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दिवंगत व्यक्ति का श्राद्ध परिवार में किसने करना चाहिए और उसके पीछे का अध्यात्मशास्त्रीय कारण इस लेख में देखेंगे । इससे ध्यान में आएगा कि हिन्दू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो प्रत्येक व्यक्तिका उसकी मृत्युके उपरांत भी ध्यान रखता है !
१. स्वयं करना महत्त्वपूर्ण
‘श्राद्धविधि स्वयं करनी चाहिए । स्वयं नहीं कर पाते, इसलिए ब्राह्मण द्वारा करवाते हैं । वर्तमान में श्राद्ध करनेवाले ब्राह्मण मिलना भी कठिन हो गया है । इस पर उपायस्वरूप श्राद्ध-संकल्प विधि की पोथी लेकर प्रत्येक व्यक्ति श्राद्ध-संकल्प विधि का पाठ करे । यह पाठ संस्कृत में होता है । हम अन्य भाषा सीखते हैं, फिर संस्कृत तो देवभाषा है तथा सीखने में भी सरल है ।
(उक्त सूत्र तत्त्वतः उचित है, फिर भी संस्कृत भाषा के उच्चारण की कठिनता, धर्मशास्त्र में बताई गई विधि के यथोचित आकलन में मर्यादा इत्यादि को देखते हुए आवश्यक नहीं कि प्रत्येक के लिए विधिवत श्राद्ध स्वयं करना संभव होगा । ऐसे में ब्राह्मण से एवं ब्राह्मण न मिलें तो किसी जानकार से श्राद्धविधि करवाने में कोई आपत्ति नहीं है । ध्यान रखें कि श्राद्धविधि का होना अधिक आवश्यक है । – संकलनकर्ता)
२. पितरों के लिए श्राद्धपक्षादि विधि (कर्मकांड) पुत्र द्वारा किया जाना आवश्यक है
पूर्वजों के स्पंदन एवं उनके सबसे समीप के उत्तराधिकारियों के स्पंदनों में अत्यंत समानता होती है । जब किसी सूक्ष्म-देह को वेदना होती है, तब उस कष्ट के स्पंदन, उसके सबसे समीप के उत्तराधिकारी को भी अनुभव होते हैं । इसीलिए श्राद्धपक्षादि पितरों के लिए किए जानेवाले कर्म पुत्र को करने पडते हैं । पुत्र एवं पितरों के स्पंदन एकसमान होने के कारण श्राद्धतर्पण के समय पुत्र द्वारा दिया गया तर्पण पितरों को ग्रहण करना सरल होता है ।’
३. हिन्दू धर्म किसी को भी यह कहने का अवसर नहीं देता, ‘अमुक व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए श्राद्धविधि नहीं की !’
‘पुत्र (जिसका उपनयन न हुआ हो, वह भी), पुत्री, पौत्र, प्रपोत्र, पत्नी, जिस पुत्री को पितरों की संपत्ति मिली हो, उसका पुत्र, सगा भाई, भतीजा, चचेरा भतीजा, पिता, माता, बहू, बडी एवं छोटी बहन के बच्चे, मामा, सपिंड (सात पीढी तक कुल का कोई भी व्यक्ति), समानोदक (सात पीढी के उपरांत के गोत्र का कोई भी सदस्य), शिष्य, उपाध्याय, मित्र, जमाई, इस क्रम से यदि एक न हो तो दूसरा श्राद्ध करे । संयुक्त परिवार में पालनकर्ता ज्येष्ठ पुरुष (परिवार में आयु में बडा अथवा सभी के पालन-पोषण का दायित्व निभानेवाला व्यक्ति) श्राद्ध करे । विभक्त होने पर प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से श्राद्ध करना चाहिए ।’ हिन्दू धर्म ने ऐसी पद्धति बनाई है कि प्रत्येक मृत व्यक्ति के लिए श्राद्ध संभव हो एवं उसे सद्गति प्राप्त हो । धर्मसिंधु नामक ग्रंथमें लिखा है, ‘किसी मृत व्यक्ति का कोई परिजन न हो, तो उसका श्राद्ध करने का कर्तव्य राजा का है ।’
(इतने पर्याय होते हुए भी हिन्दू श्राद्ध इत्यादि नहीं करते । ऐसे हिन्दुओं की सहायता भला कौन कर पाएगा ? – संकलनकर्ता)’
४. स्रियोंद्वारा श्राद्ध किया जाना
१. सूत्र ‘३’ में बताया गया है कि पुत्री, पत्नी, मां एवं बहू को भी श्राद्ध करने का अधिकार है । फिर भी वर्तमान काल में श्राद्ध करवानेवाले कुछ पुरोहित स्रियों को श्राद्ध करने की अनुमति नहीं देते । इसका कारण यह है कि पूर्वकाल में स्रियों का यज्ञोपवीत संस्कार होता था; परंतु आजकल सर्व वर्णों की स्रियोंके संबंध में यह संस्कार न किए जाने के कारण, उसके अनुसार स्रियोंद्वारा श्राद्धविधि भी नहीं करवाई जाती । तथापि आपातकाल में अर्थात श्राद्ध करने के लिए कोई भी उपलब्ध न हो तो श्राद्ध न करने की अपेक्षा स्रियों श्राद्ध करें ।
२. श्राद्धकर्ती कंधे पर स्वच्छ सूती गमछा लेकर सव्य-अपसव्य करे ।’
संतों का श्राद्ध नहीं करना पडता; क्योंकि देहत्याग के उपरांत वे भुवर्लोक अथवा स्वर्गलोक में नहीं जाते, अपितु अपने स्तर के अनुसार जन, तप अथवा सत्य लोक में जाते हैं । – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१६.१२.२०१४)
५. पहले तथा अंतिम पुत्रों को श्राद्ध करने का अधिकार एवं मंझले पुत्र को न होने का कारण क्या है ?
