#Diwali : नरकचतुर्दशी

आश्विन कृष्ण चतुर्दशी तथा विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी नरक चतुर्दशीके नामसे जानते हैं । दीपावलीके दिनोंमें अभ्यंगस्नान करनेसे व्यक्तिको अन्य दिनोंकी तुलनामें ६ प्रतिशत सात्त्विकताका अधिक लाभ मिलता है ।

१. नरकचतुर्दशीका महत्त्व एवं अभ्यंगस्नानकी अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी

शक संवत अनुसार आश्विन कृष्ण चतुर्दशी तथा विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी नरक चतुर्दशीके नामसे जानते हैं । इस तिथिके नामका इतिहास इस प्रकार है –

‘पूर्वकालमें प्राग्ज्योतिषपुरमें भौमासुर नामक एक बलशाली असुर राज्य करता था । उसका एक अन्य नाम भी था – नरकासुर । यह दुष्ट दैत्य देवताओं और पुरुषोंके साथ-साथ स्त्रीयोंको भी अत्यंत कष्ट देने लगा । जीतकर लाई हुई सोलह सहस्र राज्यकन्याओंको उसने बंदी बनाकर उनसे विवाह करनेका निश्चय किया । सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई । यह समाचार मिलते ही भगवान श्रीकृष्णने सत्यभामासहित उस असुरपर आक्रमण किया । नरकासुरका अंत कर सर्व राजकन्याओंको मुक्त किया । वह दिन था शक संवत अनुसार आश्विन कृष्ण चतुर्दशी अर्थात विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीका । तबसे यह दिन नरकचतुर्दशीके नामसे मनाते हैं ।’

मरते समय नरकासुरने भगवान श्रीकृष्णसे वर मांगा, कि ‘आजके दिन मंगलस्नान करनेवाला नरककी यातनाओंसे बच जाए ।’ तदनुसार भगवान श्रीकृष्णने उसे वर दिया । इसलिए इस दिन सूर्योदयसे पूर्व अभ्यंगस्नान करनेकी प्रथा है । भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुरको दिए गए वरके अनुसार इस दिन सूर्योदयसे पूर्व जो अभ्यंगस्नान करता है, उसे नरकयातना नहीं भुगतनी पडती ।

२. दीपावलीकी कालावधिमें उबटन लगानेका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

दीपावलीके दिनोंमें अभ्यंगस्नान करनेसे व्यक्तिको अन्य दिनोंकी तुलनामें ६ प्रतिशत सात्त्विकताका अधिक लाभ मिलता है । सुगंधित तेल एवं उबटन लगाकर शरीरका मर्दन कर अभ्यंगस्नान करनेके कारण व्यक्ति में सात्त्विकता एवं तेज बढता है ।

दीपावलीकी कालावधि उबटनके उपयोग हेतु अधिक पोषक है । उबटनका उपयोग करनेसे पूर्व उसमें सुगंधित तेल मिलाया जाता है । दीपावलीकी कालावधिमें ब्रह्मांडमें ब्रह्मांडसे तेज, आप एवं वायु युक्त चैतन्यप्रवाहका पृथ्वीपर आगमन अधिक मात्रामें होता है । इसलिए वातावरणमें देवताओंके तत्त्वकी मात्रा भी अधिक होती है । इस कालावधिमें देहपर उबटन लगाकर उसके घटकोंद्वारा देहकी चैतन्य ग्रहण करनेकी संवेदनशीलता बढाई जाती है । इसलिए देवताओंके तत्त्वके चैतन्यप्रवाह व्यक्तिके देहमें संक्रमित होता है । जिससे व्यक्तिको अधिकाधिक मात्रामें चैतन्यकी प्राप्ती होती है ।

२ अ. उबटनमें सुगंधित तेल मिलानेका कारण

सुगंधित तेलमें वायुमंडलमें प्रवाहित ईश्वरकी गंधानुगामी मारक एवं तारक तरंगें आकृष्ट करनेकी क्षमता अधिक होती है । ये तरंगें चैतन्यमय एवं आपमय होती हैं । साथही सुगंधित तेलमें वायुमंडलमें संचार करनेवाली अधोगामी कष्टदायक आपमय तरंगोंका प्रतिकार करनेकी क्षमता भी अधिक होती है । इसलिए उबटनमें सुगंधित तेल मिलाकर उससे देहका मर्दन किया जाता है ।

२ आ. तेलमें उबटन मिलाकर उससे देहको मर्दन करनेका शास्त्रीय कारण

मर्दनद्वारा देहमें ईश्वरीय तत्त्व आकृष्ट होता है और तेलमें विद्यमान ऊर्जातरंगोंके कारण कष्टदायक तरंगोंपर रोक लगती है ।

२ इ. ब्राह्ममुहूर्तपर मर्दन करनेका महत्त्व

ब्राह्ममुहूर्तके कालमें ईश्वरीय तरंगें अधिक मात्रामें कार्यरत रहती हैं । तथा ईश्वरीय तेजात्मक चैतन्यतरंगोंका पृथ्वीकी कक्षामें प्रवेश अधिक मात्रामें होता है । यह ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण हो तथा कष्टदायक आपमय तरंगोंका व्यापर प्रभाव न पडे, इसलिए ब्राह्ममुहूर्तके कालमें सुगंधित तेलसे शरीरको मर्दन करते हैं ।

२ ई. स्वयंही स्वयंको उबटन लगानेकी पद्धति एवं उसके परिणाम

उबटन रजोगुणी एवं तेजतत्त्वसे संबंधित है । यहां शरीरके विभिन्न स्थानोंपर उबटन लगानेकी पद्धति उस स्थानकी रिक्तियोंमें विद्यमान कष्टदायक वायुकी गतिको ध्यानमें रखते हुए बताई गई है । शरीरपर दक्षिणाव अर्थात घडीके कांटोंकी दिशामें उबटन लगाना चाहिए । ध्यान रहे कि, हाथोंकी उंगलियोंके अग्रभागका शरीरको स्पर्श हो तथा कुछ दबाव भी पडे ।

१. भालप्रदेश अर्थात मस्तक

तर्जनी, मध्यमा एवं अनामिका इन उंगलियोंसे बाइं ओरसे दाइं ओर उबटन लगाएं । पुनः इसी प्रकारसे ही उबटन लगाएं । दाइं ओरसे बाइं ओर विपरीत दिशामें उंगलियां न फेरें । तर्जनी, मध्यमा एवं अनामिका, इन तीन उंगलियोंसे भालप्रदेशपर अपनी बाइं ओरसे दाइं ओर भस्मसमान उबटन लगाएं । पुनः इसी प्रकारसे ही उबटन लगाएं । उबटन लगाने हेतु दाइं ओरसे बाइं ओर विपरीत दिशामें उंगलियां न फेरें । उलटी दिशामें उंगलियां फेरनेसे कष्टदायक स्पंदनोंकी निर्मिति होती है । भालप्रदेशकी रिक्तिमें एकत्रित हुइं कष्टदायक स्पंदनोंकी गति बाइं ओरसे दाइं ओर होती है । उसी दिशामें उबटन लगानेसे ये कष्टदायक स्पंदन कार्यरत होते हैं और उबटनद्वारा उनका विघटन होता है ।

२. भालप्रदेशके दोनों ओर भौंहोंके बाहरी सिरोंके पास

इस स्थानपर उंगलियोंके अग्रभागसे बाईं ओरसे दाइं ओर उबटन लगाते समय नीचेसे ऊपरकी ओर उंगलियां घुमाएं और दाइं ओरसे बाइं ओर लगाते समय ऊपरसे नीचेकी ओर उंगलियां घुमाएं । इस प्रकार उबटन लगाते समय उंगलियोंसे मलते हुए लगाएं । भौंहोंके बाहरी सिरोंके पास उंगलियोंके अग्रभाग रख उसी जगह बाइं ओरसे दाइं ओर तथा दाइं ओरसे बाइं ओर उंगलियां घुमाएं । इस प्रकार उबटन लगाते समय उंगलियोंसे मलते हुए लगाएं ।

इस स्थानपर कष्टदायक तरंगें सुप्तावस्थामें विद्यमान होती हैं । इन तरंगोंका दोनों ओर वहन आरंभ होता है । उबटन लगानेकी क्रियाद्वारा होनेवाले घर्षणसे इन तरंगोंको नष्ट किया जाता है।

