शिक्षाप्रणाली निश्चित करते समय मनुष्य के जीवन से संबंधित ध्येय का व्यापक दृष्टिकोण आवश्यक !

सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?

पू. डॉ. शिवकुमार ओझाजी

     पूज्य डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे । उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिन्दी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । विगत लेख में ‘आधुनिकता से ग्रस्त युवकों के प्रश्नों का समाधान न कर पाना, ज्ञान एवं उसके ४ प्रकार तथा ज्ञान एवं ज्ञान के साधनों के विषय में पूर्णता का अभाव’ के विषय में जानकारी पढी । आज उसके आगे का लेख देखेंगे । (भाग ७)

११. शिक्षाप्रणाली निर्धारित करने में व्यापक दृष्टिकोण का अभाव होने से मनुष्य अज्ञानी रहना

     शिक्षा के निर्धारण में व्यापक दृष्टिकोण का प्रचुर अभाव आधुनिक शिक्षा का संचालन संकीर्णता से भरा हुआ है, उसमें व्यापक दृष्टिकोण नहीं है । आधुनिक शिक्षा में केवल इसी बात का ध्यान रखा गया है कि मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकताएं क्या हैं, इन्हीं की पूर्ति का आधार बनाकर तदनुरूप शिक्षा का कार्यान्वयन हुआ है । शिक्षा में व्यापक दृष्टिकोण का होना अत्यंत आवश्यक है । व्यापक दृष्टिकोण की अनुपस्थिति में मनुष्य अपने जीवन से संबंधित बहुत-सी बातों के प्रति अज्ञानी बना रहेगा तथा अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं का कार्यान्वयन नहीं हो पाएगा, जैसे वासनाओं (राग, द्वेष, ईर्ष्या, तृष्णा आदि) का मिटना, चरित्र निर्माण, अंतर्निहित शक्तियों (सिद्धियों) का जागरण, जीवन के ध्येयों का यथार्थ रूप में निश्चय, जीवन से संबंधित अनेक गूढ समस्याओं का समाधान इत्यादि । ‘‘शिक्षा के निर्धारण में व्यापक दृष्टिकोण आवश्यक’’ एक महत्त्वपूर्ण विचार है ।

१२. आधुनिक शिक्षाप्रणाली में सुधार करने में असफल होना

१२ अ. भारत की आधुनिक शिक्षाप्रणाली की नींव अंग्रेजों की शिक्षा संबंधी नीतियों पर आधारित होना : भारत में प्रचलित आधुनिक शिक्षा के दोषों तथा उसके परिणामों से सभी परिचित हैं । यह सर्वविदित है कि भारत में आधुनिक शिक्षा का आधार अंग्रेजों की शिक्षा संबंधी नीति रही है कि शिक्षा ऐसी हो जिससे विद्यार्थी एवं नवयुवक पाश्चात्य सभ्यता के प्रशंसक हो जाएं तथा उन्हें (अंग्रेजों को) शासन के संचालन में तथा शासनकाल बढाने में सुलभता हो ।

१२ आ. आंतरिक स्वरूप में परिवर्तन करने का साहस न होने से आधुनिक शिक्षा विविध दोषों से युक्त ही होना : आधुनिक शिक्षा संबंधी व्यवस्थाओं एवं नीतियों में परिवर्तन लाने की स्वतंत्रता (शासन के हस्तांतरण का अनुबंध) के पश्चात समय-समय पर आयोगों का गठन हुआ है तथा संस्तुतियां (सिफारिशें अर्थात Recommendations) प्रस्तुत की गई हैं । इसके फलस्वरूप शिक्षा का बाहरी रूप तो कुछ बदला है; परंतु उसके आंतरिक स्वरूप में परिवर्तन करने का साहस नहीं किया गया, जिसके कारण आधुनिक शिक्षा आज भी विभिन्न दोषों से ग्रस्त है ।

१२ इ. आधुनिक शिक्षा में सुधार होने के लिए किए विविध उपाय असफल होना

१. शिक्षा केंद्रों में प्रतिदिन कुछ समय आरंभ में प्रार्थना करना

२. किसी अन्य देश की शिक्षा प्रणाली का अनुकरण करने पर विचार करना

३. समस्याओं को बीच से सुलझाना

४. नियमों का उल्लंघन करनेवालों के लिये कठोर दंड का प्रावधान होना

५. समाधान हेतु बौद्धिक विचार प्रस्तुत करना, जैसे आर्थिक समानता

     इन उपायों से कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं हुआ है ।

१३. पश्चिमी शिक्षा में भारतीय संस्कृति की विचारधारा से भारतीयों को अनभिज्ञ रखा जाना और भारतीय संस्कृति में विद्यार्थी तपोमय जीवनयापन कर उनका मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में सक्षम बनना संभव

