कलियुग की सर्वश्रेष्ठ नामजप साधना, नामजप की वाणियां एवं ध्वनि-प्रकाश विज्ञान

‘अप्रैल १९९७ में मुझे सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेव डॉ. जयंत आठवलेजी से संदेश मिला ‘नामजप की ४ वाणियों के विषय में अभ्यासवर्ग लीजिए ।’ तब ऐसा लगा कि नामजप की वैखरी, मध्यमा, पश्यंति एवं परा ये ४ प्रकार तो मुझे ज्ञात हैं; परंतु इसके अतिरिक्त मुझे अन्य कोई जानकारी नहीं है तथा इतनी जानकारी अभ्यासवर्ग लेने के लिए पर्याप्त नहीं है । इसलिए आरंभ में मैंने अभ्यासवर्ग लेना अस्वीकार कर दिया । उसके पश्चात गुरुदेवजी सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी से मुझे पुनः संदेश मिला, ‘आपको यह अभ्यासवर्ग लेना ही है ।’ अतः मैंने उनकी इस इच्छा को ही आज्ञा मानकर अभ्यासवर्ग लेने का निश्चिय किया ।

उस समय मैं एक जिले में एक चिकित्सालय में रोगियों को देखने के लिए बैठता था । मेरे ‘कंसल्टेशन’ कक्ष में प.पू. भक्तराज महाराजजी का छायाचित्र लगा था । वहां बैठकर मैंने उनके साथ संवाद किया । मैं शिकायत के स्वर में उनसे कहने लगा, ‘आपने तो नामजप की वाणियों के विषय में केवल ४ ही शब्द बताए हैं, तो मैं इतनी-सी जानकारी के आधार पर अभ्यासवर्ग कैसे ले पाऊंगा ?’ उस समय मुझे अपने डॉक्टर होने का बहुत अधिक अहंकार था । इसलिए नामजप की वाणियां तथा उनके महत्त्व को विज्ञान एवं चिकित्साशास्त्र के अनुसार सभी को समझाना संभव हुआ, तभी वह सभी की समझ में आएगा’, ऐसा मुझे लगा था ।

(सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी

१. वेदों की भांति किसी के द्वारा अपौरुषेय ज्ञान बताने की भांति ज्ञान प्राप्त होना

वेद अपौरुषेय हैं तथा किसी ने उन्हें लिखा नहीं है । ऋषियों ने उन्हें सुना तथा लिखा । इस कारण उन्हें ‘श्रुतियां’ कहते हैं । उस दिन मैंने वेदनारायण की अनुभूति ली । दोपहर १ बजे अंतिम रोगी तथा स्वागतकक्ष पर बैठनेवाली महिला घर गई । मैं द्वार बंद कर ‘कंसल्टेशन’ कक्ष में आंखें बंद कर चिंतन करते हुए बैठा था । उस समय मेरी बंद आंखों के सामने यह दृश्य दिखाई दिया कि दो काले बादल परस्पर विरुद्ध दिशा से आकर एक-दूसरे से टकरा गए हैं तथा उसके कारण बिजली की गडगडाहट सुनाई दे रही है । उस समय आंखों के सामने रुपहले रंग के अक्षर आ गए । उसमें लिखा था । ‘‘आपके सभी प्रश्नों के उत्तर इसमें हैं, आप ये लिख लीजिए ।’’ यह कुछ भिन्न हो रहा है, ऐसा लगा तथा मैं बही-पेन लेकर लिखने लगा । पहले तो अक्षर दिखाई दिए थे; परंतु ‘अब कोई (साक्षात वेदनारायण ही) बोल रहे हैं’, ऐसा प्रतीत हुआ । उन्होंने बताया कि जब किन्हीं २ वस्तुओं का (वस्तुओं, व्यक्तियों एवं पदार्थाें का यांचे) घर्षण होता है, तब वहां सगुण अथवा व्यक्त ऊर्जा उत्पन्न होती है । (सिद्धांत : जहां घर्षण, वहां ऊर्जा की निर्मिति (सुप्त ऊर्जा का व्यक्त होना) होता है । घर्षण न हो, तो ऊर्जा अव्यक्त रह जाती है ।)

२. बिजली का चमकना तथा बादलों की गडगडाहट का शास्त्र

वेदनारायण ने आगे बताया कि बादल जब एक-दूसरे से टकराते हैं, तब आरंभ में बिजली चमकती दिखाई देती है तथा उसके उपरांत बादलों की गडगडाहट सुनाई देती है । इसका कारण यह है कि प्रकाश की गति अधिक होने के कारण उसी क्षण बिजली चमकती दिखाई देती है; परंतु ध्वनि की गति उससे अल्प होने से गडगडाहट कुछ समय पश्चात सुनाई देती है । यह लिख लेने के पश्चात मैंने उनसे कहा, ‘‘अभी आप जो कुछ बता रहे हैं, वह तो हमें ८ वीं-९वीं कक्षा में सिखाया गया है ।’’ वे मुझसे कहने लगे, ‘‘तुम इतनी जल्दबाजी क्यों करते हो ? मैं तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर देनेवाला हूं ।’’

३. स्वरूप स्थित मनुष्य की प्रकाशभाषा, जबकि अशुद्ध चित्त देहबुद्धि स्थित मनुष्यों की नादभाषा होना

उसके उपरांत उन्होंने मुझसे प्रश्न पूछा, ‘‘मनुष्य की भाषा नादभाषा होती है अथवा प्रकाशभाषा ?’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘देवताओं की प्रकाशभाषा होती है, जबकि मनुष्य की नादभाषा होती है । ’’ उस पर वे कहने लगे कि लौकिक दृष्टि से भले ही यह उचित हो; परंतु सभी प्राणी यदि परमात्मा की अभिव्यक्ति हैं, तो सभी की भाषा, प्रकाशभाषा ही होनी चाहिए । अर्थात शास्त्र के बताए अनुसार मनुष्य की (जो माया में बद्ध अर्थात अशुद्ध चित्त से युक्त तथा देहबुद्धि में लिप्त होता है, वह) नादभाषा होती है । नाम के सहित शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध, साथ ही उसकी शक्ति संलग्न होती है । ‘माया में बद्ध मनुष्य’ केवल शब्द का भावार्थ समझ सकता है । अशुद्ध चित्त के कारण उसमें प्रकाशभाषा ग्रहण करने की तथा उसे समझने की क्षमता नहीं होती; इसलिए कलियुग में सामान्यतः मनुष्य की नादभाषा होती है, ऐसा कहा जाता है ।

साधना बढने पर व्यक्ति आगे की अनुभूति लेता है । आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत होने पर उन्नत किसी व्यक्ति के बिना बोले ही उसके मन के विचार समझ पाते हैं । वे विश्वमन में स्थित ईश्वरीय विचार निरंतर ग्रहण करते रहते हैं । उसके अनुसार वे साधकों तथा समाज का कालानुरूप दिशादर्शन करते रहते हैं । ऐसे शुद्धचित्त एवं स्वरूप स्थित उन्नत पुरुषों की भाषा अब नादभाषा के साथ प्रकाशभाषा भी होती है । ऐसे उन्नत पुरुषों में एक ही समय में मनुष्यत्व एवं देवत्व भी कार्यरत होता है । साधना तो एक प्रकार से मनुष्य के द्वारा उसकी नादभाषा की क्षमता को प्रकाशभाषा की क्षमता में रूपांतरित करते हुए स्वस्वरूप के साथ एकरूपता अनुभव करने की क्रिया है ।

४. धर्मपालन, धर्माचरण एवं साधना का मार्ग दिखानेवाले धर्ममार्तंडों के प्रति कृतज्ञता रखें !

अध्यात्म को विज्ञान के साथ जोडकर देखना हो, तो जैसे बादलों के एक-दूसरे से टकराने के उपरांत ध्वनि एवं प्रकाश उत्पन्न होता है, वैसे ही चाहे बातें करते समय हो अथवा नामजप करते समय हो; ध्वनि एवं प्रकाश ऊर्जा उत्पन्न होती है । क्या बोला जाता है तथा किस उद्देश्य से बोला जाता है, उसके अनुसार ध्वनि एवं प्रकाश ऊर्जा उत्पन्न होती है । व्यक्ति के व्यक्तित्व पर उनका परिणाम होता रहता है । इस ऊर्जा के द्वारा उस व्यक्ति का प्रभामंडल (औरा) बनता है । इस ऊर्जा के द्वारा वह अच्छी, अनिष्ट अथवा मिश्र शक्ति का स्रोत बन जाता है । इनके द्वारा एक तो वह समाज के लिए पूरक, संकटकारी अथवा पूरक-संकटकारी बनता है । जिनका प्रभामंडल नकारात्मक होता है, वे अप्रत्यक्ष रूप से समाज के लिए संकटकारी होते हैं; जिनका प्रभामंडल सकारात्मक होता है, वे पूरक होते हैं तथा दोनों के होने से मिश्र होते हैं; परंतु इसके कारण किसी को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । जिनका प्रभामंडल नकारात्मक है, उन्हें साधना कर इसमें परिवर्तन लाकर समाज के लिए पूरक बनना सहजता से संभव है । धर्ममार्तंडों ने धर्मपरंपराओं से यह सूक्ष्म विचार किया है तथा उन्होंने धर्मपालन, धर्माचरण एवं साधना के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को समष्टि के लिए पूरक बनने का अवसर एवं मार्ग उपलब्ध करा दिया है । इसके लिए उनके प्रति जितनी कृतज्ञता व्यक्त की जाए, अल्प ही है; इसे ध्यान में रखा जाए ।

५. अध्यात्मशास्त्र के अनुसार मनुष्य की देह तथा उनकी नामजप की वाणियां

आधुनिक विज्ञान भले ही इस बात से अनभिज्ञ हो; परंतु अध्यात्मशास्त्र ने मनुष्य की ४ देह बताई हैं । इन ४ देहों की वैखरी, मध्यमा, परा एवं पश्यंति, ये ४ वाणियां बढते क्रम में उच्च कोटि की बनती जाती है । तो प्रत्येक वाणी का महत्त्व क्या है ? किस वाणी में नामजप करने से किस प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न होती है ?, उनका स्तर क्या है ?, उसका प्रतिशत क्या है ? तथा साधना, देहशुद्धि अथवा ईश्वरप्राप्ति की दृष्टि से उनकी उपयुक्तता क्या है ?; ऐसी अनेक जानकारियां देकर उन्होंने उसकी सुंदर सारणी बनाने के लिए कहा ।

५ अ. स्थूलदेह

५ अ १. कार्य : स्थूलदेह अर्थात जिसे बाहर से सभी लोग एक-दूसरे को देख सकते हैं, वह देह ! स्थूलदेह तो शाश्वत स्वरूप, मन एवं बुद्धि के कार्य के प्रकटीकरण का माध्यम होती है ।

५ अ २. जप की वाणी : देह से होनेवाले नामजप को वैखरी वाणी का नामजप कहा जाता है ।

५ अ ३. घर्षण कैसा ? : स्थूलदेह की जिव्हा, तालू एवं होंठों के घर्षण से आप नामजप करते हैं, तब वह वैखरी वाणी होती है ।

५ अ ४. ऊर्जानिर्मिति : वैखरी वाणी के नामजप के कारण होनेवाली ऊर्जानिर्मिति अधिकतर स्थूल (ध्वनि), जबकि अत्यल्प सूक्ष्म (प्रकाश) स्तर की होती है ।

५ अ ५. ध्वनि एवं प्रकाश की ऊर्जा का स्तर : प्रकाश की तुलना में ध्वनिऊर्जा स्थूल होती है । इस वाणी के नामजप में ९८ प्रतिशत ध्वनि तथा २ प्रतिशत प्रकाश ऊर्जा की निर्मिति होती है ।

५ अ ६. इसे कौन सुन सकता है ? : ध्वनिऊर्जा अधिकाधिक होने से वह नामजप करनेवाले मनुष्य तथा उसके निकट के व्यक्तियों को सुनाई देती है । २ प्रतिशत प्रकाश ऊर्जा अत्यल्प होने से नामधारक का ईश्वर अथवा परमात्मा के साथ आंतरिक सान्निध्य नहीं बनता, उदा. जैसे किसी कक्षा में कोई छात्र १०० में से २ अंक प्राप्त करता है, तब शिक्षक जैसे ऐसे छात्रों की ओर अधिक ध्यान न देकर ३० अंक प्राप्त करनेवाले किसी छात्र को ३५ से ऊपर लाकर किस प्रकार उत्तीर्ण किया जा सकेगा ?

यह विचार करता है अथवा बुद्धिमान छात्र को अधिकाधिक अंक प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है । वैसे ही ईश्वर भी कोई जीव वैखरी में नामजप करने का प्रयास कर रहा है, इतना जान लेते हैं; परंतु उसकी लगन एवं प्रयास बढने तक वे उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं देते ।

५ आ. सूक्ष्मदेह

५ आ १. कार्य : सूक्ष्मदेह अर्थात मन ! मन स्थूलदेह को अंतर्बाह्य घेरे रहता है ।

१. मनुष्य एक-दूसरे के मन को प्रत्यक्ष देख नहीं सकते; परंतु वे उनके स्वयं के मन में क्या चल रहा है, यह अनुभव कर सकते हैं ।

२. किसी व्यक्ति के विचारों का प्रतिबिंब उसके आचरण से प्रकट होता है, प्रायः व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं आचरण उसके विचारों एवं संस्कारों का प्रतिनिधित्व करता है ।

३. संत अथवा आध्यात्मिक अधिकारी व्यक्ति आवश्यकता के अनुसार अन्य व्यक्ति के मन के विचारों को जान सकते हैं ।

४. भले ही प्रत्यक्ष रूप से दिखाना अथवा देखना संभव न हो; परंतु तब भी आधुनिक विज्ञान मन के अस्तित्व को स्वीकार करता है; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसका मन अनुभवजन्य होता है ।

विज्ञान की दृष्टि से मन का अनुभव व्यक्तिगत (सब्जेक्टिव) होता है तथा समष्टिगत अर्थ (ऑब्जेक्टिव) नहीं होता । आज के समय में विज्ञानवादियों का आग्रह समष्टि (ऑब्जेक्टिव) स्तर के अनुभव के लिए होता है, उसी को वे विज्ञान के रूप में मान्यता देते हैं । सभी व्यक्तियों का एक संयुक्त मन (विश्वमन) होता है, जिसके साथ वे सभी बंधे हुए होते हैं । व्यक्ति का मन स्वयं के अनुभवों एवं संस्कारों सहित विश्वमन से विचारों का आदान-प्रदान करता रहता है ।

५.  सूक्ष्मदेह अशुद्ध अवस्था में चित्त पर स्थित विभिन्न जन्मों के त्रिगुणात्मक संस्कारों के अनुरूप कार्यरत होता है, जबकि शुद्धावस्था में वह ईश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्यरत होता है । अशुद्ध अथवा शुद्ध कारणदेह की स्थिति के अनुसार मन पर प्रभाव बना रहता है ।

५ आ २. जप की वाणी : मन के द्वारा होनेवाले नामजप को ‘मध्यमा वाणी का नामजप’ कहते हैं । जब वह मन ही मन निरंतर होने लगता है, उस समय हम मन स्थिर होता जा रहा है, ऐसा अनुभव करते हैं । उस समय वह ‘मध्यमा’ वाणी होती है ।

५ आ ३. घर्षण कैसा ? : स्थूलदेह की भांति सूक्ष्मदेह भी होती है । सूक्ष्मदेह की सूक्ष्म जिव्हा, सूक्ष्म तालू एवं सूक्ष्म होठों के घर्षण से जब नामजप होता है, उस समय वह मध्यमा वाणी का नामजप होता है । आरंभ में मन ही मन नामजप करने का प्रयास करते समय मन के इस सूक्ष्म घर्षण की अनुभूति हो सकती है । जिनके पूर्वजन्म की साधना में अपनेआप मध्यमा का नामजप आरंभ होता है, उन्हें इस घर्षण की अनुभूति होते हुए भी उसका स्मरण रखना संभव नहीं होता ।

५ आ ४. ऊर्जानिर्मिति : मध्यमा वाणी के नामजप से अधिकतम स्थूल (ध्वनि), जबकि अधिक सूक्ष्म (प्रकाश) स्तर की ऊर्जा उत्पन्न होती है ।

५ आ ५. ध्वनि एवं प्रकाश ऊर्जा का स्तर : मध्यमा वाणी के नामजप में ७० प्रतिशत ध्वनि तथा ३० प्रतिशत प्रकाश ऊर्जा की निर्मिति होती है ।

५ आ ६. इसे कौन सुन सकता है ? : स्थूल ध्वनि न्यून होने के कारण वह अन्यों को सुनाई नहीं देती; परंतु अब भी ध्वनिऊर्जा अधिक होने से नामजप करनेवाले को वह मन ही मन सुनाई देता है । ईश्वर की दृष्टि से इस नामधारक का संज्ञान लिया जाता है । इसमें ३० प्रतिशत प्रकाश ऊर्जा उत्पन्न होने से साधक का अल्पाधिक स्तर पर ईश्वर के साथ बीच-बीच में आंतरिक सान्निध्य बन जाता है । ऐसे साधकों की ओर ईश्वर का ध्यान आकर्षित होता है । जैसे किसी विषय में ३० प्रतिशत अंक प्राप्त करनेवाले छात्र को उसके पश्चात ३५ तक लाकर उत्तीर्ण करने का प्रयास किया जाता है तथा उसके उपरांत शिक्षक उसकी क्षमता बढाने पर विचार करते हैं, वैसे ही ईश्वर भी कोई लगन से साधना करने लगा है, यह देखकर उस पर कृपा करना आरंभ करते हैं ।

– (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति (अगस्त २०२३)