पारिवारिक हिंसा को रोकने के लिए संवाद की आवश्यकता!

समाज विविध समस्याओं से ग्रस्त है । अर्थात परिवार से समाज बनने तक आज प्रत्येक घर में कुछ न कुछ समस्याएं हैं ही ! इन समस्याओं का संज्ञान लेनेवाला और उसका समाधान बतानेवाला, यह लेख हम पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं ।

१. पारिवारिक हिंसा के विविध प्रकार

‘पारिवारिक हिंसा’, जैसे अत्यंत ज्वलंत और संवेदनशील विषय पर अभी भी समाज में खुलकर नहीं बोला जाता । ‘समाज क्या कहेगा ?’, इस एक विचार के कारण अधिकांश लोग त्रास सहन करते रहते हैं । केवल स्त्रियां ही नहीं, अपितु पुरुष और छोटे बच्चे भी इसकी बलि चढते हैं । पारिवारिक हिंसा केवल शारीरिक यंत्रणा देना ही नहीं, अपितु उसमें शाब्दिक, लैंगिक, मानसिक, आर्थिक आदि का भी समावेश होता है । विशेषकर, बच्चा न होने से स्त्री को ताने मारने, धमकाने तथा सताने जैसे प्रकरण होते हैं । साथ ही मन के विरुद्ध गर्भ धारण करने के लिए बाध्य करना, उसके प्राण संकट में डालना, उसके परिजनों से दहेज मांगना जैसे अनेक प्रकरण पारिवारिक हिंसा में आते हैं ।

२. ससुराल और मायका, दोनों ओर से घुटन होने से पीडिता द्वारा चरम निर्णय लिया जाना

हिंसा करनेवाले व्यक्ति कट्टर अपराधी नहीं होते । पीडिता को सताना किसी चौक अथवा हाट में नहीं, अपितु उसके अपने घर में और निकट के व्यक्तियों द्वारा ही होता है । ये प्रकरण छोटे-मोटे अनबनों से आरंभ होते हैं । स्त्रियां अधिकतर पीछे हट जाती हैं; किंतु कोई भी बात सहनशीलता के परे गई, तो वे पीछे नहीं हटतीं ।

विगत कुछ दिनों में मुझे आए दूरभाष और उन पर हुए संभाषण से कुछ बातें स्पष्ट हुईं । इसमें, पारिवारिक विवाद होने से अधिकांश स्त्रियां झुककर समझौता कर लेती हैं । इतने पर भी कभी-कभी ससुरालवाले उसे अपमानित करते हैं । ‘तुम्हारी ही कुछ त्रुटि रही होगी, तुम क्रोधी हो, तुम्हें निभाना चाहिए’, ये बातें उस पर थोपी जाती हैं । किंतु सतानेवालों को कोई कुछ नहीं कहता । ऐसे में पीडिता के मायके जाने पर वहां भी उसे कुछ बातें सुनाई जाती हैं । कहीं कहीं उसे मायके से भी सकारात्मक प्रतिसाद नहीं मिलता । ‘इतना व्यय करके घरवालों ने अपना विवाह कराया, दहेज दिया, अलंकार दिए और अब उन्हें कुछ बताया, तो वे सह नहीं पाएंगे’, इस डर से स्त्रियां भी कुछ विशेष नहीं बता पातीं । ऐसे में उनकी मानसिक व्यथा और बढती है तथा निरंतर ऐसा होने से धीरे-धीरे पति-पत्नी में अपनापन भी घटने लगता है । तदनंतर विवाद चरम सीमा पर पहुंच जाता है, जिससे उनके शारीरिक संबंध में भी तनाव निर्मित होता है । कभी-कभी पीडिता पर अत्याचार भी होते हैं, इसका प्रतिकार करने के कारण हिंसा बढती है । परिणामस्वरूप स्त्री का घर छोडकर जाना, विवाह-विच्छेद अथवा आत्महत्या करना, इनमें से कुछ भी हो सकता है ।

अधिवक्त्या सुनीता खंडाळे

३. स्त्रियों जैसे पुरुष भी पारिवारिक हिंसा की बलि चढते हैं

पारिवारिक हिंसा से त्रस्त केवल स्त्रियां ही नहीं, अपितु अनेक पुरुष भी हैं । कभी-कभी पुरुष और उनके परिजनों को झूठे आरोपों में फंसाया जाता है । कोई यह स्वीकार नहीं करता कि हमारी पितृसत्तात्मक पद्धति में पुरुषों के साथ भी अन्याय और अत्याचार होते हैं ! इसलिए पुरुष इस विषय में कहीं भी परिवाद नहीं कर पाते । किसी ने इस विषय में आपत्ति की, तो उसे कहा जाता है, ‘आप पुरुष होकर महिलाओं जैसे क्यों करते हैं ? अपना विषय आप स्वयं संभालें ! उससे मनस्ताप, व्यसन और झंझटों के कारण घर की परिस्थिति बिगडती ही जाती है, जिसके कारण हिंसा भी बढने लगती है ।

४. पारिवारिक हिंसा पर नियंत्रण रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही घरेलु विवाद मिटाने का प्रयास करना आवश्यक !

