अमेरिका में गत २ माह में भारतीय वंश के ७ विद्यार्थियों की मृत्यु हुई है । इसमें पर्ड्यू विश्वविद्यालय में पढनेवाले वरुण चिडा, नील आचार्य तथा समीर कामत के नाम हैं । वरुण चिडा की निर्घृण हत्या की गई, तो नील आचार्य की मृत्यु संशयास्पद स्थिति में हुई है । कहा जाता है, ‘समीर कामत ने आत्महत्या कर ली है । वर्ष २०१८ से अबतक अमेरिका में ४०३ भारतीय विद्यार्थियों की मृत्यु हो चुकी है । कहा गया कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक कारणों, पर्याप्त चिकित्सा देखभाल का अभाव तथा दुर्घटना से हुई । इनमें मुख्य सूत्र है भारतीय विद्यार्थियों पर होनेवाले नस्लवादी (वर्णद्वेषी) आक्रमण । कुछ दिन पूर्व वरुण राज पूचा की हत्या का ही उदाहरण देखें । वह व्यायामशाला में व्यायाम कर रहा था, तभी उस पर आक्रमण किया गया । उसकी हत्या करनेवाले ने कारण बताया, ‘मुझे वह विचित्र लगता था; इसलिए उसकी हत्या कर दी’। वास्तव में अमेरिका के लोगों की यह नस्लवादी (वर्णद्वेषी) मनोवृत्ति वहां के भारतीयों की जडों पर आघात कर रही है । गत २ वर्षाें में अमेरिका में रहनेवाले भारतीयों पर होनेवाले नस्लवादी (वर्णद्वेषी) आक्रमण ४० प्रतिशत बढ गए हैं । अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पढनेवाले अधिकांश विद्यार्थियों ने अपने ऊपर शारीरिक आक्रमण होने की संभावना व्यक्त की है । इससे इस समस्या की विभीषिका ध्यान में आती है ।
उच्चशिक्षा तथा अपनी उत्कृष्टता सिद्ध करने के लिए बडी संख्या में भारतीय विद्यार्थी अमेरिका जाने की प्रतीक्षा करते रहते हैं । इन घटनाओं से उनका ‘अमेरिकी स्वप्न’ (अमेरिकन ड्रीम) भंग हुआ है । ‘अमेरिकन ड्रीम’ की यह अवधारणा वर्ष १९३१ में जेम्स ट्रुसलो एडम्स ने अपने ‘एपिक ऑफ अमेरिका’ पुस्तक में लिखी थी । ‘जिस भूमि में रहने से प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अधिक समृद्ध और परिपूर्ण हो, ऐसा स्वप्न देखकर उसकी पूर्ति करना’ ही इस अवधारणा का सामान्य अर्थ है ! पहले यह अवधारणा केवल अमेरिकी लोगों तक ही सीमित थी । तत्पश्चात विश्व के विविध देशों के लोग उसकी ओर आकर्षित होने लगे । इसी स्वप्न को देखते हुए २० वीं शताब्दी से भारत के अनेक युवा अमेरिका गए; किंतु उनके हाथ क्या लगा ? अमेरिका में रहनेवाले सामान्य भारतीय की वार्षिक आय १ लाख अमेरिकन डॉलर (८ करोड ३२ लाख रुपए) है । अमेरिका के ६० प्रमुख प्रतिष्ठानोें के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) भारतीय हैं । अमेरिका की सर्वांग प्रगति में भारतीयों का योगदान बहुमूल्य है । वहां के भारतीयों को पैसा और प्रतिष्ठा तो मिल रही है; किंतु आत्मसम्मान का क्या ? अमेरिका के किसी भी क्षेत्र में कार्यरत उच्चपदस्थ व्यक्ति को एक बार तो नस्लवादी (वर्णद्वेषी) आक्रमण का सामना करना ही पडता है । भले ही यह आक्रमण शारीरिक न हो; किंतु शाब्दिक प्रताडना तो होती ही है । आत्मसम्मान पैरों तले रौंदा जानेवाला अमेरिकी स्वप्न देखने से क्या लाभ ?
संस्कृति विहीन अमेरिकी समाज !
