१. स्वयं को अज्ञानी माननेवाले ज्ञानवंत को ही भगवान की कृपा से ज्ञान का कृपा प्रसाद मिलता है !
२. क्रियान्वयन के स्तर पर प्रयास किए बिना केवल वाचन कर उस विषय में भाष्य करने पर ज्ञान से अहं बढ सकता है । उसके कारण अनेक प्रवचनकार, कीर्तनकार तथा सत्संग लेनेवालों में अध्यात्म का क्रियान्वयन न करने से ज्ञान का तीव्र अहं उत्पन्न होता है । वे पूरे जीवन लोगों को ज्ञान तो देते हैं; परंतु स्वयं उसका क्रियान्वयन नहीं करते । उसके कारण उनकी वाणी में चैतन्य नहीं होता । संतों का इसके विपरीत होता है; परंतु वे अपने आचरण से अन्यों को सिखाते हैं । इसलिए वे साधकों को किसी प्रवचनकारों से भी अधिक प्रिय होते हैं ।
३. काल के अनुसार ‘उत्तम कर्म’ ही ‘उत्तम ध्यान’ : आज के समय में ‘काल के अनुसार ‘उत्तम कर्म’ करना ‘उत्तम ध्यान’ है । केवल ध्यान से प्रगति नहीं होती; क्योंकि हममें ध्यान लगने योग्य सात्त्विकता नहीं होती । उसे उत्तम कर्म कर प्राप्त करना पडता है । उत्तम आचरण, उत्तम विचार तथा भगवान के उत्तम सान्निध्य के कारण देह सात्त्विक होने लगती है । ऐसी देह ही ‘उत्तम ध्यान’ कर सकती है ।’
– श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२८.४.२०२०)