दैवी अस्तित्व की साक्षात अनुभूति !
जहां ६ मास दीप प्रज्वलित रहता है, वह है उत्तराखंड का केदारनाथ मंदिर !
१२ ज्योतिर्लिंगों में से एक ! यह मंदिर भारत के उत्तराखंड राज्य में स्थित केदारनाथ गांव में मंदाकिनी नदी के तट पर है । महाभारत युद्ध के उपरांत शिवजी पांडवों से क्षुब्ध थे । उनसे मिलना न हो; इसके लिए शिवजी ने बैल का रूप धारण किया था । उस बैल की पीठ का भाग यहां गिरा, इसलिए यहां का शिवलिंग बैल की पीठ के आकार का है । उसी का पूजन-अर्चन किया जाता है । एक समय यह मंदिर ४०० वर्षाें तक बर्फ में गडा हुआ था । इस मंदिर को एक पत्थर को काटकर उसमें में दूसरा पत्थर लगाकर (इंटरलॉकिंग सिस्टम) बनाया गया है । दीपावली के दूसरे दिन मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं तथा ६ मास तक मंदिर बंद रहता है; परंतु तब भी मंदिर के अंदर प्रज्वलित दीप जलता ही रहता है । उस काल में इस मंदिर के आसपास भी कोई नहीं आता; क्योंकि इस काल में भीषण बर्फबारी होती रहती है !
कहा जाता है कि केदारनाथ के दर्शन किए बिना बद्रीनाथ यात्रा सफल नहीं होती । कैलास पर्वत की भांति इसका भी महत्त्व है । वर्ष २०१३ में उत्तराखंड में आई विध्वंसक बाढ में केदारनाथ गांव पूर्णतः बह गया तथा मंदिर परिसर को भी बहुत क्षति पहुंची थी; परंतु केदारनाथ मंदिर को बिल्कुल भी क्षति नहीं पहुंची !
विश्व का एक महान आश्चर्य !
तिरुवनंतपुरम् का धनी पद्मनाथस्वामी मंदिर !
केरल के तिरुवनंतपुरम् में स्थित पद्मनाभ मंदिर भारत के सबसे धनवान मंदिर के रूप में पहचाना जाता है । श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर उसकी सुंदरता एवं भव्यता के लिए भी विख्यात है । भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर भारत के १०८ पवित्र विष्णु मंदिरों अथवा ‘दिव्य देशम्’ में से एक है । कहा जाता है कि त्रावणकोर के महान राजा मार्तंड वर्मा ने आज के इस मंदिर के नवीनीकरण का कार्य किया ।
वर्ष २०११ में यहां के ५ तहखानों से सोना, चांदी, हीरे, मोती, मूल्यवान रत्न जैसी प्रचुर संपत्ति मिली । उस समय मिली संपत्ति का मूल्य लगभग १ लाख १९ सहस्र करोड था । छठे तहखाने का द्वार कैसे खोला जाए, यह अभी तक किसी को ज्ञात नहीं है । जो उसे जानने का प्रयास करते हैं, वे बीमार पड जाते हैं अथवा उनकी मृत्यु हो जाती है; ऐसा देखने में आया है । इस द्वार पर अंकित नागों के २ शिल्प इस तहखाने की रक्षा करते हैं । ऐसा कहा जाता है कि नागपाश अथवा नागमंत्र जैसे मंत्र बोलकर यह द्वार बंद किया गया है, जिसे कोई सच्चा विष्णु-भक्त ही खोल सकता है !
मूर्ति पर पडनेवाली सौरकिरणों का शास्त्र !
प्राचीन काल में मंदिरों के शिखरों में सूक्ष्म छिद्र वायुमंडल के सौर्यमंडल के कार्यकारी भाव से बहनेवाली तेजोमय तरंगों के अनुरूप होते थे, जो उस संबंधित काल में काल के भान से भूमंडल की ओर आनेवाली सौर तरंगों से उस काल के अनुरूप स्वयं में समाकर मूर्ति में काल के अनुरूप पूरक मात्रा में कार्य करनेवाली तेजतरंगों को घनीभूत कर लेते थे; इसलिए समय की पूरक पद्धति से ही देवता भूमंडल में भक्तों के कल्याण हेतु कार्य कर पाते थे ।
– श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
सौर किरणों के अनुसार रचना
देवालय की वास्तु-निर्मिति में वेदांत एवं योगशास्त्र के अतिरिक्त भौतिक शास्त्र का भी विचार किया गया दिखाई देता है । कुछ देवालयों में उत्कृष्ट दिक्-बंधन (देवालय में स्थित मूर्ति पर किसी विशिष्ट दिन ही सूर्याेदय की प्रथम किरण पडे, इस पद्धति से वास्तु की रचना करना) किया हुआ दिखाई पडता है । कुछ मंदिरों के सामने छोटे-छोटे झरोखे हैं कि किसी भी ऋतु में सूर्य की प्रथम किरणें मूर्ति पर पडती हैं । पुणे के निकट यवत के निकट टीले पर ऐसा शिव मंदिर है ।
– श्री. संजय मुळ्ये, रत्नागिरी, महाराष्ट्र.
पूर्व-पश्चिम दिशा में मंदिर होने के कारण
सौर किरणें मूर्ति पर पडें; इसके लिए मंदिर सदैव पूर्व-पश्चिम दिशा में होते हैं; क्योंकि सूर्यप्रकाश में अधिक मात्रा में पवित्रक होते हैं । गोवा में अपराह्न समय में दर्पण की सहायता से सौर किरणों को मूर्ति पर छोडने की पद्धति है; इसलिए पूर्वी तट पर स्थित मंदिर पूर्वाभिमुख, जबकि पश्चिमी तट पर स्थित मंदिर पश्चिमाभिमुख होते हैं ।
– श्री. संजय मुळ्ये, रत्नागिरी, महाराष्ट्र.