‘जब प्रथम पुत्र के संदर्भ में गर्भधारणा होती है, तब जीव की तीव्र इच्छाशक्ति कार्यरत रहती है । इसलिए इस पुत्र के माध्यम से की गई विधियां तीव्र इच्छाबीज में निहित शक्ति के बल पर पूर्वजों की वासना तृप्त कर उन्हें संतुष्ट करती हैं । अंतिम पुत्र वंश समाप्त होने का प्रतीक होने के कारण उससे भी पूर्वजों की अपेक्षाएं तीव्र होती हैं, इसलिए उसके द्वारा किए गए कर्म भी, पूर्वजों की इच्छा की तीव्रता की मात्रानुसार कार्य करते हैं । मंझले पुत्र का प्रथम एवं अंतिम पुत्र की तुलना में गौण स्थान होने के कारण, अर्थात इस पुत्र से पूर्वजों की अपेक्षाएं अल्प मात्रा में होने के कारण उससे विधि करवाने से फलप्राप्ति अल्प मात्रा में होती है; इसलिए केवल प्रथम एवं अंतिम पुत्र को ही हिन्दू धर्म ने श्राद्धविधि करने का अधिकार दिया है ।
६. ससुर एवं पति के जीवित रहते स्त्री की मृत्यु होने पर उसका अंतिम संस्कार एवं श्राद्ध पति को क्यों करना चाहिए ?
विवाहित स्त्री की मृत्यु होने पर, पति को ही अंतिम संस्कार एवं श्राद्ध करने का प्रथम अधिकार है; क्योंकि पत्नी का पति के साथ सबसे अधिक संबंध होता है, अतः पति से उसकी अपेक्षाएं भी अधिक होती हैं । इस कारण किसी अन्य की अपेक्षा पति द्वारा की गई विधि से पत्नी की लिंगदेह को गति प्राप्त होने की संभावना अधिक होती है ।
७. विधवा स्त्री की मृत्यु के पश्चात उसका श्राद्ध उसके पुत्र को क्यों करना चाहिए ?
विधवा स्त्री की मृत्यु के उपरांत उसका अंतिम संस्कार एवं श्राद्ध करने का अधिकार उसके पुत्र को है; क्योंकि स्त्री का किसी अन्य की अपेक्षा प्रथम पति से एवं उसके उपरांत स्वयं के पुत्र से संबंध सर्वाधिक होता है । अतः उचित घटकों के माध्यम से की जानेवाली श्राद्धविधि से फलप्राप्ति भी अधिक होती है ।’
– एक विद्वान श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २७.१.२००६, रात्रि ८.३७़
टिप्पणी – हिन्दू धर्म में श्राद्ध करने के अधिकार के संदर्भ में ऐसी पद्धति बताई गई है कि प्रत्येक मृत व्यक्ति का श्राद्ध हो एवं उसे सद्गति प्राप्त हो । पुत्र (जिसका उपनयन नहीं हुआ है वह भी), कन्या, पौत्र, प्रपौत्र, पत्नी, संपत्ति में भागीदार कन्या का पुत्र, सगा भाई, भतीजा, चचेरे भाई का पुत्र, पिता, माता, बहू, बडी तथा छोटी बहन के पुत्र, मामा, सपिंड (सात पीढियों तक के कुल का कोई भी), समानोदक (सात पीढियों के पश्चात गोत्र का कोई भी), शिष्य, उपाध्याय, मित्र, जमाई इस क्रम से पहला न होने पर दूसरे को श्राद्ध करना चाहिए । किसी मृत व्यक्ति का कोई संबंधी अथवा निकट का परिचित व्यक्ति न हो, तो उसका श्राद्ध करने का कर्तव्य राजा का होता है, ऐसा भी धर्म विधान है ।
इससे यह विदित होता है कि श्राद्धविधि अमुक व्यक्ति नहीं कर सकता इसलिए नहीं की गई, ऐसा कहने का अवसर हिन्दू धर्म नहीं देता ! यही एकमात्र धर्म है, जो प्रत्येक व्यक्ति का उसकी मृत्यु के उपरांत भी ध्यान रखता है ! – संकलनकर्ता
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग १) महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’