विगत डेढ वर्ष से कोरोना संक्रमण के कारण विभिन्न राज्य सरकारों ने लोगों के एकत्रित होने पर अनेक बंधन लगाए । राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता इन बंधनों को अस्वीकार कर विविध कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे हैं । अल्पसंख्यक भी उनके त्योहार, साथ ही मुशायरा (कव्वाली) जैसे कार्यक्रम बिना किसी संकोच के सहस्रों की संख्या में कर रहे हैं । ऐसा होते हुए भी सरकार और न्यायव्यवस्था द्वारा हिन्दुओं के त्योहारों पर विविध बंधन लगाए जा रहे हैं । इस कारण सभी ‘कानून-कायदे हिन्दुओं के लिए और फायदे (लाभ) अल्पसंख्यकों के लिए’, ऐसी स्थिति दिखाई देती है ।
१. सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं पहल कर कावड यात्रा की प्राचीन परंपरा पर प्रतिबंध लगाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को बाध्य करना
‘श्रावण में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और अन्य कुछ राज्यों में कावड यात्रा निकालने की अनेक वर्षाें से चली आ रही प्राचीन परंपरा है । श्रद्धालु गंगा का पवित्र जल लाकर गांव अथवा शहर के देवता को गंगास्नान करवाते थे । विशेष यह कि सभी यात्राएं भक्तिभाव से और पैरों में पादत्राण (चप्पल) न पहनकर की जाती हैं । इस कावड यात्रा के विषय में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ दिनों पूर्व स्वयं से (स्युमोटो) जनहित याचिका प्रविष्ट की तथा केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार को नोटीस भेजी । न्यायालय को ऐसा करने का अधिकार है । इस नोटिस में न्यायालय ने पूछा कि ‘अभी-अभी कोरोना की दूसरी लहर नियंत्रित हो रही है और तीसरी लहर का भय बना हुआ है, तब उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कावड यात्रा को अनुमति क्यों दी गई ?’ इस पर उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यायालय में शपथपत्र प्रस्तुत किया । गृह विभाग के सचिव ने बताया, ‘कावड यात्रा के कुछ संगठनों से चर्चा की है और इस चर्चा में ‘कावड यात्रा पर बंधन लगाएं जाएंगे’, ऐसा निश्चित किया गया । तथापि कुछ अपवादात्मक धार्मिक स्थिति में कावड यात्रा टालना संभव न हो, तो जिला दंडाधिकारियों की अनुमति से कावड यात्रा निकाली जा सकती है । इस हेतु कुछ बंधन लगाएं गए हैं । जिन्होंने टीके के दोनों डोज लिए है, साथ ही जिनकी कोरोना की आरटीपीसीआर जांच हुई है, ऐसे लोगों को अपवादात्मक स्थिति में कावड यात्रा निकालने की अनुमति दी जा सकती है ।’ तदुपरांत सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि ‘हमें एक भी कावड यात्री रास्ते पर नहीं दिखना चाहिए ।’
२. महाराष्ट्र सरकार द्वारा ७ वीं – ८ वीं शताब्दी से चली आ रही पंढरपुर की तीर्थयात्रा को प्रतिबंधित करना
आषाढी एकादशी को महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश राज्यों से बडी संख्या में श्रद्धालु पंढरपुर में आते हैं । महाराष्ट्र से हजारों टोलियां नंगे पांव विठ्ठल के दर्शन हेतु जाती हैं । उनमें से १० टोलियां प्रतिष्ठित मानी जाती हैं । वर्ष २०२० में कोरोना की गंभीरता ध्यान में रखकर संत और अनेक वारकरियों ने स्वयं से ही ‘यात्रा नहीं करेंगे’, ऐसा स्वीकार किया और सरकार का आदेश ‘सर आंखों पर’ माना । परंतु इस वर्ष संतवीर ह.भ.प. बंडातात्या कराडकर जैसे कुछ वरिष्ठ वारकरियों ने यह आदेश अस्वीकार किया । इन सभी वरिष्ठ वारकरियों का कहना था कि महाराष्ट्र में दारू की दुकानें, मनोरंजन के सभी साधन, होटल, व्यायामशाला, मैदान, तैरने के तलाब, व्यापार सभी चालू है । विविध खेल भी आयोजित किए जा रहे हैं । ‘इन सभी कृतियों पर बंदी नहीं है, तब केवल धार्मिक कृतियों पर शासन बंदी क्यों लगा रहा है ?’, ऐसा कहते हुए उन्होंने बंदी का आदेश ठुकराया । प्रशासन ने भी मुगलकालीन अत्याचार का प्रदर्शन करते हुए ह.भ.प. बंडातात्या कराडकर सहित अनेक वारकरियों को बंदी बनाया ।
