आदर्श कर्मयोगी तथा क्षात्रधर्म साधना के प्रतीक भगवान परशुराम !

सदैव परशु धारण करनेवाले परशुराम !

भृगु संहिता के जनक महर्षि भार्गव के कुल में (परशु)राम का जन्म हुआ; इसलिए उन्हें ‘भार्गवराम’ कहा जाता है । भार्गवराम का जन्मनाम ‘राम’ था । उन्होंने शिवजी की कठोर आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया, इसलिए शिवजी ने उन्हें पिनाक धनुष्य एवं तेजस्वी शस्त्र परशु प्रदान किए । राम पिनाक धनुष्य को आवश्यकता के अनुसार धारण करते थे; परंतु वह उनके पास सदैव होता था । इसलिए उन्हें सभी परशु धारण करनेवाले राम अर्थात ‘परशुराम’ नाम से पुकारने लगे ।

परशुराम की विशेषताएं 

१. सप्त चिरंजीवियों में से एक : राजा बली, भगवान परशुराम, हनुमानजी, विभीषण, महर्षि व्यास, कृपाचार्य एवं अश्वत्थामा, ये सप्तचिरंजीव हैं । परशुराम ने काल पर विजय प्राप्त की है; इसलिए वे सप्तचिरंजीवियों में से एक हैं ।

२. हैैहय वंश के राजा कार्तवीर्य सहस्रार्जुन द्वारा जमदग्नि ऋषि के आश्रम से कामधेनु का अपहरण करना तथा गोमाता की रक्षा हेतु परशुराम द्वारा अवतारी कार्य आरंभ किया जाना : त्रेतायुग के पूर्वार्ध में हैहय वंश के क्षत्रिय महिष्मति नरेश कार्तवीर्य सहस्रार्जुन ने राजसत्ता से उन्मत्त होकर पहले जमदग्नि ऋषि के आश्रम में स्थित कामधेनु का अपहरण किया, उस समय परशुराम ने गोमाता की रक्षा हेतु सहस्रार्जुन से युद्ध कर उसे पराजित किया तथा वे कामधेनु को लेकर पुनः ऋषि जमदग्नि के आश्रम में आए । इस घटना के उपरांत अहंकारी क्षत्रियों ने इसका प्रतिशोध लेने हेतु परशुराम के परिजनों पर आक्रमण किया तथा तब से क्षत्रिय एवं परशुराम के मध्य संघर्ष आरंभ हुआ । इस प्रकार कामधेनु को मुक्त करने हेतु परशुराम ने शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु से सहस्रार्जुन के साथ युद्ध कर अपना अवतारी कार्य आरंभ किया ।

मधुरा भोसले

३. काल के अनुसार समष्टि साधना करना : जमदग्निपुत्र परशुराम अन्य ऋषिपुत्रों की भांति संपतकाल में आश्रम में रहकर व्यष्टि साधना के अंतर्गत नित्य नैमित्तिक यज्ञयाग, वेदाध्ययन तथा जप-अनुष्ठान, साथ ही ध्यान-धारणा करते थे; परंतु सहस्रार्जुन की भांति जब अनेक क्षत्रिय उन्मत्त होकर प्रजा पर अत्याचार करने लगे, उस समय आपातकाल की विभीषिका को पहचानकर परशुराम ने तुरंत ही व्यष्टि साधना को विराम देकर प्रजा एवं गुरुकुलों की रक्षा हेतु समष्टि साधना के अंतर्गत दुर्जन क्षत्रियों के साथ युद्ध आरंभ कर दिया ।