यहां ‘भारत राष्ट्र समिति’ के नेता और तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की बेटी के. कविता के बताए एक प्रसंग का उल्लेख करना आवश्यक लगता है । के. कविता कंप्यूटर इंजीनियर (संगणक अभियंता) हैं । वे लंबे समय तक अमेरिका में रही हैं । कुछ समय के पश्चात वे अमेरिका से भारत वापस आईं । इस विषय में उनसे एक साक्षात्कार में पूछने पर वे बोलीं, ‘मैं इतने वर्ष अमेरिका में रही; किंतु वे मेरे नाम का भी कभी ठीक से उच्चारण नहीं कर पाए । ‘केविटा’ कुछ इस प्रकार वे बोलते थे; जो मुझे अखरता था । पति से इस विषय पर चर्चा करने पर उनका भी यही विचार हुआ कि हम भारत वापस आ जाएं ।’ के. कविता का अमेरिका से भारत वापस आने के अन्य १-२ कारणों में से यह एक प्रमुख कारण था । उन्होंने यह जानकारी विनोदी ढंग से दी; किंतु उसमें एक अर्थ छिपा हुआ है । भारत जैसी विविधता और उच्च स्तर की संस्कृति जैसे देश से जब कोई व्यक्ति अमेरिका जैसे देश में रहने का प्रयास करता है, तब उसके लिए वह कितना कठिन होता होगा, यह यहां ध्यान में आता है । ‘भले ही आप अमेरिका जाएं, घूम लें; किंतु वह देश रहने योग्य नहीं ।’ के. कविता ने अपने इंटरव्यू में स्पष्ट रूप से ऐसा कहा था । भारतीयों पर होनेवाले नस्लवादी (वर्णद्वेषी) आक्रमणों के विषय में देखने तथा पढने पर के. कविता के निश्चय बिल्कुल ही उचित दिखते हैं ।
अमेरिकी समाज स्वयं को प्रगत कहता है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथिमकता देता है और उससे भी बढकर स्वयं को मानवतावादी मानता है; किंतु ये उपाधियां कितनी खोखली एवं झूठी हैं, इसके कई उदाहरण सामने आ चुके हैं । अमेरिका में अश्वेतों (कृष्णवर्णियों) के विरुद्ध हो रहे अत्याचार और नस्लवादी (वर्णद्वेषी) आक्रमण सर्वविदित हैं । इसलिए वहां के गोरों को अश्वेत (कृष्णवर्ण) समाज तथा ‘सांवला’ (ब्राऊन) कहे जानेवाले भारतीयों की प्रगति अखरती है । श्वेत अमेरिकी समाज में ऐसा मत रहा है कि ‘भारतीयों के कारण हमें अपनी चाकरियां (नौकरियां) खोनी पडती हैं ।’
नस्लवादी (वर्णद्वेषी) मनोवृत्ति पर अमेरिका में भी बोला अथवा लिखा जाता है । इस विषय पर चर्चासत्र भी होते हैं; किंतु समाज पर उनका सकारात्मक परिणाम दिखाई नहीं देता । ‘हम सर्वश्रेष्ठ हैं’, इस अहंकार से प्रेरित यह मनोवृत्ति परिवर्तित करने के लिए वहां के नेताओं को बडे स्तर पर प्रयास करने होंगे !
‘भारतीय स्वप्न’ देखने का समय आ गया है !
नस्लवाद (वर्णद्वेष) अथवा अपमानजनक आचरण केवल अमेरिका के भारतीयों के साथ होता है, ऐसा नहीं है, अपितु पूरे विश्व के भारतीयों को इस समस्या का सामना करना पड रहा है । इतना ही नहीं ? ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक भी नस्लवादी (वर्णद्वेषी) यातना से अछूते नहीं रहे । सुनक ब्रिटिश बच्चों जैसा अंग्रेजी का उच्चारण करें, इसके लिए उनके अभिभाविकों ने उन्हें विशेष कक्षा में भरती किया था । संक्षेप में, ‘अच्छा’ ब्रिटिश होने के लिए सुनक को कष्ट उठाने पडे थे ! अपने तथा अपने बच्चों के कथित उज्जवल भविष्य के लिए विदेश जाने के इच्छुक लोगों को गंभीरता से इन सभी घटनाओं का अध्ययन करना आवश्यक है ।
‘अपने जीवन को कैसा आकार देना है?’ अथवा ‘मेरी उत्कृष्टता किसमें है?’, इसका निर्णय लेनेका अधिकार प्रत्येक भारतीय को है । इसलिए किसी को ‘अमेरिका जाकर मेरा भला होगा’, यदि ऐसा लगता हो, तो उसे कौन रोक सकता है ? ऐसा हो तो भी, ‘पैसे का महत्त्व; अथवा आत्मसम्मान का?’, ‘अपमान अथवा स्वाभिमान?’, इसका चयन भारतीयों को ही करना है । ‘भारत में अच्छा भविष्य नहीं है’, ऐसा कहने के दिन कभी के बीत चुके । आज अमेरिका की भीषण सामाजिक स्थिति को देखते हुए अमेरिका में रहनेवाले केवल भारतीयों का ही नहीं, अपितु वहां के अमेरिकी लोगों का भी ‘अमेरिकी स्वप्न’ भंग हो चुका है । इसलिए भारतीय लोग ‘अमेरिकी स्वप्न’ देखने के चक्कर में न पड ‘भारतीय स्वप्न’ देखकर स्वप्नपूर्ति का आनंद लें, जिसमें उनका हित है !
विदेश में जाकर नस्लवादी (वर्णद्वेषी) आक्रमण सहने की अपेक्षा भारत में रहकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में ही भारतीयों का भला है ! |