सर्वाेच्च न्यायालय के ५ न्यायाधीशों का संवैधानिक निर्णय
नई देहली – केंद्रशासन द्वारा वर्ष २०१९ में आर्थिक दृष्टि से दुर्बल घटकों को सर्वसाधारण प्रवर्ग में १० प्रतिशत आरक्षण देने का लिया गया निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ने स्थायी रखा । इस निर्णय को सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी । इस पर ५ न्यायाधीशों की बेंच के सामने हुई सुनवाई के उपरांत ७ नवंबर को निर्णय सुनाया गया । इनमें ३ न्यायाधीशों ने आरक्षण के पक्ष में एवं दो ने विरोध में मत प्रस्तुत किया । न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी, न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला ने आरक्षण के पक्ष में एवं मुख्य न्यायाधीश उदय ललित तथा न्यायमूर्ति रवींद्र भट्ट ने विरोध में मत प्रस्तुत किया है । केंद्रशासन ने १०३ वें संविधान संशोधन के अंतर्गत जनवरी २०१९ में शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में आर्थिक दृष्टि से दुर्बल घटकों के लिए आरक्षण लागू किया था । तमिलनाडू के सत्ताधारी द्रविड मुन्नेत्र कषगम (द्रविड प्रगति संघ) पार्टी के साथ ३० से अधिक याचिकाकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट कर इसे चुनौती दी थी । इस प्रकरण पर संविधान ने २७ सितंबर को परिणाम सुरक्षित रखा था ।
EWS Reservation Verdict: EWS आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई मुहर, 10 फीसदी आरक्षण रहेगा बरकरारhttps://t.co/8RFPJM9coC
— रिपब्लिक भारत (@Republic_Bharat) November 7, 2022
१. इन याचिकाओं में संविधान की धारा १५ तथा १६ के सुधारों को चुनौती देते हुए कहा गया था, ‘आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के बाहर है । सरकार ने आवश्यक जानकारी एकत्रित न कर आरक्षण का कानून पारित किया । सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण ५० प्रतिशत तक मर्यादित रखने का निर्णय दिया था । इस शर्त का भी उल्लंघन हुआ है ।’
२. इस पर वाद-विवाद करते समय केंद्र सरकार ने न्यायालय में कहा था कि कुल आरक्षण की ५० प्रतिशत मर्यादा रखना संविधान की शर्त नहीं, अपितु वह केवल सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है । तमिलनाडू में ६८ प्रतिशत आरक्षण है । इसे उच्च न्यायालय ने मान्यता दी । सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे स्थगित (सस्पेंड) नहीं किया है । आरक्षण का कानून बनाने से पूर्व संविधान की धारा १५ एवं १६ में आवश्यक सुधार किए गए थे । आर्थिक दुर्बल घटकों को समानता का स्तर देने हेतु ही यह व्यवस्था आवश्यक है । सरकार ने आरक्षण की ५० प्रतिशत मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया है । वर्ष १९९२ में सर्वाेच्च न्यायालय ने ही ‘५० प्रतिशत की अपेक्षा अधिक आरक्षण न देने’ का निर्णय दिया था, जिससे शेष ५० प्रतिशत स्थान सामान्य वर्ग के लोगों के लिए छोडे जा सकें । यह आरक्षण केवल ५० प्रतिशत में आनेवाले सामान्य वर्ग के लोगों के लिए है । सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने हेतु आरक्षण का पर्याय उपलब्ध कराया गया है । निर्धनता हटाने की दृष्टि से आरक्षण नहीं दिया गया था ।
न्यायाधीशों ने क्या कहा ?
१. न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी : संसद के निर्णय को सकारात्मकता से देखा जाना चाहिए । संविधान ने समानता का अधिकार दिया है । इस निर्णय को उस दृष्टि से देखें । १०३ वां संविधान सुधार उचित है । स्वतंत्रताप्राप्ति को ७५ वर्ष पूर्ण होते समय हमें समाज का हित ध्यान में लेकर अपनी आरक्षण पद्धति का पुन: नए ढंग से विचार करना चाहिए ।
२. न्यायमूर्ति पारदीवाला : अमर्यादित कालावधि तक आरक्षण चालू नहीं रखना चाहिए । यदि ऐसा किया, तो उसका उपयोग स्वार्थ से प्रेरित होकर किया जाता है ।
३. न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी : आर्थिक दृष्टि से दुर्बल घटकों को आरक्षण देना मूलभूत अधिकार का उल्लंघन नहीं है ।
४. न्यायमूर्ति रवींद्र भट्ट : सभी वर्गाें को आर्थिक आधार पर आरक्षण देना चाहिए । सरकार के निर्णय में अनुसूचित जाति तथा जनजाति सम्मिलित नहीं हैं । मैं इस आरक्षण के पक्ष में नहीं ।
आरक्षण का लाभ किसे होगा ?
५ एकड से अल्प भूमि, ९०० वर्ग फूट से छोटे घर तथा ८ लाख रुपए से अल्प वार्षिक आयवालों को इस आरक्षण का लाभ मिलेगा ।