३. राजनीतिक दल और उनके कार्यकर्ताओं को बंधन तोडने के लिए प्राप्त विविध छूटें
अ. १९ जून २०२१ को पुणे में राष्ट्रवादी कांग्रेस के कार्यालय उद्घाटन हेतु उपमुख्यमंत्री सहित हजारों कार्यकर्ता उपस्थित थे । इस भीड में कोरोना के किसी भी नियम का पालन नहीं किया गया । ऐसे कृत्यों पर किसी के द्वारा आपत्ति उठाने पर पुलिस अपराध प्रविष्ट करने का दिखावा करती है; परंतु जिनके कारण भीड होती है, उन नेताओं पर कुछ भी कार्यवाही नहीं होती ।
आ. ४ जुलाई २०२१ को संभाजीनगर के देवगिरी किले के नींव में एक धर्मांध दल के कार्यकर्ताओं ने ‘मुशायरा’ (कव्वाली) आयोजित की थी । यह कार्यक्रम रात १२ बजे तक चालू था । इस कार्यक्रम में विशेष रूप से उपस्थित विधायकों पर उनके कार्यकर्ताओं ने हजारों रुपए उडाएं । कार्यक्रम में कोरोना के सभी नियमों की अनदेखी की गई । पुलिस भी यह सब देखती रही । यहां भी २-४ आयोजकों पर अपराध प्रविष्ट किए होंगे । यह दिखावा किसलिए?
इ. मार्च-अप्रैल २०२१ में कोरोना की दूसरी लहर आ रही थी तब बंगाल, तमिलनाडु, केरल ऐसे कुछ राज्यों में चुनाव हुए । इस निमित्त सभी दलों ने लाखों लोगों को रास्ते पर एकत्रित किया और शोभायात्राएं निकाली । जिसके परिणाम स्वरूप कोरोना संक्रमण में वृद्धि हुई ।
ई. देहली में विगत एक वर्ष से किसान आंदोलन जारी है । सर्वोच्च न्यायालय ने आंदोलन स्थगित करने के लिए बताया । केंद्र सरकार ने ‘२ वर्ष कृषि कानून लागू नहीं किए जाएंगे’, ऐसा बताया । तब भी आंदोलन जारी ही है ।
उ. अल्पसंख्यक ईद मना सके, इसलिए केरल की साम्यवादी सरकार ने ३ दिन की ढील दी । इस कारण केरल में कोरोना संक्रमण में बडी मात्रा में वृद्धि हुई ।
४. न्यायव्यवस्था ने इन स्थानों पर भी स्वयं के अधिकार का उपयोग किया होता, तो अनेकों की प्राणरक्षा हो जाती !
मुखपट्टी (मास्क) नहीं लगाई; इसलिए पुलिस दुपहिया वाहन चालकों पर कार्यवाही कर सकती है, उन्हें दंड भरने के लिए बाध्य कर उनके विरुद्ध अपराध प्रविष्ट करती है; परंतु इसी प्रकार का अपराध कभी भी राजनीतिक नेताओं के विरुद्ध प्रविष्ट नहीं किए गए । इसलिए ‘कानून केवल गरीबों के लिए अथवा सर्वसामान्य लोगों के लिए ही होता है क्या ?’, ऐसा लोगों को लगने लगे तो उसमें क्या गलत ? कार्यालय का उद्घाटन, मुशायरा के कार्यक्रम, किसान आंदोलन, चुनाव आयोजित करना, ऐसे विविध विषयों पर प्रविष्ट हुई याचिकाओं का गंभीरता से विचार कर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं (स्युमोटो) निर्णय दिया होता, तो दूसरी लहर के कारण हुए भयंकर परिणाम से बच सकते थे और जनता को भी आनंद होता; क्योंकि १०० करोड से अधिक लोगों को उन पर विश्वास है ।’
।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।।
– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, संस्थापक सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद और अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय