समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह मौलिक अधिकार नहीं है ! – देहली उच्च न्यायालय में केंद्र सरकार की मांग

नई देहली : समलैंगिक विवाह कोई मौलिक अधिकार नहीं है । यह तथ्य है कि समलैंगिक जोडे जिस तरह से एक साथ रहते हैं, वह भारतीय पारिवारिक परंपरा के अनुरूप नहीं है । यह व्यक्तिगत कानूनों के नाजुक संतुलन को बिगाड सकता है, इसलिए इसे मान्यता नहीं दी जानी चाहिए, केंद्र सरकार ने देहली उच्च न्यायालय में यह मांग की है । देहली उच्च न्यायालय में एक याचिका प्रविष्ट कर हिन्दू विवाह अधिनियम और विशेष कानून के अधीन सलैंगिक लिंग विवाह की मांग की गई है । भारत में समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं है । भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ में समलैंगिक विवाह को अपराध माना गया है । इसके लिए १० वर्ष के कारावास का प्रावधान था; किंतु ६ सितंबर, २०१८ को सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि समलैंगिक विवाह अपराध नहीं माना जा सकता ।

केंद्र सरकार ने शपथपत्र में कहा है,

१. भारत में एक पुरुष और एक महिला के विवाह को मान्यता प्राप्त है, यह अनेक सामाजिक मूल्य जैसे कि उम्र, रीति-रिवाज, परंपरा तथा सांस्कृतिक व्यवहार पर आधारित है । समलैंगिक विवाह को संविधान के अनुच्छेद २१ में याचिकाकर्ताओं द्वारा मांगे गए मौलिक अधिकारों में समाहित नहीं किया जा सकता है ।

२. सरकार ने आगे कहा कि वैवाहिक संबंध अलिखित भारतीय संस्कृति और लिखित संविधान के भाग हैं और समलिंगी विवाह होना दोनों का उल्लंघन है, इसलिए यह अलिखित भारतीय संस्कृति और लिखित संविधान दोनों को ध्वस्त करेगा । अत: न्यायालय को इस पर ध्यान दिए बिना याचिकाओं को रद्द कर देना चाहिए ।

३. परिवार का विषय विवाह पंजीकरण और समलिंगी लोगों के मध्य मान्यता से परे है । समलैंगिक लोग साथी के रूप में एक साथ रहते हैं और यौन संबंध रखते हैं । भारतीय कौटुंबिक संस्था परिवारिक अवधारणा से उनके पति, पत्नी और बच्चों की तुलना नहीं की जा सकती ।