१. अपराधी को अपराध करने से रोकनेवाला सिद्धांत
‘आत्मा, शरीर, इंद्रिय, अर्थ, बुद्धि, ज्ञान, सिद्धि, मन, वृत्ति, दोष, भूत, परिणाम एवं न्यायसूत्र के विषयों पर लिखनेवाले गौतम ऋषि ने कहा, ‘दुःख जन्मप्रवृत्तिदोष मिथ्याज्ञान मुत्तरोत्रापे तदन्तर पयदापा वर्गः ।’ (संदर्भ : न्याय शास्त्र) इसका अर्थ ‘दु:ख, जन्म से प्राप्त सदोष प्रवृत्ति, झूठा ज्ञान तथा झूठे ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले दुष्कृत्य, ये सभी मोक्ष एवं न्याय शास्त्र से दूर हो जाते हैं ।’ न्याय शास्त्र के अनुसार जिन सिद्धांतों का ज्ञान मोक्ष, अपराध अथवा दुष्कृत्य को रोकता है, उन्हें प्रमाण के रूप में गिना जाता है (ये मुख्य ४ हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, सदृश्य एवं शब्द) एवं प्रमेय (ये १२ हैं, ये हैं आत्मा, शरीर, इंद्रिय, अर्थ, बुद्धि, ज्ञान, सिद्धि, मन, वृत्ति, दोष, प्रेतभाव एवं फल (परिणाम) !’
२. वर्तमान न्याय व्यवस्था के प्रचलित दोष दूर करने हेतु
प्राचीन भारतीय न्याय शास्त्र एवं न्याय व्यवस्था का ज्ञान आवश्यक !
वर्तमान समय की न्याय व्यवस्था में प्रचलित दोष दूर करने हेतु हमें प्राचीन भारतीय न्याय शास्त्र एवं न्याय व्यवस्था का ज्ञान होना आवश्यक है । यह ज्ञान हमें वैदिक साहित्य, वेदांग, सूत्र ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ, रामायण, महाभारत, पुराणों, अर्थ शास्त्र एवं अन्य धर्म शास्त्रीय ग्रंथों, संस्कृत काव्य इत्यादि का अध्ययन करने पर ही मिल पाएगा ।
‘अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करना’ प्राचीन भारतीय दार्शनिकों का ध्येय था । अपराध होना ही अधर्म है । इसलिए न्याय के माध्यम से अपराधों का अस्तित्व नष्ट कर धर्म की स्थापना करनी चाहिए । उसके कारण प्राचीन ऋषियों ने ‘न्याय की स्थापना’ को ही धर्म माना । अर्थात अपराध का मूल कारण षड्रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं जलन) हैं । इन ६ शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर पाप एवं अधर्म नष्ट होकर धर्म की स्थापना होगी तथा उससे न्याय की उचित व्यवस्था बनेगी ।
३. मनुष्य को अपराध करने के लिए बाध्य करनेवाले षड्रिपु
सैद्धांतिक परिभाषा में वासना अर्थात मन में अनुचित इच्छा होना ही मनुष्य को दुष्कृत्य करने के लिए बाध्य करती है । इस इच्छा की पूर्ति के लिए व्यक्ति विभिन्न प्रकार के पाप करता है । अधर्म का नाश कर धार्मिकता स्थापित करना प्राचीन भारतीय दार्शनिकों का ध्येय था । अपराध करना ही अधर्म है; इसलिए न्याय के माध्यम से अपराधों का अस्तित्व नष्ट कर धर्म की स्थापना करनी चाहिए । उसके कारण हमारे प्राचीन ऋषियों ने न्याय की स्थापना को ही धर्म माना था । अतः अपराध का मूल कारण षड्रिपु हैं । मात्र इन ६ शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर पाप एवं अधर्म का नाश हो सकता है ।
काम शास्त्र के लेखक ऋषि वात्स्यायन ने कहा कि भौतिक सुख प्राप्त करने हेतु किया गया कृत्य पापों का (अपराधों का) मूल है । इस इच्छा की पूर्ति का विचार तथा प्रयास व्यक्ति में परस्पर विद्वेष एवं संघर्ष उत्पन्न करते हैं । मनुष्य की ये इच्छाएं (वासनाएं) क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं जलन, इन भावनाओं को जन्म देती हैं । ये षड्रिपु मनुष्य को पाप (अपराध) करने के लिए प्रवृत्त करते हैं । इसलिए वे मनुष्य के प्राकृतिक शत्रु (रिपु) हैं । प्राचीन लोगों के अनुसार इन ६ शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर धर्म की स्थापना करनी चाहिए । इसके द्वारा अहिंसा, सत्य, अस्तित्व, शौच एवं इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त होता है । संक्षेप में कहा जाए, तो यही धर्म है तथा दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो यही न्याय है ।
४. अहिंसा, सत्य, चोरी, पवित्रता एवं इंद्रियों का संयम
प्राचीन काल में प्रशासनिक व्यवस्था के साथ ही विधि एवं न्याय व्यवस्था का भी विकास हुआ । वैदिक संहिताओं में वरुण एवं सोम को शासन, कानून एवं न्याय के प्रमुख देवता कहा गया है । सार्वजनिक व्यवहार में राजा को वरुण का प्रतिनिधि माना जाता था । ‘सरकार के नियमों का उचित पालन तथा उससे लोगों को शीघ्र एवं सच्चा न्याय मिलना’ राजा का कर्तव्य है । कठोर दंड के भय से सामान्य लोग अपराधों से दूर रहते हैं, तथापि सरल, संपूर्ण तथा त्वरित न्याय तुरंत उपलब्ध हो जाता था ।
५. प्राचीन धर्मग्रंथ में बताए गए ८ प्रकार के दंड
प्राचीन ग्रंथों में वाग्दंड (क्षुब्ध होना), धिग्दंड (धिक्कार करना), अर्थदंड, उद्वेजन (क्लेश देना), अंग विच्छेदन (शरीर का कोई अंग तोडना), निर्वासन (वध), कारावास एवं मृत्युदंड, ये ८ दंड बताए गए हैं । इंग्लैंड, पश्चिमी यूरोप एवं संयुक्त राज्य में न्यायाधीश एवं अधिवक्ता २० वीं शताब्दी से भारतीय संस्कृति के न्याय शास्त्र से प्रेरणा एवं उसकी शिक्षा ले रहे हैं । इसके विपरीत भारतीय न्यायाधीश अथवा अधिवक्ता कहां से प्रेरणा लेते हैं ? वे भारतीय संस्कृति का न्याय शास्त्र नहीं सीखते । वे रोमन कानून तथा पाश्चात्य न्यायविदों के सिद्धांतों को तो जानते हैं; परंतु उन्हें भारतीय संस्कृति में कानून तथा न्याय शास्त्र के विकास के विषय में कुछ विशेष जानकारी नहीं है । इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शांतिस्वरूप धवन ने कहा, ‘ज्ञानी न्यायाधीश गंगाजी की भांति स्वर्ग से नीचे नहीं उतरते, अपितु वे समाज से ही उदित होते हैं तथा वे सामाजिक वातावरण से परिपक्व होते हैं । कोई जन्म से महान न्यायाधीश नहीं होता, अपितु उचित शिक्षा एवं महान कानूनी परंपरा से वे उत्पन्न होते हैं, जैसे कि प्राचीन भारत में मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, पराशर एवं याज्ञवल्क्य इत्यादि कानून के दिग्गज थे ।’
६. ब्रिटिश लेखकों से प्राचीन भारतीय न्याय प्रणाली का अनुचित चित्रण
कुछ ब्रिटिश लेखकों ने भारतीय न्याय शास्त्र तथा प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था के विषय में जो घोर अनुचित विधान किया है, उसे पाठकों को अस्वीकार कर देना चाहिए । मैं कुछ उदाहरण दूंगा । हेनरी मेन ने प्राचीन भारत की न्याय प्रणाली का वर्णन ‘क्रूरतापूर्ण मूर्खता का साधन’, ऐसा किया है । एक एंग्लो इंडियन विधिज्ञ ने भारत में अंग्रेजों का आगमन होने से पूर्व भारतीय लोगों की प्राचीन आदतों के विषय में टिप्पणी करते हुए कहा, ‘ये लोग (भारत की ब्रिटिश सरकार) विदेशी राज्यकर्ताओं द्वारा किसी अज्ञात भूमि पर स्थित अपरिचित वंश पर राज करने के लिए यूरोपीयन व्यवस्थाओं को जीवन की प्राचीन आदतों के अनुकूल बनाने हेतु तथा उन लोगों में, जो सदैव सरकार की मनमानी एवं अनियंत्रित अधिकार से संबंधित होते हैं तथा सुनिश्चित कानूनों को सर्वाेच्च बनाने हेतु किए प्रयोगों की प्रविष्टि है ।’ भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त सदस्य एलन ग्लेडहिल ने लिखा है, ‘ब्रिटिशों ने जब भारत की सत्ता हाथ में ली, तब भारत में कानूनी सिद्धांतों का अभाव था ।’
७. स्वतंत्र एवं परिपूर्ण प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था
प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप समझने हेतु हमें मूल ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए । उनके अध्ययन से पाठक की यह समझ में आएगा कि भारतीय न्याय शास्त्र कानून के नियमों पर आधारित था । राजा भी कानून के अधीन था । भारतीय राजनीतिक सिद्धांत एवं न्याय शास्त्र में मनमानी करने के लिए उसे अवसर नहीं था । राजा का शासनाधिकार कर्तव्यपालन के अधीन था । उसका उल्लंघन करने से उसका सिंहासन संकट में आ जाता था । न्यायाधीश स्वतंत्र थे तथा केवल कानून के अधीन थे । किसी भी प्राचीन देश की तुलना में प्राचीन भारत में न्यायपालिका की क्षमता, ज्ञान, प्रामाणिकता, निष्पक्षता तथा स्वतंत्रता के मापदंड अति उच्च थे तथा आज भी वे उन्हें लांघ नहीं पाए हैं ।
भारतीय न्याय व्यवस्था में मुख्य न्यायाधीशों के न्यायालय के साथ न्यायाधीशों का एक विशिष्ट पदानुक्रम था, जिसमें प्रत्येक उच्च न्यायालय को कनिष्ठ न्यायालय के निर्णय की समीक्षा का अधिकार था, जिससे उनके पास आनेवाले विवाद मूलरूप से प्राकृतिक न्याय के उन्हीं सिद्धांतों पर सुनिश्चित किए जाते थे; जो वर्तमान समय में आधुनिक राज व्यवस्था में न्यायिक प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं । प्रक्रिया एवं साक्ष्य के नियम आज की भांति ही थे ।
प्रमाण के लिए कठोर परीक्षा की अप्राकृतिक पद्धतियों को हतोत्साहित किया जाता था । आपराधिक प्रकरणों में आरोपी का अपराध कानूनन सिद्ध होता था । क्या प्राचीन भारत में कानून का राज्य था ? इसे हमें सीधे ग्रंथों से ही जान लेना चाहिए । महाभारत में कहा गया है, ‘प्रजा की रक्षा की शपथ लेकर भी प्रजा की रक्षा न करनेवाला राजा किसी पागल कुत्ते की भांति मारे जाने के योग्य ही है ।’ ऐसा राजा, जो कहता है कि वह आपकी रक्षा करेगा; परंतु वह आपकी रक्षा नहीं करता, उसे पागल कुत्ते की भांति गोलियां मार देनी चाहिए । जो राजा अपनी प्रजा की रक्षा नहीं करता; परंतु उसकी संपत्ति छीन लेता है, ऐसा राजा राजा है ही नहीं । उसके उपरांत ही धर्म की स्थापना होगी तथा उससे न्याय की उचित व्यवस्था होगी ।’
– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति