Exclusive : श्रद्धायुक्त विधी-विधान अर्थात हिन्दू धर्म की महानता कथन करनेवाला विधी है ‘श्राद्ध’ (Shraddha)!

(Shraddha Pitrupaksha Tarpan Datta Purvaj Poorvaj)

पूर्वजों को मुक्त करने में दान, तप एवं यज्ञ असमर्थ हैं । परंतु इस पर आज अनेकों का विश्वास ही नहीं है । साथ ही, ‘वर्तमान युग की हिन्दू पीढी (Millennials/Generation Z) के मन में ऐसी धारणा उभरती है की, ‘श्राद्ध’ अर्थात ‘अवास्तविक कर्मकांड का आडंबर’ ! धर्मशिक्षा का अभाव, अध्यात्म में अनास्था एवं अज्ञान, पश्चिमी संस्कृति का दुष्प्रभाव, हिन्दू ‍विरोधकोंद्वारा द्वेषपूर्ण प्रचार इत्यादि का ही यह अनुचित परिणाम है । साथ ही, समाजकार्य को ही सर्वश्रेष्ठ बतानेवाले कहते हैं, ‘पूर्वजों के लिए श्राद्ध न कर, गरीबों को अन्न दें अथवा किसी अनाथालय की सहायता करें’ ! ऐसा करना यह कहने समान है कि, ‘किसी रोगी पर उपचार न करते हुए हम गरीबों को अन्नदान करेंगे अथवा पाठशालाओं की सहायता करेंगे ।’

भारतीय धर्म कहता है कि, जिस प्रकार मां-पिताजी एवं सगे-संबंधियाें की उनके जीवनकाल में हम कर्तव्यधर्म के दृष्टीकोण से सेवा करते हैं, उसी प्रकार मृत्यु पश्‍चात् भी उनके प्रति हमारा कर्तव्य हाेता है । इसे ही ‘पितृऋण’ कहते हैं, तथा उसी की पूर्ती हेतु श्राद्धकर्म का ‍विधी-विधान है। हमारे अभिभावकों की मृत्युपरांत की यात्रा क्लेशरहित हो, उन्हें सद्गति मिले, इस हेतु यह ‍विधी अत्यावश्यक ही है । यह न करने पर पितरों की अतृप्त आकांक्षाओं के फलस्वरूप, ऐसे पितर अनिष्ट शक्तियों के पाश में बंध जाते हैं । इस द्वारा अनिष्ट शक्तियां पितरों के परिजनों को अर्थात् हमें कष्ट देने की आशंका अधिक बन जाती है । श्राद्धद्‍वारा पितरों के कष्टों से मुक्त होकर उनके वंशजों का अर्थात अपना जीवन भी सुखमय बनता है और ‍विशेष फलप्राप्ति भी होती है, यह समझ ले !

१. ‘श्राद्ध’ शब्द के संदर्भ में जानकारी

हमारे पूर्वजों के लिए पूर्ण श्रद्धा से किए जानेवाला विधी अर्थात ‘श्राद्ध’ ! मृत्युलोक में रहते हुए पूर्वजों ने हमारे लिए जो कुछ किया, वह उन्हें लौटाना असंभव है । इस दृष्टीकोण स श्राद्ध के माध्यम से हम कुछ प्रयास तो अवश्य कर सकते हैं ।

२. श्राद्ध का उद्देश्य

अनेक लाेग साधना नहीं करते । आज के युग में तो इसका प्रमाण अधिक है । अर्थात उनकी लिंगदेह भी साधना‍विहीन हाेती है । अतः श्राद्धादि विधि कर, उन्हें बाह्य ऊर्जा के बल से ही आगे बढाना आवश्यक होता है । श्राद्धद्‍वारा जीवों की लिंगदेहों के वासनात्मक कोषों के आवरण को कम कर एवं मंंत्रशक्ति की ऊर्जा के बल पर उन्हें गति देना श्राद्ध का मुख्य उद्देश्य है । कुछ पितरों को उनके कुकर्मों के कारण भूतयोनि प्राप्त होती है । ऐसे पितरों को श्राद्धद्वारा उस योनिसे मुक्त करना संभव है ।

३. श्राद्ध की आवश्यकता

१. श्राद्ध यह धर्मपालन ही ! : धर्म ने बताया है, ‘देव, ऋषि, समाज एवं पितृ ऋण’ चुकाना आवश्यक है । पितरों का आदर, उनके नाम से दानधर्म एवं उनके लिए संतोषजनक कृत्य यह हमारा धर्मकर्तव्य ही है । श्राद्ध, धर्मपालन का ही एक भाग है ।

२. वंशशुद्धि होना संभ‍व ! : ‘गर्भधारण के पश्‍चात् उस शिशु का जन्म सुखसे होना चाहिए । गर्भ में जीव का प्रवेश, संवर्धन एवं सुलभ प्रसूति, क्या केवल औषधि से ‍संभव है ? उसके लिए विश्‍व की निर्मिति करनेवाली ‌ईशशक्ति की कृपा अत्यंत आवश्यक है । पितर वंशरक्षक होते हैं; अतः श्राद्धादि धर्म का पालन आवश्यक है । ऐसा न किये जानेपर, मातृदोष एवं पितृदोष की वृद्धि के साथ-साथ उस परिवार का विध्वंस भी अटल है, यह धर्म का विधान है । इसलिए शाश्‍वत कुलधर्म, श्राद्धादि धर्म का पालन करना चाहिए ।’

३. पाठश्राद्ध के दिन किया जानेवाला पाठ : श्राद्ध के दिन भगवद्गीता (Bhagawad Geeta) का ७ वां अध्याय पढना चाहिए । पूर्वजों को मुक्त करने में दान, तप एवं यज्ञ भी असमर्थ हैं । केवल गीता का ७ वां अध्याय मनुष्य को जरा-मृत्यु से मुक्त कराता है ।

४. मंत्रों का प्रभाव : श्राद्ध के मंत्रों में (Mantra) पूर्वजों के नाम, गोत्र आदि का उल्लेख करने के कारण ही समर्पित पदार्थ उनतक पहुंचते हैं, फिर चाहे वे संसार में कहीं भी और किसी भी योनि में क्याें न हों । श्राद्ध के अन्नादि पदार्थों से उन्हें समाधान प्राप्त होता है ।

५. जो अपने पूर्वजों को तृप्त नहीं करते, उनके बच्चे भी उन्हें तृप्त नहीं करते : परिवार में विकलांग अथवा माता-पिता को दुख पहुंचानेवाले बच्चों के जन्म का कारण भी पितरों की अतृप्ति है । श्राद्ध का एक विशेष लाभ यह है कि मृत्यु के पश्‍चात भी जीव का अस्तित्व होता है, इसका बोध रहता है ।

६. पितृकार्य का विशेष महत्त्व : ‘‘हिन्दुओं के ग्रंथ ‘स्मृतिचन्द्रिका’ में वर्णित एक श्लोकानुसार, श्राद्ध सदैव उचित समय पर करना चाहिए । पूर्वजों के पूजन से मनुष्य को दीर्घायु, संतान, यश, कीर्ति, बल, ऐश्‍वर्य एवं धन-धान्य की प्राप्ति होती है । देवताकार्य की अपेक्षा पितृकार्य का महत्त्व अधिक है । इसलिए, देवताओं की पूजा से पहले पूर्वजों की पूजा करें । सभी अनुष्ठानों में पूर्वजों की पूजा की जाती है ।” – ज्योतिषी ब.वि. तथा चिंतामणि देशपांडे (गुरुजी) – (धनुर्धारी, सितंबर २०१०)

७. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १, श्लोक ४२ कहता है – “पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।” अर्थात पिंडश्राद्धादी न करनेवालों के पितर नरक काे प्राप्त हाेते हैं । साथ ही, हमारी प्रगति रुक जाती है ।

८. सबसे कल्याणकारी कर्म : ‘सुमंतुऋषि कहते हैं, श्राद्ध से अधिक कल्याणकारी दूसरा कर्म नहीं । अत: विवेकी मनुष्य को श्राद्ध करना ही चाहिए ।

परम पूज्य क्षीरसागर महाराज

९. ‍वंशजों में प्रवेश कर सकते हैं पूर्वज : ‘किसी मृत व्यक्ति की श्राद्ध की इच्छा पूरी न होने पर ‍वह सगे-संबंधियों में प्रवेश कर बोलता भी है । इसका एक उदाहरण !
एक बार एक व्यक्ति की देह में एक शक्ति प्रवेश कर गई । वह व्यक्ति कूदने लगा । महाराष्ट्र ‍स्थित अहमदनगर के महान संत परम पूज्य क्षीरसागर महाराज ने उससे पूछा, ‘आप कौन हैं ?’ उसने उत्तर दिया, ‘मैं इसका पिता हूं ।’ महाराज ने पूछा, ‘आप यहां क्यों आएं ?’ उसने कहा, ‘यह मेरा श्राद्ध नहीं करता । मैं भूखा हूं ।’

१०. लेन-देन पूर्ण करना संभव : श्राद्धद्‍वाराहमारा लेन-देन पूर्ण होता है । उदाहरणस्‍वरूप, हम पर किसी का ऋण हो और हम उसे चुकाने से पहले ही ‍वह व्यक्ति परलोक सिधार जाए, तो ऋण चुकाने के लिए उसका श्राद्ध करें ।

११. श्राद्ध करने से इन कष्टों से छुटकारा संभव ! : पहले की अपेक्षा आजकल श्राद्ध करने का प्रमाण अल्प हो गया है । साथ ही, आध्यात्मिक साधना न करने के कारण भी, अधिकतर लोगों के पूर्वजों के लिंगदेह अतृप्त ही रह जाते हैं; इसलिए वे वंशजों को कष्टदायी बन जाते हैं । आगे दिए हुए कष्ट पूर्वजों के कारण होते हैं, यह शास्त्रों में वर्णित है – घर में निरंतर झगडा, एक-दूसरे से अनबन, नौकरी की प्राप्ति में बाधा, ‍व्यापार में आर्थिक नुकसान, घर में पैसा न टिकना, परिवार के एक अथवा अनेकों को गंभीर बीमारी, विवाह न होना, गर्भधारण न होना, गर्भपात होना, संतान विकलांग उत्पन्न होना एवं कुटुंब के किसी सदस्य को दुर्व्यसन लगना आदि ।

१२. श्राद्ध करने से पितरों को गति मिलती है, इसलिए यह प्रतिवर्ष करना आवश्यक है ।

व्यक्ति की मृत्युतिथि पर श्राद्ध करने पर, श्राद्ध-भोजन का सूक्ष्म अंश उसकी सूक्ष्म-देह के लिए वर्षभर चलता है । जबतक आशा-इच्छा रहती है, तब तक वह मृत व्यक्ति अपनी मृत्युतिथि पर अपने वंशजों से भोजन मिलने की आशा करता है । श्राद्ध करने से वह तृप्त (संतुष्ट) होता है तथा उसे आगे (उच्च लोकों में) जानेके लिए ऊर्जा भी मिलती है । पूर्वजों की एक भी वासना तीव्र रहने पर, श्राद्ध से मिली ऊर्जा उसे शांत करने में व्यय हो जाती है, जिससे उन्हें आगे जाने के लिए ऊर्जा नहीं मिलती । इसलिए, प्रतिवर्ष श्राद्ध करने पर, धीरे-धीरे उनकी वासना शांत होती है और आगे जाने के लिए ऊर्जा भी मिलती है । वैसे भी, शास्त्र के अनुसार इस विश्व में रहने तक, पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए प्रतिवर्ष श्राद्ध अवश्य करना चाहिए ।

संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ ‘श्राद्ध ’ भाग १ और २

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