सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने ‘साधना के आरंभिक काल में विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से कैसे तैयार किया ?’, इस विषय में श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी द्वारा चुने क्षण मोती !

‘७.१२.२०२२ अर्थात दत्त जयंती के दिन सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी की एक आध्यात्मिक उत्तराधिकारिणी श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में रामनाथी, गोवा के सनातन के आश्रम में भावसमारोह संपन्न हुआ । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी, उनकी दूसरी आध्यात्मिक उत्तराधिकारिणी श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी, श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के परिजन तथा कुछ साधकों की उपस्थिति में यह भावसमारोह संपन्न हुआ । इस भावसमारोह में श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) गाडगीळजी द्वारा व्यक्त मनोगत यहां देखेंगे ।

मैंने (श्रीचित्शक्ति [श्रीमती] अंजली गाडगीळजी) जब साधना आरंभ की, उस समय मुझे परात्पर गुरुदेवजी का प्रत्यक्ष सान्निध्य मिला । ‘उस समय उन्होंने मुझे कैसे तैयार किया ?’, उसके कुछ चुनिंदा प्रसंग यहां बताती हूं ।

१. ‘दीपावली के समय घर जाने से साधना का एक-एक क्षण व्यर्थ जाता है’, परात्पर गुरुदेवजी ने इसका भान कराया

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले

१ अ. ‘दीपावली की अवधि में घर पर सेवा करने के लिए श्रीमती गाडगीळजी को चलित संगणक (लैपटॉप) न दें’, ऐसा परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने बताया : आरंभ में मुझे माया का बहुत आकर्षण था । आश्रम में पूर्णकालीन साधना आरंभ करने के उपरांत दीपावली के समय मैं ससुराल एवं मायके जाती थी । मैं वहां १ माह रहती थी । उस समय मुझे लगता था, ‘दीपावली में घर जाकर उनके लिए समय देना मेरा कर्तव्य है; इसलिए मुझे जाना ही चाहिए ।’ तब घर पर खाली समय में सेवा करना संभव हो; इसलिए मैं चलित संगणक (लैपटॉप) लेकर जाती थी । एक वर्ष दीपावली पर घर जाते समय मैंने उत्तरदायी साधकों को मुझे चलित संगणक देने के लिए कहा । गुरुदेवजी को यह पता चलने पर उन्होंने एक साधक को संदेश दिया, ‘‘श्रीमती गाडगीळ को इस वर्ष घर पर सेवा के लिए चलित संगणक न दें; क्योंकि उनकी सेवा की फलोत्पत्ति अल्प है । आश्रम की अन्य समष्टि सेवा के लिए उस चलित संगणक का अधिक अच्छे ढंग से उपयोग किया जा सकता है ।’’

श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ

१ आ. परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने श्रीमती गाडगीळजी में निहित माया के आकर्षण एवं ईश्वरप्राप्ति की उत्कंठा का औसत निकालकर उसका उन्हें भान करवाया : दूसरे दिन जब मैं एक विषय का सूक्ष्म परीक्षण बताने के लिए गुरुदेवजी के कक्ष में गई, तब उन्होंने कहा कि ‘‘इस वर्ष मैं चलित संगणक घर नहीं ले जा सकती ।’’ उस समय गुरुदेवजी ने मुझे एक चिट्ठी पर मेरा परीक्षण लिखकर दिया । उसमें मुझमें माया का कितना आकर्षण है ?, ‘मुझमें ईश्वरप्राप्ति की उत्कंठा कितनी है’, इस प्रकार उन्होंने मुझे एक सारणी ही बनाकर दी । उसमें मेरे पति श्री. मुकुल गाडगीळ (वर्तमान में सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी) एवं श्री. संदीप आळशी (वर्तमान में पू. संदीप आळशीजी) में विद्यमान उक्त घटकों की मात्रा लिखी थी । गुरुदेवजी कहने लगे, ‘‘देखिए आपमें ईश्वरप्राप्ति की उत्कंठा कितनी अल्प है तथा माया का आकर्षण कितना है ! संदीप में ईश्वरप्राप्ति की कितनी तीव्र लगन है न ?’’ मुझे लगा जैसे विद्यालयीन जीवन में परीक्षा के उपरांत परिणाम आते हैं, वैसे ही भगवान ने मेरी साधना का परिणाम दिया है !