३. पलके

नाकसे कानकी ओर हाथ घुमाते हुए पलकोंपर उबटन लगाएं ।

४. नाक

दाएं हाथके अंगूठे एवं तर्जनीसे नाकके दोनों ओर ऊपरसे नीचेतक उबटन लगाएं और उबटन सूंघें । उबटनद्वारा तेजसे संबंधित सुगंध प्रक्षेपित होती है । उबटनको सूंघनेकी क्रियाद्वारा यह सुगंध फेफडोंकी वायुकोषिकाओंमें प्रवेश करती है । इससे वहांपर बना काला आवरण नष्ट होनेमें सहायता मिलती है ।

५. मुखका ऊपरी भाग मुखके चारों ओर

ठोडीके गड्ढेसे अपनी बाईं ओरसे दाइं ओर, दक्षिणावर्त अर्थात घडीके कांटोंकी दिशामें मुखपर गोल हाथ फेरें । नाक के निचेसे अपनी दाइं ओर ठोडीके गड्ढेतक लगाएं । उपरांत ठोडीके गड्ढेसे उपर अपनी बाइं ओर जाकर मुखके चारों ओर गोल पूरा कर उबटन लगाएं ।

६. गाल

दोनों गालोंके मध्यसे आरंभ कर उंगलियां आंखें, कान व उपरांत नीचेकी ओर वर्तुलाकार घुमाते हुए दक्षिणावर्त अर्थात घडीके कांटोंकी दिशामें उंगलियोंके अठाभागोंसे गालोंपर उबटन लगाएं ।

गालोंके भीतर विद्यमान रिक्तिके बिंदुमें अनेक उत्सर्जनयोग्य अर्थात त्याज्य वायु घनीभूत रहते हैं । अभी बताए अनुसार उबटन लगानेसे गालोंके भीतरकी रिक्तिमें घनीभूत कष्टदायक स्पंदन कार्यरत होते हैं और उसी स्थानपर उनका विघटन होनेमें सहायता मिलती है ।

७. कर्णपालि कर्णपालियां

दोनों कर्णपालियोंपर अंगूठे एवं तर्जनीसे उबटन लगाएं ।

८. दोनों कान

दोनों हाथोंसे दोनों कानोंको पकडकर पीछेसे नीचेसे ऊपरकी ओर अंगूठे फेरें फेरते हुए उबटन लगाएं ।

९. गर्दन/ग्रीवा

गर्दन के पीछे मध्यभागमें उंगलियां रखकर दोनों ओरसे सामने विशुद्धचक्रतक गलेके नीचले भाग तक उंगलियां फेरते हुए उबटन लगाएं ।

१०. छाती एवं पेटका मध्यभाग

दाइं हथेलीसे छातीकी मध्यरेखापर नीचे नाभिकी ओर उबटन लगाएं । ऐसा करनेसे शरीरमें विद्यमान कुंडलिनीके चक्र जागृत होते हैं । तदुपरांत दोनों हाथोंकी उंगलियां छातीकी मध्यरेषापर आएं, इस प्रकार हथेलियां रखकर ऊपरसे नीचेकी ओर एकही समय दोनों हाथ फेरकर उबटन लगाएं । नीचेसे ऊपरकी ओर एकही समय दोनों हाथोंको घुमाएं ।

११. बगलसे कमरतक

बगलसे कमरतक उबटन लगाते समय शरीरके एक ओर अंगूठा एवं दूसरी ओर अन्य चार उंगलियां रखकर ऊपरसे नीचेतक हाथ फेरें । बगलसे कमरतक उबटन लगाते समय काखके अंदरकी अंगूठा ओर अंगूठा एवं काखके बाहरकी ओर अन्य चार उंगलियां रखकर ऊपरसे नीचेतक हाथ फेरें ।

१२. पैर एवं हाथ हाथ एवं पैर

पैरोंको हाथोंकी उंगालियोंसे ऊपरसे नीचेकी ओर उबटन लगाएं । उसीप्रकार हाथोंको भी ऊपरसे नीचेकी ओर उबटन लगाएं ।

१३. पांव एवं पैरोंकी संधि टखने

पांव एवं पैरोंकी संधिपर अंगूठे एवं तर्जनीसे गोल कडे जैसे पकडकर रगडें ।

१४. सिरके मध्यभागमें

सिरपर तेल लगाकर, दक्षिणावत्र्त अर्थात घडीके कांटोंकी दिशामें हथेली घुमाएं । सिरके मध्यभागमें तेल लगाकर, दायें हाथकी उंगलियां दक्षिणावर्त अर्थात घडीके की सुइयोंकी कांटोंकी दिशामें घुमाएं ।

