पूज्य डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे । उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिन्दी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । विगत लेख में ‘भारतीय संस्कृति’ सर्वोत्तम शिक्षा का दृढ आधार होना, मानवीय जीवन के बंधन से मुक्ति मिलने हेतु शिक्षा चाहिए एवं आधुनिक मान्यता तथा दोष के विषय में जानकारी पढी । आज उसके आगे का लेख देखेंगे । (भाग ६)
४. आधुनिकता से ग्रस्त युवकों के प्रश्नों का समाधान न कर पाना
आजकल के विद्यार्थी कुछ प्रश्न उठाते हैं, उनका यथोचित उत्तर न मिल पाने पर उन्हें अपने विश्वास में कुछ भी गलत नहीं दिखलायी देता । ऐसे ही कुछ प्रश्नों के विषय में विचार, प्रस्तुत पुस्तक में दिए हैं ।
५. आधुनिक युग की भौतिक प्रगति ही प्रत्यक्ष प्रमाण, मानसिक अनुमान एवं तर्क पर आधारित होना
आधुनिक जीवन में ज्ञानेंद्रियों (आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) द्वारा पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप में जानकर कुछ अन्य पदार्थों का भी मानसिक अनुमान (Guess) लगाया जाता है । इस अनुमान की सत्यता को परखने के लिए प्रत्यक्ष और तर्क का आश्रय लिया जाता है, प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए प्रयत्न किए जाते हैं । आधुनिक युग की समस्त भौतिक प्रगति मूलत: इसी प्रत्यक्ष, मानसिक अनुमान और तर्क पर आधारित है । इन्हीं का आधार पाकर उत्तरोत्तर भौतिक उपकरणों या भौतिक सुविधाओं का आविष्कार हुआ है । यहां प्रत्यक्ष प्रमाण के अतिरिक्त तर्क को भी अत्यंत महत्त्व दिया गया है ।
इन्हीं तीन मौलिक साधनों द्वारा प्राप्त ज्ञान को अंग्रेजी भाषा में ‘साइंस’ (Science) कहते हैं जिसका हिन्दी में अनुवाद ‘विज्ञान’ किया गया है । यह विज्ञान वास्तव में इंद्रियार्थ विज्ञान है अर्थात मनुष्य की इंद्रियों द्वारा जाना गया विज्ञान है ।
६. आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक प्रणाली
आधुनिक वैज्ञानिक प्रत्यक्ष पदार्थ की छानबीन करके किसी तत्त्व या सिद्धांत का निर्धारण करते हैं । यह आधिभौतिक प्रणाली है, जिसकी सीमाएं (Limitations) होती हैं । प्राचीन भारतीय प्रणाली यह है कि हम अपने अनुभवों की छानबीन करके तत्त्व या सिद्धांत का निश्चय करते हैं । यह आध्यात्मिक प्रणाली है जो आधिभौतिक प्रणाली से अधिक विस्तृत एवं गूढ है ।
७. ज्ञान एवं उसके ४ प्रकार
आधुनिक शिक्षा प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान पर ही आधारित होकर अपने ज्ञान को सीमित कर लेती है । अंतःकरण की वृत्तियां भी ज्ञान का प्रतिपादक होती हैं । ज्ञान, चार प्रकार का होता है – प्रत्यक्ष परोक्ष, अपरोक्ष और साक्षात अपरोक्ष । इन चार प्रकार के ज्ञानों की विस्तृत चर्चा इस पुस्तक में की गई है ।
८. न्यायदर्शन के ४ प्रमाण
ज्ञानप्राप्ति के साधनों को ‘प्रमाण’ कहा गया है । प्रमाणों के विषय में विस्तृत चर्चा महर्षि गौतम प्रणीत ‘न्याय दर्शन’ नामक ग्रंथ में की गई है । न्याय दर्शन में चार प्रमाण बताए गए हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण, उपमान प्रमाण और आप्त प्रमाण । इन प्रमाणों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत ग्रंथ में दिया गया है ।
९. ज्ञानप्राप्ति होना और उसके चरण
अ. ज्ञान केवल ज्ञानेंद्रियों द्वारा रूप, श्रवण, गंध, स्वाद और स्पर्श की वृत्तियों के रूप में ही नहीं आता; प्रत्युत अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) की विभिन्न वृत्तियों द्वारा भी प्राप्त होता है ।
आ. ज्ञान केवल जाग्रतावस्था में ही नहीं होता, स्वप्नावस्था व सुषुप्तावस्था के अनुभव भी हमें ज्ञान प्राप्त करने का अवसर देते हैं (देखिए माण्डूक्योपनिषद्) ।
इ. तप द्वारा चेतना का विस्तार करके भी हमें ज्ञान प्राप्त होता है, अतींद्रिय ज्ञान एवं सिद्धियां प्राप्त होती हैं ।
ई. ज्ञान हमें कभी-कभी अचानक भी मिलता है, जिसे ‘प्रतिभाज्ञान’ कहते हैं । वह अपरोक्ष रूप से होता है ।
१०. ज्ञान एवं ज्ञान के साधनों के विषय में पूर्णता का अभाव
हमारे चित्त में पुनर्जन्मों के क्या-क्या संस्कार विद्यमान हैं, वे कब उदय होंगे तथा किस प्रकार के अनुभव प्रतिपादित करेंगे, इसे बता पाना संभव नहीं । अत: हमारे अनुभवों का क्षेत्र, केवल ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त अनुभवों की अपेक्षा, अत्यंत विशाल एवं गूढ है । आधुनिक समय में हम सभी अपने सीमित ज्ञान तथा सीमित ज्ञान-साधनों को आधार बनाकर जीवन-यापन कर रहे हैं, अर्थात ज्ञान एवं ज्ञान के साधनों के विषय में पूर्णता का बहुत अभाव है । इसलिए आधुनिक जीवन में जो अपूर्णता दिखलायी दे रही है तथा जीवन विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए !
– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा, वरिष्ठ शोधकर्ता एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता
(साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’)