१ इ. साधना के लिए उपलब्ध समय माया में स्थित बातों पर व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए, इसका भान होने के उपरांत श्रीमती गाडगीळ को बताया, ‘आप घर जा सकती हैं’ : ‘जब हम माया में जाते हैं, उस समय साधना का एक-एक क्षण व्यर्थ जाता है’, मुझे इस प्रसंग से इसका भान हुआ । दूसरे दिन मैंने गुरुदेवजी के पास जाकर उन्हें बताया, ‘‘वहां जाकर मेरी साधना नहीं होती; इसलिए इस वर्ष मैं दीपावली के लिए घर नहीं जाऊंगी ।’’ उस समय उन्होंने कहा, ‘‘अब आपने सुनिश्चित किया है, तो आप जा सकती हैं ।’’ ‘माया का आकर्षण क्षीण करने के लिए प्रयास करने चाहिए’, इससे मैंने यह सीखा; इसलिए उस वर्ष उन्होंने मुझे जाने दिया । उस समय गुरुदेवजी ने परीक्षण का जो कागज लिखकर मुझे दिया था, उसे मैंने अभी तक अपने पास संभालकर रखा है ।

२. छोटी बच्ची (सायली) के लिए घर से भोजन का डिब्बा लाने के स्थान पर आश्रम में भोजन करने के लिए कहा

मेरी बेटी सायली जब छोटी थी, तब हम फोंडा स्थित अपने घर में रहते थे । उस समय मैं सायली के लिए घर से डिब्बा तैयार कर लाती थी; क्योंकि उस समय मेरा यह विचार रहता था, ‘उसे अच्छी रोटी-सब्जी मिलनी चाहिए ।’ तब गुरुदेवजी ने एक साधक से पूछा, ‘‘सायली के लिए भोजन का डिब्बा कहां से आता है ?’’ मैंने उन्हें बताया, ‘‘उसके लिए घर से डिब्बा आता है ।’’ गुरुदेवजी ने मुझे बताया, ‘‘आश्रम में साधकों के लिए रसोई बनाई जाती है, वही भोजन सायली खा सकती है; क्योंकि हमें उसे सभी के साथ घुल-मिलकर रहने के संस्कार देने हैं ।’’

३. विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से आसक्ति क्षीण करने के विभिन्न स्तर सिखाए

३ अ. लडकी के लिए फ्रॉक लेने का विचार आने पर अन्य साधक के द्वारा उसी प्रकार का फ्रॉक उपहार के रूप में देना । उस समय भान हुआ, ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी मन का प्रत्येक विचार जानकर उसे पूर्ण करते हैं’ : मैंने एक बार एक छोटी लडकी का एक सुंदर फ्रॉक देखा, तो मेरे मन में विचार आया, ‘सायली के लिए भी वैसा ही फ्रॉक लेना चाहिए ।’ सेवा की व्यस्तता के कारण मैं वह भूल गई । दूसरे दिन एक साधक मेरे पास आकर कहने लगा, ‘‘मुझे सायली को एक ‘फ्रॉक’ देना है ।’’ मैंने जब वह फ्रॉक देखा, तब मेरे ध्यान में आया कि मुझे पहले जो फ्रॉक अच्छा लगा था, वह वैसा ही था । तब ध्यान में आया कि गुरुदेवजी मेरे मन का प्रत्येक विचार जानते हैं । उसके उपरांत मुझे तुरंत यह भान हुआ कि मेरे मन में माया के प्रति आसक्ति है, जो भगवान को ऐसे कुछ माध्यम से पूर्ण करनी पडती है; इसका मुझे खेद हुआ ।