३. अभ्यंगस्नानकी अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी

अ. पीढेके चारों ओर रंगोली बनाते हैं ।
आ. पीढेपर बैठकर आचमन किया जाता है ।
इ. प्राणायाम किया जाता है ।
ई. प्राणायामके उपरांत सर्व देवता एवं माता, पिताका स्मरण कर देशकाल उच्चारण किया जाता है ।
उ. तैलाभ्यंगस्नानके लिए संकल्प किया जाता है।
ऊ. संकल्पके उपरांत घरकी वयोवृद्ध स्त्री द्वारा पीढेपर बैठे व्यक्तिको सर्वप्रथम कुमकुमका तिलक लगाया जाता है ।
ए. उसके शरीरपर ऊपरी भागसे आरंभ कर पैरोंतक सुगंधित तेल लगाया जाता है ।
ऐ. सुगंधित तेल एवं उबटनका लेप बनाकर, तेलके समानही पूरे शरीरपर लगाया जाता है ।
ओ. इसके उपरांत आरती उतारी जाती है ।
औ. स्नानके समय, पहले दो लोटेभर गुनगुना पानी शरीरपर डाला जाता है ।
अं. उसके उपरांत स्नानकर्ता मंत्रोच्चारण करते हुए, अपने शरीरके चारों ओर अपामार्ग अर्थात चिचडेका पौधा परिक्रमाके मार्ग अनुसार तीन बार घुमाता है । उस समय पापनाश करनेके लिए अपामार्गसे अर्थात चिचडेसे प्रार्थना करते हैं ।

सीतालोष्ठसमायुक्त सकण्टकदलान्वित ।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाण: पुन: पुन: ।। – धर्मसिंधु

इसका अर्थ है, जोती हुई भूमिकी मिट्टी, कांटे तथा पत्तोंसे युक्त, हे अपामार्ग, आप मेरे पाप दूर कीजिए । जिनके लिए श्लोकपाठ करना संभव न हो, वे इसके अर्थको समझकर प्रार्थना करें । प्रार्थना कर अपामार्गको देहके चारों ओर घुमानेसे नरकका भय नहीं रहता ।

४. नरक चतुर्दशीके दिन देहपर तेलमिश्रित उबटन लगाकर अभ्यंगस्नान करनेके परिणाम

१. भावसहित उबटन लगाए जानेसे, लगवानेवालेकी देहमें भावके वलयकी निर्मिति होती है ।

२. तेलमिश्रित उबटन लगानेके कारण तेजतत्त्वस्वरूप शक्तिका प्रवाह व्यक्तिकी ओर आकृष्ट होता है
२ अ. देहमें इस शक्तिके वलयकी निर्मिति होती है ।
२ आ. शक्तिके इस वलयद्वारा व्यक्तिकी देहमें शक्तिके प्रवाह एवं शक्तिके कण फैलते हैं ।

३. मांत्रिक अर्थात पातालकी बलवान अनिष्ट शक्तियोंद्वारा व्यक्तिके देहमें निर्मित काली शक्तिका विघटन होता है और
३ अ. व्यक्तिके देहपर बना काला आवरण दूर होता है ।

४. स्नान आरंभ कर दो लोटेभर गुनगुना जल देहपर लेनेके उपरांत अपामार्गके पौधेसे देहके चारों ओर मंडल बनानेपर देहके चारों ओर सुरक्षाकवचक निर्मित होता है ।

५. स्नान करतेसमय देहमें ईश्वरीयतत्त्वका प्रवाह आकृष्ट होता है ।
५ अ. देहमें उसका वलय निर्मित होता है ।

६. ईश्वरसे चैतन्यका प्रवाह स्नानके जलमें आकृष्ट होता है और
६ अ. जलमें इस चैतन्यके वलयकी निर्मिति होती है ।
६ आ. इस वलयद्वारा आपतत्त्वस्वरूप चैतन्यका प्रवाह व्यक्तिके देहकी ओर प्रक्षेपित होता है ।
६ इ. व्यक्तिके देहमें इस चैतन्यका वलय निर्मित होता है ।
६ ई. आपतत्त्वात्मक चैतन्यके वलयद्वारा चैतन्यके प्रवाह वातावरणमें प्रक्षेपित होते हैं ।
६ उ. वातावरणमें गंधस्वरूप चैतन्यके कण संचारित होते हैं ।

७. स्नान करते समय व्यक्तिके देहमें आनंदका प्रवाह आकृष्ट होता है और
७ अ. व्यक्तिके देहमें आनंदके वलयकी निर्मिति होती है ।

यह सूक्ष्म-प्रक्रिया तीन स्तरोंमें होती है, ……..

