लेखमाला : ‘सनातन के दैवी बालकों की अलौकिक गुणविशेषताएं’
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संकल्पानुसार आगामी कुछ वर्षाें में ईश्वरीय राज्य की स्थापना होनेवाली है । अनेकों के मन में प्रश्न होता है कि ‘इस राष्ट्र का संचालन कौन करेगा ?’ वर्तमान में मानव की सात्त्विकता अत्यल्प होने से उनमें इस राज्य को संभालने की क्षमता नहीं है; इसलिए ईश्वर ने उच्च लोक से कुछ हजारों दैवी बालकों को पृथ्वी पर जन्म दिया है । उनके प्रगल्भ विचार और अलौकिक विशेषताएं इस स्तंभ में प्रकाशित कर रहे हैं ।
६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर की दैवी बालिका कु. अपाला औंधकर (आयु १४ वर्ष) की निरीक्षणक्षमता व उसका प्रत्येक घटना की ओर सीखने की दृष्टि से देखना
१. स्वयं के नृत्य की दृश्यश्रव्य-चक्रिका देखते समय विचारप्रक्रिया में हुआ परिवर्तन और उससे सीखने के लिए मिले सूत्र
१ अ. अपने नृत्य की दृश्यश्रव्य-चक्रिका देखते हुए ‘मैंने अच्छा नृत्य किया’, ऐसा विचार मन में आना : वर्ष २०१८ और २०१९ में आश्रम में संपन्न परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के जन्मोत्सव के समय और अन्य कुछ अवसरों पर दृश्यश्रव्य-चक्रिका के माध्यम से मेरे नृत्य दिखाए जाते थे । वह दृश्यश्रव्य-चक्रिका देखते हुए मेरे मन में ‘साधकों को मेरा नृत्य दिखा रहे हैं । मैंने अच्छा नृत्य किया है’, ऐसे विचार आते थे ।
१ आ. ‘सभी कुछ देवताओं की कृपा से और व्यष्टि साधना के अच्छे प्रयासों के कारण होता है’, इसका बोध होने पर स्वयं के नृत्य की दृश्यश्रव्य-चक्रिका देखते हुए ‘अन्य साधिका का नृत्य देख रही हूं’, ऐसा लगना : वर्ष २०२१ में रामनाथी आश्रम में नवरात्रि उत्सव के अवसर पर ‘कालिकास्तुति (ऐगिरी नंदिनी)’ पर आधारित नृत्य की दृश्यश्रव्य-चक्रिका दिखाई गई । तब वह ‘सभी भगवान की कृपा से और व्यष्टि साधना के अच्छे प्रयासों के कारण हुआ’, इसका मुझे बोध हुआ । अपना नृत्य देखते हुए ‘वहां मैं न होकर अन्य साधिका नृत्य कर रही है’, ऐसा मुझे लगा और मेरे मन में ‘साक्षात श्री दुर्गादेवी वहां प्रकट हुई है, तो मैं कैसे नृत्य कर सकती हूं ?’, ऐसा विचार आया ।
१ इ. ‘भगवान के कारण प्रत्येक कृति होती है’, यह बोध होने पर अहं में वृद्धि न होकर खरा आनंद मिलता है : ‘हम में ‘अहं’ हो, तो हम कोई भी आनंद अनुभव नहीं कर सकते । ‘भगवान के कारण प्रत्येक कृति होती है’, यह बोध मन में होने पर हमारे अहं में वृद्धि नहीं होती और खरा आनंद मिलता है’।
२. स्वयं की प्रशंसा होने पर हुई मन की विचारप्रक्रिया और सीखने के लिए मिले सूत्र
२ अ. साधकों ने नृत्य की प्रशंसा करने पर मन को प्रश्न पूछकर सिखने की स्थिति में रहने का बोध होना : मेरे द्वारा किए गए नृत्य की दृश्यश्रव्य-चक्रिका देखने पर अनेक साधक मुझसे मिलने पर ‘नृत्य भावपूर्ण किया है । ऐसा लगा साक्षात श्री दुर्गादेवी नृत्य कर रही है ।’, इस प्रकार मेरे नृत्य की प्रशंसा करते थे । उस समय मैं स्वयं को प्रश्न पूछती थी ‘अपाला, तुम सीखने की स्थिति में हो न ? गुरुदेवजी को (परात्पर गुरु डॉक्टरजी को) अपेक्षित ऐसा आचरण तुम कर रही हो न ?’ उस समय मैं तत्काल सतर्क होती थी और मुझे वह स्वयं की प्रशंसा अनुभव नहीं होती थी ।
२ आ. ‘प्रशंसा केवल भगवान के गुणों की ही हो सकती है’, ऐसा विचार आना : तदुपरांत मैंने गुरुदेवजी को सूक्ष्म से बताया, ‘गुरुदेवजी, मैं सीखने की स्थिति में हूं, तो आप निश्चित ही मुझे कुछ तो बताएंगे और मैं अपनी प्रशंसा में फंसी हुई हो, तो आप मुझे कुछ नहीं बताएंगे’, तब मेरे मन में ‘प्रशंसा केवल भगवान के गुणों की ही हो सकती है । भगवान की कृपा से उसमें से एक गुण की प्रशंसा हुई, तो उसमें मेरा कुछ भी श्रेय नहीं’, ऐसा विचार आया ।