३ आ. आसक्ति अल्प करने के लिए साधक द्वारा भेंट किया गया वस्त्र अस्वीकार करना; परंतु ‘उसे स्वीकार करना चाहिए था’, परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने इसका भान कराया : अगले वर्ष एक साधक ने मेरे तथा सायली के लिए कुछ वस्त्र लाए थे, उस समय मेरे ध्यान में आया कि अब वस्त्रों के प्रति मुझे आसक्ति नहीं रखनी चाहिए । उसके कारण मैंने उन्हें कहा, ‘मैं ये वस्त्र नहीं ले सकती ।’ इस प्रसंग के संदर्भ में गुरुदेवजी को बताने पर वे कहने लगे, ‘‘वह साधक इतने प्रेम से वस्त्र लेकर आया था, तो लेने चाहिए
थे ।’’ इस प्रसंग के उपरांत मैंने यह सीखा कि जब हमारी साधना बढती है, तब गुरुदेवजी अगले स्तर का सिखाते हैं । वस्त्रों के प्रति आसक्ति अल्प भी हुई, तब भी ‘वस्त्र लेकर उसमें फंसना नहीं है’, उस समय यह मेरे लिए अगले स्तर की सीख थी ।

४. ईश्वर के सर्वज्ञ होने से लडकी को माया के संस्कार न देकर ‘उसकी आध्यात्मिक मां’ बनने के लिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने बताया

मेरी लडकी जब छोटी थी, तभी हम रामनाथी आश्रम में रहने के लिए आए । हम पूर्णकालीन आश्रम में ही रहते थे; इसलिए सायली ने व्यावहारिक आचरण भी सीखे; इसलिए मैंने एक बार गुरुदेवजी से पूछा, ‘क्या मैं उसे १५ दिन में एक बार कहीं बाहर लेकर जाऊं ?’ तथा ‘क्या मैं उसे कभी-कभी समुद्र तट पर ले जाकर भेलपुरी जैसे भिन्न-भिन्न पदार्थ खिलाऊं ?’ उस समय गुरुदेवजी ने मुझे पूछा, ‘‘आप उसे माया का विश्व क्यों दिखाती हैं ? ईश्वर तो सर्वज्ञ हैं । वे माया तथा व्यावहारिक जीवन का आचरण भी जानते हैं । सायली आश्रम में रहकर भी आवश्यक सबकुछ सीख लेगी । अब आप उसकी ‘आध्यात्मिक मां’ बनिए ।’’ ‘एक मां’ के रूप में वह मेरा पुनर्जन्म था । उसके उपरांत मैंने सायली का भरण-पोषण आध्यात्मिक स्तर पर रहकर करना सीखा ।

५. परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने मुझमें अहंभाव होने का भान दिलाकर श्री. मुकुल गाडगीळजी की भांति चेहरे पर चैतन्य आने के लिए रसोईघर में सेवा करने के लिए कहा

एक बार एक विषय का परीक्षण बताने के लिए मैं गुरुदेवजी के पास गई थी । उस समय उन्होंने मुझे दर्पण के सामने खडे रहने के लिए कहा । मैं दर्पण के सामने खडी रही; परंतु ‘अब क्या करना है ?’, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था । गुरुदेवजी को इस विषय में बताने पर वे कहने लगे, ‘‘आप दर्पण में स्वयं को देखिए ।’’ मैंने उनसे पूछा, ‘मुझे क्या देखना है ?’, तब वे कहने लगे, ‘‘आप अपने पति का स्मरण कीजिए । उनका चेहरा आंखों के सामने लाइए । पति के चेहरे का स्मरण कर क्या लगता है, यह बताइए ।’’ तब मेरे ध्यान में आया कि श्री. गाडगीळजी के चेहरे पर चैतन्य है । मेरे यह बताने पर गुरुदेवजी कहने लगे, ‘‘आपमें अहंभाव है; इसलिए आपके चेहरे पर चैतन्य अल्प है । इसलिए आप रसोईघर में सेवा कीजिए, उसके पश्चात आपका चेहरा भी श्री. गाडगीळजी की भांति दिखने लगेगा ।’’ (क्रमश:)

– श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळ (७.१२.२०२२)