     पश्चिमी शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवियों एवं शिक्षाविदों में यह विचार आजकल विकसित हुआ है कि विद्यार्थियों को मानवीय मूल्यों (Human Values) की शिक्षा विद्यालयों में दी जानी चाहिए, जिसके कारण विद्यार्थी सदाचरण का पालन करेंगे । परंतु हमारी (लेखक की) शंका यह है कि मानवीय मूल्यों को पढा देने मात्र से विद्यार्थियों में क्या सदाचरण का निर्वाह हो सकेगा ? हमारा मानना है कि सभी विद्यार्थी मानवीय मूल्यों (जैसे सच बोलना, छल-कपट न करना, हिंसा न करना इत्यादि) से पहले से ही परिचित होते हैं; क्योंकि वे स्वाभाविक क्रियाएं हैं, झूठ बोलना आदि किसी निमित्त से होते हैं ।

     मौलिक समस्या यह है कि सच बोलना आदि का आचरण नहीं कर पाते । अत: हमें इसका समाधान खोजना है कि मानवीय मूल्यों को जानते हुए भी उसका आचरण क्यों नहीं हो पाता । इस विषय पर भारतीय संस्कृति में पर्याप्त अनुसंधान हुआ है तथा सदाचरण के प्रति दृढप्रतिज्ञ, प्रवृत्त एवं अनुरक्त होने के विविध व्यावहारिक उपाय बताए गये हैं । हम भारतीयों का दुर्भाग्य यह है कि आधुनिक शिक्षा में भारतीय संस्कृति की विचारधाराओं से हमें अनभिज्ञ रखा जाता है । मानवीय मूल्यों के पालन में तथा उनकी रक्षा में मनुष्य को विविध प्रकार के कष्ट झेलना पड सकता है, जो सुविधाभोगी आधुनिक विद्यार्थियों या युवकों के लिये संभव नहीं । इसलिये भारतीय संस्कृति में विद्यार्थियों को तपोमय जीवन जीना होता है, जिसके कारण मानवीय मूल्यों का पालन व उसकी रक्षा करने में वे सक्षम बन जाते थे ।

१४. भारतीय संस्कृति द्वारा निर्धारित शिक्षा समझने का प्रयत्न होने पर ही आधुनिक शिक्षा के चक्र से बाहर निकल सकते हैं !

     शिक्षा के स्वरूप में सुधार क्यों नहीं हो सका, इसके कारणों को जानने का प्रयत्न करना होगा । हमारा (लेखक का) मानना है कि आधुनिक समाज, शासक वर्ग, शिक्षा के कर्णधार, शिक्षाविद इत्यादि सभी आधुनिक शिक्षा प्राप्त हैं । इसलिए वे सभी आधुनिक शिक्षा के परिणामों से ग्रस्त हैं, उससे बाहर उनका चिंतन या जीवन नहीं हो पाता, बाहर निकलने का विचार भी उनको नहीं आता, आधुनिक भोगवादी सभ्यता में आनंदित रहकर अपने तर्कों को अपनी बुद्धिमत्ता समझकर अपने अहंकार को पोषित करते रहते हैं । इस चक्र से बाहर तभी निकला जा सकेगा, जब भारतीय संस्कृति द्वारा प्रतिपादित शिक्षा को समझने का प्रयत्न करेंगे, अंतःकरण शुद्ध करने के उपायों को अपने जीवन में अपनाएंगे । इसके पश्चात ही आधुनिक शिक्षा के स्वरूप में सुधार हो पाने की आशा की जा सकती है ।

१५. भारतीय संस्कृति समझकर उसका पालन करने पर ही शिक्षा के आधुनिकीकरण से बाहर निकल सकेंगे !

     शिक्षा में दोषों का होना एक बात है । इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि आधुनिक जीवन की समस्याएं बढती ही जा रही हैं, शिक्षा में सुधार के सभी प्रयत्न असफल रहे हैं । सभी बुद्धिजीवी इससे चिंतित हैं; किंतु समाधान खोजने में असमर्थ हैं । यह भयावह स्थिति है । इस स्थिति से तभी निकला जा सकेगा जब भारतीय संस्कृति को समझने का प्रयास किया जाए तथा शिक्षा व जीवन के विषय में उसके द्वारा बताए गये मार्ग पर आस्था रखी जाए तथा उसका अनुपालन हो । अन्य कोई उपाय नहीं है ।                                                                                      (क्रमशः)

– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा, वरिष्ठ शोधकर्ता एवं भारतीय संस्कृति के अध्ययनकर्ता (साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’)