१. देहको तेल लगानेके कारण व्यक्तिके त्वचा-रंध्रोंद्वारा देहमें शक्तिके कण फैलते हैं ।
२. तेलमिश्रित उबटन लगानेके कारण व्यक्तिके देहमें शक्तिके स्पंदन अधिक मात्रामें निर्मित होते हैं ।
३. अभ्यंगस्नान करनेसे चैतन्यके स्पंदन अधिक मात्रामें निर्मित होकर, वातावरणमें उनका प्रक्षेपण भी होता है ।

इस प्रकार नरकचतुर्दशीके दिन अभ्यंगस्नान करनेसे ईश्वरीय तत्त्वका १ प्रतिशत, आनंदका १ दशमलो पच्चीस प्रतिशत, चैतन्यका ३ प्रतिशत एवं शक्तिका २ प्रतिशत मात्रामें लाभ मिलता है ।

५. सनातन आश्रम, पनवेलके संत प.पू. पांडे महाराजजीद्वारा बताया गया नरक चतुर्दशीका भावार्थ

इस दिन सूर्योदयसे पहले उबटन लगाकर, शरीरकी मैल उतारें एवं स्नान करें । घरद्वार व दुकानको स्वच्छ कर, रंगोली सजाकर, उसमें रंग भरकर आंगन सुशोभित करें । परंतु यह सर्व बाह्य रूपसे ही है । मनकी मैल, बुरे विचार दूर करनेकी बात सूझती भी नहीं । बुरे विचारोंके कारण समाजमें दूषित वातावरण निर्माण होता है । यहां-वहां कूडा- कचरा, प्रदूषणसे स्वास्थ्यपर अनिष्ट परिणाम होता है । इस प्रकार नरक समान स्थिति हो जाती है । ऐसेमें समाजसे बुरे विचारोंकी मलिनता हटानेके लिए, अपने हाथमें ज्ञानरूपी झाड़ू उठानेसे ही स्वच्छता होती है ।

इसीलिए सीमित अवधितक प्रसन्न दिखाई देनेवाला वातावरण, सदाके लिए प्रदूषित रहता है । जबतक मनकी मलिनता नहीं निकलती एवं उसके स्थानपर दैवी विचारोंकी स्थापना नहीं होती, तबतक नरकचतुर्दशीका महत्त्व नहीं समझमें आता । संक्षेपमें, नरकचतुर्दशी कहती है, `बुरी वृत्तिको जडसे मिटा दो । दुर्गंधको दूर करो, तब ही हम खरे अर्थसे दीपावली मना पाएंगे ।

नरकचतुर्दशीके दिन प्रात: अलक्ष्मीका मर्दन कर अपनेमें नरकरूपी पापवासनाओंका समूल नाश कर, अहंकारका उच्चाटन करना चाहिए । तब ही आत्मापर पडा अहंका पट अर्थात परदा हटेगा और आत्मज्योत प्रकाशित होगी । इस दिन भगवान श्रीकृष्णने नरकासुरका वध किया ।

इसका अर्थ है, `दुर्जन शक्तिपर सज्जन शक्तिकी विजय ।’ जिस समय सज्जन शक्ति जागृत होती है और वह संगठितरूपसे कार्य करने लगती है, तब दुर्जन शक्ति निष्प्रभावी बनती है । `प्रत्येक व्यक्ति स्वयंमें आसुरीवृत्ति एवं विघातकवृत्तिको घटाकर, उसके स्थानपर दैवी वृत्तिकी स्थापना करे । आगे इसका परिणाम समाजपर होता है और फिर राष्ट्रपर ।’ इसलिए सज्जन संगठित होकर अपने ज्ञानसे समाजको लाभान्वित करें । यही इस नरकचतुर्दशीसे स्पष्ट होता है ।
प.पू. महाराजजीके बताए अनुसार सच्चे रूपसे नरक चतुर्दशी मनानेके लिए मनसे तथा समाजसे कुविचार निकालकर बाहर फेंकनेके लिए प्रयास करनाही अधिक उपयुक्त होगा ।

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