४. वर्ण के अनुसार क्षात्रधर्म साधना करना : महर्षि जमदग्नि का वर्ण ब्राह्मण, जबकि श्री रेणुकामाता का वर्ण क्षत्रिय था । परशुराम जन्म से ब्राह्मण; परंतु गुण एवं कर्म से क्षत्रिय थे । अतः उन्होंने क्षत्रिय वर्ण के अनुसार आचरण करते हुए क्षात्रधर्म का पालन कर दुर्जनों का विनाश किया । ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज से संपन्न परशुराम ने ब्रह्मवृंद को नामशेष करने आए, उनके आश्रमों तथा गुरुकुलों की उज्ज्वल परंपरा को नष्ट करनेवाली अन्यायी राजसत्ता को ललकारा ।

५. कठोरता से कर्तव्य का पालन कर भी प्रेमपूर्ण एवं क्षमाशील परशुराम ! : क्षात्रतेज संपन्न भगवान परशुराम ने २१ बार पृथ्वी की परिक्रमा कर दुर्जन क्षत्रियों का नाश किया तथा राजा जनक जैसे धर्मशील राजाओं को कृपाशीर्वाद सहित अभयदान भी दिया । माता को कलंकमुक्त करने हेतु परशुराम ने पिता जमदग्नि की आज्ञा से माता एवं बंधु का शिरच्छेद किया । जब पिता ने उनपर प्रसन्न होकर वर मांगने के लिए कहा, तब परशुराम ने पिता से माता एवं बंधु को पुनः जीवित करने का वर मांगा । इस घटना से समझ में आता है कि ‘कर्तव्य का कठोरता से पालन करनेवाले परशुराम प्रेमपूर्ण एवं क्षमाशील भी थे ।’

६. परिपूर्ण वैराग्य के प्रतीक : आजीवन निष्काम कर्म करने पर शिवजी की आज्ञा से उन्होंने क्षत्रियों का निर्मूलन करना रोका । क्षत्रिय वध के पापक्षालन हेतु परशुराम ने अश्वमेध यज्ञ किया तथा उन्होंने जीती हुई संपूर्ण पृथ्वी इस यज्ञ के अध्वर्यु महर्षि कश्यप को दान में दे दी । परशुराम ने कर्तव्यपूर्ति के उपरांत क्षत्रिय कर्म का त्याग कर कर्मसंन्यास धारण किया । इस प्रकार भगवान परशुराम वैराग्य के प्रतीक हैं ।

७. दुर्जनों का विनाश करने के साथ धर्माधिष्ठित सृष्टि की निर्मिति एवं पालन करना : कश्यप ऋषि को दान में दी गई संपूर्ण पृथ्वी पर परशुराम रह नहीं सकते थे; उसके कारण अपने पुण्यबल की सहायता से तत्क्षण ही वे महेंद्र पर्वत पहुंचे तथा उन्होंने अरब समुद्र पर बाण चलाकर उसे पीछे ढकेल दिया । उन्होंने केवल तीन कदम चलकर वैतरणी नदी से कन्याकुमारी तक परशुराम भूमि तैयार की । पूर्व की ओर सह्याद्री की पर्वतशृंखलाओं तथा पश्चिम की ओर अरब समुद्र के मध्य पर स्थित भूमि की पट्टी ही परशुराम भूमि अथवा परशुराम क्षेत्र है !

८. स्वयं का अवतारी कार्य प्रत्यक्ष रूप से पूर्ण करना तथा रामकृष्णादि अवतारों के कार्य में अप्रत्यक्ष रूप से सहभागी होना : परशुराम ने दुर्जनों का विनाश कर प्रत्यक्ष रूप से अपना अवतारी कार्य पूर्ण किया । त्रेतायुग में प्रभु श्रीराम का अवतार होने पर परशुराम ने स्वयं में विद्यमान क्षात्रतेज एवं अवतारी सामर्थ्य को प्रभु श्रीराम में प्रक्षेपित किया । इस प्रकार धर्मयुद्ध में रावण पर विजय प्राप्त करने हेतु परशुराम ने अप्रत्यक्ष रूप से श्रीराम की सहायता की ।

– सुश्री (कु.) मधुरा भोसले (आध्यात्मिक स्तर ६५ प्रतिशत), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.