात्रा, रस-तन्मात्रा, गन्ध-तन्मात्रा) प्रकट होती है। इन तन्मात्राओं अर्थात् सूक्ष्म पंचमहाभतों से तपे हुए स्वर्ण के समान दैदीप्यमान् अण्डाकार सूक्ष्म ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है। इस सूक्ष्म ब्रह्माण्ड में ही असंख्य जीवों की, अव्यक्त वासनाओं से युक्त हिरण्यगर्भ अर्थात् ब्रह्मा की एक साथ ही विद्युत-प्रभा की तरह अभिव्यक्ति होती है। इसी को मनु-स्मृति में बताया है-

तदण्डमभवत् हैमं सहस्रांश-समप्रभम्।
तस्मिन् जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोक-पितामहः।।

अर्थात् उस परमेश्वर से सूर्य के समान प्रकाश वाला स्वर्ण-वर्ण का अण्डा उत्पन्न हुआ। सम्पूर्ण स्थल ब्रह्माण्ड के (चराचर जगत् के) परमपिता स्वयं ब्रह्मा उससे ही उत्पन्न हुए। महाप्रलय की इस अव्यक्त अवस्था से सर्वप्रथम यह ज्योतिर्मयी अण्डाकार आकृति उत्पन्न हुई। इसलिये यही अण्डाकार आकृति उस सनातन अव्यक्त परब्रह्म शिव का बोध कराती है, अतः इसे लिंग कहते हैं। लिंग शब्द का अर्थ है- ‘लीनं (अव्यक्तं) गमयति’- जो अव्यक्त का बोध कराये उसे लिंग कहते हैं। यह अण्डाकार आकृति उस ब्रह्म का ‘रूप-लिंग’ है। सृष्टि ओंकार नाद से प्रकट होना प्रारम्भ होती है। इसलिये ओंकार को शिव-ब्रह्म का शब्द-लिंग कहते हैं। उस ब्रह्म की पुरुष में, अंगुष्ठ के बराबर के आकार में, हृदयाकाश में अवस्थिति होती है। इसलिये अंगुष्ठाकृति में भी शिव की उपासना की जाती है।

वेद में ब्रह्म का सर्वाधिक उल्लेख शिव, रुद्र, त्र्यम्बक व महेश्वर नाम से ही हुआ है। शिव की उपासना, अष्टमूर्ति रूप (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र, आत्मा) में, नाद रूप में, ज्योति रूप में, लिंगाकार रूप में, जटाजूटधारी ध्यानस्थ रूप में, नटराज रूप में, हरि-हर रूप में, अर्द्धनारीश्वर रूप में, मृत्युंजय रूप में व दक्षिणामूर्ति रूप में की जाती है।

संकलन
– विवेक मित्तल

साभार – ‘मृत्युंजयी साधना‘, पूज्य श्रीस्वामी संवित् सोमगिरिजी महाराज की पुस्तक से संकलित