यातायात प्रतिबंध के पूर्व ऐसा माना जाता था कि पति-पत्नी में ठीक से संवाद नहीं होता । अपने कार्य में व्यस्त रहने के कारण वे दोनों एक दूसरे को पर्याप्त समय नहीं दे पाते, जिससे नासमझी (गलतफहमी)बढती है ।  इसी से विवाद होते हैं । वास्तव में जब यातायात प्रतिबंध के कारण दोनों को घर में रहना पडा, तब चित्र अलग ही था । अनेक घरों में एक दूसरे का सान्निध्य भी अवांछनीय हो गया था । पारिवारिक हिंसा की घटनाएं बहुत बढ गई थीं । इस विषय ने बहुत गंभीर स्वरूप ले लिया था ।

इस पृष्ठभूमि पर स्त्रियों और बालकों को संरक्षण मिले; इसके लिए विविध स्तरों पर कार्य हो रहे हैं । पारिवारिक हिंसा के समाचार पढके सहज ही हम चिढ जाते हैं और ‘इसे रोकने के लिए हम क्या कर सकते हैं’, इस पर विचार करते हैं । मेरे विचार से, पारिवारिक हिंसा बढने से रोकने के लिए हम सभी को अपने अपने स्तर पर प्रयास करना अपेक्षित है । पारिवारिक विवाद का विषय होने से प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर का विवाद स्वयं मिटाने का प्रयास करना आवश्यक है ।

अनेक बार पारिवारिक प्रकरण होने से हम उसमें हस्तक्षेप नहीं करते और पीडिता भी डर के कारण परिजनों को कुछ नहीं बताती । ऐसे समय पुलिस में परिवाद लिखाने अथवा सामाजिक संस्थाओं को सूचित करने से पीडिता को सहायता हो सकती है ।

५. जीवन में सुख, शांति और संतोष बनाए रखने के लिए संयम और समझ बनाए रखें !

पारिवारिक हिंसा जैसे अत्यंत कोमल और भावनात्मक विषय पर हमें सभी से बात करनी चाहिए । स्त्री हो अथवा पुरुष, प्रत्येक को अपने दैनिक जीवन में आनेवाली समस्याओं पर निकटतम व्यक्तियों से संवाद करना चाहिए । इससे अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है । विचारपूर्वक और सामंजस्य से किया भाष्य लाभदायक होता है ।

निश्चित ही इससे आपस के विवाद मिटेंगे । परस्पर अच्छा संवाद अन्यों का भी जीवन सुंदर बना सकेगा । इससे आपका संबंध विकसित होने में सहायता होगी । छोटी-छोटी बातों से संवाद आरंभ हो सकता है । उसके लिए बडे प्रसंगों की आवश्यकता नहीं । हमें आवश्यकता और अपेक्षा का अंतर (भेद) समझना चाहिए ।

केवल आवश्यकताओं को ही विचार में लेकर उन्हें पूरी करने के प्रयास करने पर वे सहज पूरी हो सकेंगी । संयम और समझ से अपने जीवन में सुख, शांति और संतोष बनाए रखने में हम यशस्वी हो सकते हैं । अंत में, परिवार के आनंद के बिना कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं है, यही सच है !’

– अधिवक्ता सुनीता खंडाळे (महिला और बाल विषय की अध्ययनकर्त्री)

साधना की अपरिहार्यता !

जीवन में प्रत्येक व्यक्ति को समस्याएं होती हैं । उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक हो, तथा परस्पर सहयोग की भावना हो, तो उससे भी मार्ग निकाल सकते हैं । यह साध्य करने के लिए व्यक्ति में विवेक एवं सद्बुद्धि होना आवश्यक है । अपना मनोबल बनाए रखने के लिए एक दूसरे को समझने के लिए ‘साधना करना’ ही एकमेव उपाय एवं समाधान है । ईश्वर से श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करने और नामजप करने से मन की सकारात्मक शक्ति बढती है तथा विवेकबुद्धि भी जागृत होती है । परिवार में कठिन परिस्थिति का सामना करने और परिवार-व्यवस्था बनाए रखने के लिए साधना करना अपरिहार्य है ! – संपादक