३. सहसाधक को स्वयं की ‘चूकें अथवा स्वभावदोष और अहं’ के विषय में मन खोलकर पूछने पर उनसे आध्यात्मिक निकटता होना
प्रतिदिन साधकों से वार्तालाप और उनसे सीखने से हमारी उनसे निकटता होती है । मैं एक साधिका से प्रतिदिन ‘सूक्ष्मज्ञान, सेवा और भाववृद्धि’ के विषय में पूछती थी । हम दोनों में अत्यधिक निकटता निर्माण हुई । तब भगवान ने मुझे सिखाया, ‘जब तक अपने निकटवर्ती साधक को हम स्वयं से होनेवाली चूकों के विषय में नहीं पूछते, तब तक हममें और उस साधक में वास्तविक निकटता नहीं होती । हम किसी साधक से ‘अपनी चूकें अथवा स्वभावदोष और अहं’ के विषय में मन खोलकर पूछते हैं, उस समय उस साधक की और हमारी खरी आध्यात्मिक निकटता होती है । इससे हम सीखकर और अधिक अंतर्मुख हो सकते हैं ।’
– कु. अपाला औंधकर (आध्यात्मिक स्तर ६१ प्रतिशत), महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१०.१०.२०२१)
सनातन संस्था के दैवी बालक केवल ‘पंडित’ नहीं, अपितु ‘प्रगल्भ’ साधक हैं !सनातन संस्था में कुछ दैवी बालक हैं । उनका बोलना आध्यात्मिक स्तर का होता है । आध्यात्मिक विषय पर बोलते हुए उनके बोलने में ‘सगुण-निर्गुण’, ‘आनंद, चैतन्य, शांति’ जैसे शब्द होते हैं । ऐसे शब्द बोलने के पूर्व उन्हें रुककर विचार नहीं करना पडता । वे धाराप्रवाह बोलते हैं । उन्हें सुनते रहने का मन करता है । सामान्य व्यक्ति के दृष्टिकोण से किसी को ऐसे शब्दों का नियमित उपयोग करने हेतु इन विषयों से संबंधित निरंतर अध्ययन आवश्यक होता है । उस विषय का गहन अध्ययन किया, तो वे विषय बुद्धि से समझ में आते हैं और उनका आंकलन होता है । तदुपरांत ‘पांडित्य’ आने पर वे बोलते हैं; परंतु इन बालसाधकों की आयु केवल ८ से १५ वर्ष ही है । ग्रंथों का गहन अध्ययन तो क्या; उन्होंने कभी वाचन भी नहीं किया है । इसलिए उनकी यह परिभाषा उनके विगत जन्म की साधना के कारण उनमें निर्माण हुई प्रगल्भता दर्शाती है ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (२८.१०.२०२१) अभिभावको, दैवी बालकों को साधना में विरोध न करें, अपितु उनकी साधना की ओर ध्यान दें !‘कुछ दैवी बालकों का आध्यात्मिक स्तर इतना अच्छा होता है कि वे आयु के २० – २५ वें वर्ष में ही संत बन सकते हैं । कुछ माता-पिता ऐसे बालकों की पूर्णकालीन साधना को विरोध करते हैं और उन्हें माया की शिक्षा सिखाकर उनका जीवन व्यर्थ करते हैं । साधक को साधना में विरोध करने समान बडा दूसरा महापाप नहीं है । यह ध्यान में रखकर ऐसे माता-पिता ने बच्चों की साधना भलीभांति होने की ओर ध्यान दिया, तो माता-पिता की भी साधना होगी तथा वे जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होंगे !’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१८.५.२०१८) |
हिन्दू राष्ट्र हेतु तेजस्वी पीढी निर्माण होने के लिए आदर्श गुरुकुल स्थापित करने की तैयारी करनेवाले द्रष्टा परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !‘विगत कुछ वर्षाें से मेरी इच्छा थी कि ‘एक आदर्श गुरुकुल आरंभ करें ।’ अप्रैल २०२० में इस विषय का चिंतन कर ‘वैदिक उपासनापीठ’ की ओर से चलाए जानेवाला गुरुकुल कैसा होगा ?’, इस विषय की लेखमाला के १५ भाग मैंने ‘वॉट्सऍप’ पर धर्मप्रसार के उद्देश्य से तैयार कर ‘जागृत भव’ नाम के गुटों पर प्रसारित किया था । विगत छह माह से मेरे मन में ‘यदि अभी ‘कोरोना’ की लहर न आती, तो मैं तत्काल गुरुकुल आरंभ करती’, यह विचार पुनः पुन: आ रहा था । १. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी दैवी बालकों के लिए बना रहे दैवी गुरुकुल देखकर ‘स्वयं का स्वप्न पूर्ण हो रहा है’, ऐसा लगना रामनाथी आश्रम में विगत कुछ दिनों से दैवी बालकों का सत्संग आरंभ है । उसमें मुझे उपस्थित रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । आश्चर्य की बात यह है कि ‘मैंने जैसे गुरुकुल की कल्पना की थी, वैसा ही दैवी गुरुकुल प.पू. गुरुदेवजी दैवी बालकों के लिए तैयार कर रहे हैं ऐसा मेरे ध्यान में आया ।’ यह सब वास्तव में हो रहा है, यह देखकर ‘मेरा स्वप्न पूर्ण हो रहा है’, ऐसा मुझे लगा । ‘गुरु शिष्य की सभी इच्छा पूर्ण करते हैं’, इसकी प्रतीति मुझे हुई । २. मेरे द्वारा समाज में प्रस्तुत किए गुरुकुल संकल्पना के कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र रामनाथी में प्रत्यक्ष आचरण में लाए जा रहे हैं, ऐसा ध्यान में आना २ अ. ‘हिन्दू राष्ट्र के लिए एक आदर्श तेजस्वी पीढी और आदर्श धर्मप्रसारक (उत्तम साधक) तैयार करना’, यह गुरुकुल स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य है ! २ आ. संत ही गुरुकुल के मार्गदर्शक होंगे ! : गुरुकुल के मार्गदर्शक संत ही होंगे, तथापि विशिष्ट कुशलतावाला साधक अथवा कोई विद्यार्थी जिस कला में सफल होगा, वह अन्यों को भी वह कला सिखाकर उसमें कुशलता प्राप्त करवाने का प्रयास करेगा । २ इ. गुरुकुल के विद्यार्थियों का मुख्य ध्येय ‘ईश्वरप्राप्ति करना’ होने से उसमें पालन की जानेवाली शिक्षापद्धति : गुरुकुल के विद्यार्थियों का मुख्य ध्येय ‘ईश्वरप्राप्ति करना’ होने से साधना करने को सबसे अधिक महत्त्व होगा । गुरुकुल में वर्तमान शिक्षापद्धति का पालन नहीं होगा । ‘गुरुकुल के विद्यार्थियों के ‘धर्म एवं अध्यात्म’ विषय संबंधी सूक्ष्म ज्ञान में वृद्धि हो, साथ ही उनकी छठी इंद्रिय विकसित हो’, इसलिए प्रयास किया जाएगा । जिन विद्यार्थियों की छठी इंद्रिय पहले से जागृत हुई होगी, उन्हें अगले चरण का मार्गदर्शन किया जाएगा । २ ई. गुरुकुल में ‘विद्यार्थियों की कुशलता और उनके आध्यात्मिक स्तर’ को महत्त्व दिया जाएगा : गुरुकुल में प्रचलित शिक्षापद्धति के अनुसार कक्षा पद्धति नहीं होगी । गुरुकुल में लडके और लडकियां एकत्रित ही सीखेंगे । ‘विद्यार्थियों की कुशलता और उनका आध्यात्मिक स्तर’ ध्यान में रखा जाएगा । विविध गुटों के अलग-अलग कुशलतावाले साधकों का पाठ्यक्रम भिन्न अर्थात उनकी रुचि के अनुसार और उनकी साधना के अनुरूप होगा । २ उ. समष्टि साधना का महत्त्व : विद्यार्थियों में कोई निपुणता हो, तो उसमें उन्हें निपुण कर साधना के मार्ग पर आगे ले जाया जाएगा । उन विद्यार्थियों की समष्टि साधना होने के लिए उन्हें उनकी कुशलता अन्य लोगों को सिखाने के लिए कहा जाएगा । २ ऊ. वर्तमान शिक्षापद्धति के अनुसार शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों के समान वे केवल ‘पाखंड’ करनेवाले नहीं होंगे । उन्हें प्रायोगिक स्तर पर विषय सिखाया जाएगा । २ ए. विद्यार्थियों में ‘त्यागी वृत्ति और सेवाभाव’ गुण विकसित होने के लिए प्रयास किए जाएंगे । २ ऐ. ‘स्वभावदोष और अहं निर्मूलन’ की प्रक्रिया करना, यह विद्यार्थियों के अध्ययन का अनिवार्य अंग होगा । २ ओ. ‘गुरुकुल में नि:शुल्क ज्ञान दिया जाएगा । विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में ‘सनातन के ग्रंथ’ समाविष्ट होंगे ।’ – पू. तनुजा ठाकुर (२८.१०.२०२१) |