प्रगतशील समाज एवं देश की प्रगति वास्तविक रूप से होने के लिए भारत में समान नागरिक संहिता होनी चाहिए !
१. भारतीय संविधान में समान नागरिक संहिता लागू करने से संबंधित प्रावधान
‘भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४४ (राज्य नीतियों के मार्गदर्शक तत्त्व) के अंतर्गत समान नागरिक संहिता अथवा ‘यूसीसी’ की ओर जाने के निर्देश हैं । (अब कुछ लोग इसे ‘सार्वत्रिक’ नागरिक संहिता कह रहे हैं ।) जहां धर्म अथवा श्रद्धा कुछ भी हो, तब भी सबके लिए एक समान कानून लागू होगा । उसमें लिखा है, ‘संपूर्ण भारत में राज्य नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता निश्चित करने का प्रयत्न करेगा । तथापि ‘किसी भी न्यायालय द्वारा मार्गदर्शक तत्त्व लागू नहीं किए जाएंगे’, ऐसा अनुच्छेद ४४ से पूर्व संविधान का अनुच्छेद ३७ स्पष्ट करता है । इससे स्पष्ट होता है कि हमारे संविधान ने यह मान्य किया है कि समान नागरिक संहिता किसी न किसी रूप में लागू की जाए । ऐसा होते हुए भी संविधान उसकी कार्यवाही अनिवार्य नहीं करता । इसलिए कोई भी ठोस निर्णय अथवा कार्यवाही न होकर उसपर दीर्घकाल चर्चा चलती रहती है । यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि, मार्गदर्शक तत्त्व संविधान की शोभायमान वस्तु नहीं है । वे केवल संविधान में हैं; क्योंकि संविधान बनाते समय उनकी कार्यवाही के लिए परिस्थिति अनुकूल नहीं थी । इसलिए मार्गदर्शक तत्त्व उचित समय पर लागू किए जाएंगे, ऐसी आशा थी ।
२. ऐतिहासिक दृष्टिकोण एवं पृष्ठभूमि
विविध विदेशी शक्तियों ने भारतीय उपखंड पर आक्रमण किए । उनके द्वारा नागरिक कानून की पारंपरिक रचना नष्ट की गई । अंग्रेजों की सत्ता आने के उपरांत उनके कानूनों द्वारा विविध समाजों के प्रचलित रीतिरिवाजों एवं परंपराओं में सुधार किए गए । समान नागरिक संहिता की चर्चा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है । स्वतंत्रता से पूर्व १८४० के ‘लेक्स लोकी ब्योरे’ने अपराध, प्रमाण एवं अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानूनों के संहितीकरण में एकरूपता का महत्त्व एवं आवश्यकता पर बल दिया; परंतु हिन्दू एवं मुसलमानों के व्यक्तिगत कानून ऐसी संहिता से दूर रखने की सिफारिश भी उसमें की गई । परिणामस्वरूप फौजदारी कानून संहिताबद्ध किए गए एवं वे संपूर्ण देश में सामान्य हो गए । ऐसा होनेपर भी विविध समुदायों के लिए विविध संहिता द्वारा नागरिक कानून शासित होते रहे; क्योंकि अंग्रेजों को समाज सुधार, समुदायों को एकत्रित करने एवं भारत की एकता बलवान बनाने में रुचि नहीं थी, अपितु सामाजिक संबंध दूषित करने, उन्हें संकुचित समुदाय में विभाजित करने एवं एकता दुर्बल करने में रुचि थी ।
संविधान का प्रारूप बनाते समय चापलूसी की दुर्बलता के कारण प्रमुख नेताओं ने समान नागरिक संहिता के लिए दबाव नहीं बनाया । परिणामस्वरूप समान नागरिक संहिता संविधान के अनुच्छेद ४४ के अंतर्गत राज्य नीति के मार्गदर्शक तत्त्वों के अंतर्गत रखी गई । यह मुख्यतः विधान सभा में बैठे हुए धर्मांध कट्टरतावादियों के प्रतिकार के कारण हुआ । स्वतंत्रता के पश्चात तर्करहित चापलूसी का यह प्रारंभ था । उनके व्यक्तिगत कानून में (‘पर्सनल लॉ’में) किसी भी परिवर्तन का विरोध करनेवाले लगभग सभी मुसलमान थे एवं जिनके कानूनों में सुधार किए गए, वे सब हिन्दू थे । उदाहरणार्थ ‘हिन्दू कोड बिल’ में तलाक को कानूनी मान्यता दी गई एवं बहुपत्नीत्व रोका गया तथा लडकियों को संपत्ति अधिकार दिया । इसके अतिरिक्त अन्य सुधारवादी कानून, जैसे ‘हिन्दू उत्तराधिकार कानून १९५६’, ‘हिन्दू विवाह कानून’, ‘अल्पसंख्यक एवं पालकत्व कानून’, ‘दत्तक एवं देखभाल कानून’, ‘विशेष विवाह कानून’ इत्यादि ।
३. समान नागरिक संहिता की आवश्यकता क्यों ?
भारतीय संविधान में अनुच्छेद ४४ के अंतर्गत व्यक्तिगत कानूनों से समान नागरिक कानून की ओर जाने का प्रावधान है । वह संविधान के मार्गदर्शक तत्त्वों का भाग है । न्यायपालिका ने शाहबानो प्रकरण, डेनियल लतिफी प्रकरण, सरला मुद़्गल प्रकरण आदि अनेक निर्णयों में समान नागरिक संहिता की ओर स्पष्ट रुझान दर्शाया है । यह कार्यपालिका है, जो कानून बनाने में विलंब कर रही है । कार्यपालिका के डगमगाने का कारण समझना भी कठिन नहीं है । कार्यपालिका में अधिकांशतः कांग्रेस की सरकारें थीं । इसलिए चापलूसी चलती ही रही ।
३ अ. देश की प्रगति में सहायक : समान नागरिक संहिता आधुनिक एवं प्रगतिशील राष्ट्र का प्रतीक है । वह कानून की दृष्टि से सब नागरिकों को समान अधिकार दिए जाएं, यह दर्शाता है । उसकी कार्यवाही दर्शाती है कि, देश जातीय एवं धार्मिक राजनीति से दूर चला गया है । समान नागरिक संहिता देश को आगे जाने एवं विकसित राष्ट्र बनाने में सहायता करेगी ।
३ आ. राष्ट्रीय एकात्मता के लिए आवश्यक ! : समान नागरिक संहिता धर्म के विविध वर्ग, प्रथा एवं पद्धतियों में एकात्मता लाएगी । समान नागरिक संहिता भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी नहीं होगी, इतनी एकात्मता उत्पन्न करने में सहायता करेगी । भारतियों में उनकी जाति, धर्म, प्रदेश अथवा जनजाति का विचार न करते हुए उनमें समन्वय लाने में सहायता करेगी ।
३ इ. मतों की राजनीति का अंत : समान नागरिक संहिता मतों एवं चापलूसी की राजनीति घटाने में सहायक होगी । समान नागरिक संहिता बनाने एवं उसकी कार्यवाही में निहित स्वार्थ रखनेवाले धर्मांध कट्टरतावादियों की सबसे बडी बाधा है । ये गुट उनके ‘पर्सनल लॉ’ के बदले में मतदान करने का वचन देते हैं । व्यक्तिगत कानून सार्वभौम सरकार की समांतर प्रणाली के समान होते हैं । वे न्याय प्रदान करते हैं, वर्तन का नियमन करते हैं एवं सार्वभौम कानूनों से संघर्ष होनेपर संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देते हैं ।
३ ई. महिलाओं की स्थिति सुधारने में सहायता : समान नागरिक संहिता संविधान के ‘सार्वभौम’ कानूनों सहित व्यक्तिगत कानूनों का संघर्ष दूर करेगी । समान नागरिक संहिता की कार्यवाही को मुख्य विरोध मुसलमान मुल्लाओं का (इस्लाम के धार्मिक नेता) है, जो मुसलमान महिलाओं पर पुराने कानून लादने का समर्थन कर रहे हैं । समान नागरिक संहिता महिलाओं को अधिक अधिकार देगी एवं उन्हें भेदभाव करनेवाले स्त्रीद्वेषी व्यक्तिगत कानूनों से मुक्त करेगी । इसलिए एक समान नागरिक संहिता भारत में महिला, विशेषतः अल्पसंख्यक समाज की महिलाओं की स्थिति सुधारने में सहायता करेगी ।
३ उ. धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहन : कानून के सामने सर्व भारतियों के साथ समान व्यवहार होने के लिए समान नागरिक संहिता एकमात्र मार्ग है । देश के सर्व नागरिकों के साथ समान कानूनी व्यवहार होना चाहिए । विवाह, तलाक, संपत्ति अधिकार, परिवार, भूमि का स्वामित्व आदि से संबंधित कानून सर्व भारतियों के लिए समान एवं एकसमान होने चाहिए । धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में कानून धर्म-विशिष्ट नहीं अपितु देश-विशिष्ट होने चाहिए, यह महत्त्वपूर्ण है । समान नागरिक संहिता धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहन देगी, तथापि समान नागरिक संहिता लोगों को धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता सीमित नहीं करेगी; परंतु प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान कानून के अंतर्गत व्यवहार किया जाएगा एवं भारत के सभी नागरिकों को धर्म की परवाह न करते हुए समान कानूनों को पालन करना पडेगा ।
‘बहुसंख्यकवाद’ के समान ‘अल्पसंख्यकवाद’ भी धोखादायक ‘ट्रेंड’ है । अल्पसंख्यक लोगों को जिन कानून के अंतर्गत शासन करना है, वह चुनने की अनुमति नहीं दी जाए । विशिष्ट व्यक्तिगत कानूनों के अनेक प्रावधान सार्वत्रिक रूप से स्वीकृत मानवीय अधिकारों का उल्लंघन करते हैं । समान नागरिक संहिता धर्मनिरपेक्षता का विरोध नहीं करती; क्योंकि अनुच्छेद २५ एवं २६ धार्मिक स्वतंत्रता का विश्वास देते हैं एवं अनुच्छेद २९ एवं ३० अल्पसंख्यकों को विशेष विशेषाधिकारों का विश्वास देते हैं ।
३ ऊ. मुसलमान महिलाओं की सुरक्षा : ‘मुस्लिम व्यक्तिगत कानून’ एवं उसके प्रावधानों के कारण बडी संख्या में मुसलमान महिलाएं अत्यंत कष्टप्रद जीवन जी रही हैं । उनका वैवाहिक जीवन व्यवहारिक दृष्टि से केवल उनके पति की दया पर टिका हुआ है । समान नागरिक संहिता न होने के कारण शाहबानो जैसी स्त्रियां उनके अभियोग सहित प्रतिष्ठा पर भी विजय प्राप्त करती हैं अथवा खो देती हैं । न्याय के लिए लडते समय गरीब महिलाओं को जीवनभर कष्ट नहीं सहना पडेगा, इसकी सावधानी समान नागरिक संहिता बरतेगी ।
३ ए. देश पुनः विभाजित होने से बचेगा ! : विद्यालय, महाविद्यालय एवं काम के स्थान पर बुरखा पहनने की ‘अधिकार की लडाई’ हम देखते हैं । इसलिए पढाई कासंपूर्ण वातावरण बिगड जाता है । जिन विद्यालयों में समानता एवं समानता की भावना के लिए गणवेश एवं ‘एकरूपता’ आवश्यक है, वहां कट्टरतावादी उनका धार्मिक परिचय संपूर्ण शरीर पर पहनना चाहते हैं । यह प्रवृत्ति अत्यंत धोखादायक है; क्योंकि ऐसी सर्व मांगों का अंत नहीं है । अनुच्छेद १५ एवं अनुच्छेद २५ से ३० अंतर्गत धर्म पालने की स्वतंत्रता के नाम पर कर्नाटक की मुसलमान लडकियां कक्षा में बुरखा पहनने की स्वतंत्रता मांग रही हैं । व्यक्तिगत कानून की मांगे ऐसी मांगों को जन्म देती हैं । इसलिए अंत में देश का विभाजन होता है ।
४. बहुधार्मिक गोवा में पहले से ही समान नागरिक संहिता
एकसमान संहिताकरण एवं विविध व्यक्तिगत कानूनों का एकत्रीकरण अधिक सुसंगत कानूनी व्यवस्था निर्माण करेगा । इसलिए वर्तमान भ्रम घटेगा एवं न्यायपालिका द्वारा कानूनों का अधिक सुलभ तथा कार्यक्षम प्रशासन बनेगा । गोवा में पहले से ही समान नागरिक संहिता है एवं वह गोवा के बहुधार्मिक समाज में अच्छा कार्य कर रही है ।
५. देश की प्रगति के लिए कालानुसार कानून बनाना आवश्यक !
निष्कर्ष यह है कि, परिवर्तन ही प्रकृति का एक अटल नियम है । यह सिद्धांत विकासशील मानवीय संस्कृतियों को भी लागू होता है । कोई भी कानून किसी भी समाज अथवा समुदाय के लिए दीर्घ काल तक आदर्श नहीं हो सकता । समय एवं स्थल में तालमेल बैठाने के लिए उसमें परिवर्तन करना आवश्यक है । इसलिए अनेक शतकों पूर्व बनाए गए व्यक्तिगत कानून चालू रखने का कोई भी आग्रह धर्मांधता के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है । विशेषत: उसने जब अनुयायियों का जीवन दयनीय बनाया हो ।
गतिमान समाज कानून बनाता है एवं तोडता है । संसार के अनेक देशों ने उनका संविधान अनेक बार परिवर्तित किया है । नागरिक कानून की तो बात ही छोडिए । दो वर्गाें के लिए दो प्रकार के नियम नहीं होने चाहिए । ऐसी व्यवस्था के कारण समाज में अनेक उलझनें उत्पन्न होती हैं । अनेक लोगों ने केवल एक ही कारण से इस्लाम का स्वीकार किया है । उनकी कानूनी विवाहित पहली पत्नी को छोडकर दूसरा विवाह करना उसके पीछे का कारण था । तीन कानूनी पत्नियां रखने के लिए अनेकों ने इस्लाम धर्म स्वीकारा है । अधिकतर उन्नत एवं प्रगतिशील समाजों में समान नागरिक संहिता है एवं भारत में भी वह होनी चाहिए ।’ (२८.६.२०२३)
– मेजर सरस त्रिपाठी (निवृत्त), गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश