श्रीगणेश चतुर्थी व्रतविधि एवं श्री गणेशमूर्तिका आवाहन

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१. गणेशोत्सवके लिए की जानेवाली सजावटके बारेमें

आजकल गणेशोत्सवके लिए की जानेवाली सजावटमें विविध प्रकारके रंगबिरंगे एवं चमकीले कागज, थर्मोकोल, प्लास्टिक इत्यादिका उपयोग किया जाता है । साथही रंगबिरंगे प्रकाश देनेवाले बिजलीके बल्बकी मालाओंका भी उपयोग करते हैं । ये वस्तुएं कृत्रिम एवं रासायनिक पदार्थासे बनी होती हैं । इस कारण ऐसी वस्तुओंमें रज-तमका प्रमाण भी अधिक होता है । स्वाभाविक है कि ऐसी वस्तुओंकी ओर वातावरणकी रज-तमात्मक एवं कष्टदायक तरंगें आकृष्ट होती हैं । इस कारण वहांके वातावरणपर भी इन तरंगोंका प्रभाव होता है । इसीलिए रज-तमात्मक तरंगें आकृष्ट करनेवाले कृत्रिम एवं रासायनिक पदार्थासे बनी वस्तुओंका उपयोग सजावटके लिए नहीं करना चाहिए । अध्यात्मशास्त्रकी दृष्टिसे प्रत्येक देवताका एक विशिष्ट तत्त्व होता है । यह देवतातत्त्व विशिष्ट रंग, सुगंध, आकार इत्यादिकी ओर अधिक प्रमाणमें आकृष्ट होता है । ऐसे विशिष्ट रंग, सुगंध तथा आकारवाली वस्तुओंसे आकृष्ट तरंगोंको अधिक समय तक संजोए रखकर उन्हें प्रक्षेपित करनेकी क्षमता भी अधिक होती है । जिस कारण इन तरंगोंका लाभ उस वातावरणमें आनेवाले सभी व्यक्तियोंको अधिक समय तक मिलता है । गणेशचतुर्थीके समय पृथ्वीपर आनेवाले गणेशतत्त्वको अधिक प्रमाणमें आकृष्ट करनेके लिए सात्त्विक वस्तुओंका उपयोग लाभदायक होता है । जैसे प्राकृतिक पुष्प-पत्तोंसे बने बंदनवार,लाल रंगके फूल एवं दूर्वा, शमी तथा मदारके पत्ते, श्री गणेशजीकी तत्त्वतरंगें आकर्षित करनेवाली रंगोली इ.

२. श्री गणेशजीकी सात्त्विक नामजपकी पट्टियां

सात्त्विक एवं देवतातत्त्व आकर्षित करनेवाली सजावट होनेसे उस स्थानका वातावरण सात्त्विक बननेमें सहायता मिलती है एवं देवतातत्त्वका लाभ भी अधिक मिलता है ।

३. श्रीगणेशजीकी मूर्ति घर लानेकी पद्धति

१. श्री गणेशजी की मूर्ति घर लाने के लिए घर के कर्ता पुुरुष अन्यों के साथ जाएं ।

२. मूर्ति हाथ में लेनेवाला व्यक्ति हिन्दू वेशभूषा करे, अर्थात धोती-कुर्ता अथवा कुर्ता-पजामा पहने । वह सिरपर टोपी भी पहने ।

३. मूर्ति लाते समय उसपर रेशमी, सूती अथवा खादी का स्वच्छ वस्त्र डालें । मूर्ति घर लाते समय मूर्ति का मुख लानेवाले की ओर तथा पीठ सामने की ओर हो । मूर्ति के सामने के भाग से सगुण तत्त्व, जब कि पीछे के भाग से निर्गुण तत्त्व प्रक्षेपित होता है । मूर्ति हाथ में रखनेवाला पूजक होता है । वह सगुण के कार्य का प्रतीक है । मूर्तिका मुख पूजक की ओर करने से उसे सगुण तत्त्व का लाभ होता है और अन्यों को निर्गुण तत्त्व का लाभ होता है ।

४. श्री गणेशजी की जयजयकार और भावपूर्ण नामजप करते हुए मूर्ति घर लाएं ।

५. घर की देहली के बाहर खडे रहें । घर की सुहागिन स्त्री मूर्ति लानेवाले के पैरों पर दूध और तत्पश्‍चात जल डाले ।

६. घर में प्रवेश करने से पूर्व मूर्ति का मुख सामने की ओर करें । तदुपरांत मूर्ति की आरती कर उसे घर में लाएं ।

श्री गणेशजीके भक्त इस विधिसे उनका स्वागत करते हैं । स्वागतसहित लाई गई श्री गणेशजीकी मूर्तिका पूजन-अर्चन, स्तोत्रपाठ, नामजप इत्यादि कृत्य भावसहित करनेसे हमें श्री गणेशजीके तत्त्वका लाभ मिलता है । साथही वातावरणमें प्रक्षेपित उनसे संबंधित भाव, चैतन्य, आनंद एवं शांतिकी तरंगोंका भी हमें लाभ मिलता है ।

इस दृश्यपटद्वारा हमने श्री गणेशजीकी मूर्ति घर लानेकी पद्धति समझ ली । इसमें हमने देखा कि मूर्ति पूजास्थानपर रखनेसे पूर्व उस स्थानपर थोडीसी अक्षत रखी गई । विभिन्न स्थानोंपर अपनी-अपनी प्रथाके अनुसार जिस चौकीपर मूर्तिकी स्थापना करनी है, उसपर अक्षतका पुंज बनाकर उसपर मूर्ति रखते हैं । इस प्रकार अक्षतपर मूर्तिको क्यों रखना चाहिए, इससे क्या लाभ होता है, इसे समझना भी हमारे लिए अनिवार्य बनता है।

 ४. श्री गणेशजीकी मूर्ति अक्षतपर रखनेका शास्त्राधार

शास्त्रके अनुसार किसी भी देवताका आवाहन कर पूजन करनेसे उस देवताकी मूर्तिमें संबंधित देवताका तत्त्व आकृष्ट होता है । इस देवतातत्त्वसे वह मूर्ति संपृक्त अर्थात संचारित होती है । देवताका यह तत्त्व मूर्तिमें घनीभूत होकर आसपासके वायुमंडलमें प्रक्षेपित होता रहता है । मूर्तिके संचारित होनेके कारण मूर्तिके नीचे रखे अक्षतके दाने भी देवतातत्त्वसे संचारित होते हैं । दो तंबूरोंके समान कंपनसंख्याके दो तार हों, तो एक तारसे नाद उत्पन्न करनेपर वैसा ही नाद दूसरी तारसे भी उत्पन्न होता है । उसी प्रकार मूर्तिके नीचे रखे अक्षतमें देवताके स्पंदन घनीभूत होनेसे घरमें रखे चावलके भंडारमें भी देवताके स्पंदन घनीभूत होते हैं । उत्तरपूजनके उपरांत ये अक्षत घरमें रखे चावलके भंडारमें मिलाए जाते हैं । देवतातत्त्वसे संचारित सभी चावल वर्षभर प्रसादके रूपमें ग्रहण करनेसे परिवारके सभी सदस्योंको उनसे लाभ होता है । इस प्रक्रियाके अनुसार श्री गणेशमूर्ति अक्षतपर रखनेसे श्री गणेशजीके भक्तोंको पूरा वर्ष प्रसादके रूपमें गणेशतत्त्वका लाभ मिलता है ।

संदर्भ -सनातनका ग्रंथ-त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत

५. इस दिन चंद्र के दर्शन करना मना है !

चंद्रदर्शन निषेध

इस दिन चंद्र को नहीं देखना चाहिए, क्योंकि चंद्र का प्रभाव मन पर होता है । वह मन को कार्य करने पर प्रवृत्त करता है; परंतु साधक को तो मनोलय करना है । ग्रहमाला में चंद्र चंचल है अर्थात उसका आकार घटता-बढता है । उसी प्रकार शरीर में मन चंचल है । चंद्रदर्शन से मन की चंचलता एक लक्षांश बढ जाती है । संकष्टी (शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायकी और कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी कहते हैं ।) पर दिनभर साधना कर रात्रि के समय चंद्रदर्शन करते हैं । एक प्रकार से चंद्रदर्शन की क्रिया साधना काल के अंत एवं मन के कार्यारंभ की सूचक है ।

पुराणोंमें इससे संबंधित एक कथा

एक दिन चंद्रने गणपतिके डील-डौलका मजाक उडाया, ‘देखो तुम्हारा इतना बडा पेट, सूप जैसे कान, क्या सूंड और छोटे-छोटे नेत्र !’ इसपर गणपतिने उसे श्राप दिया, ‘अबसे कोई भी तुम्हारी ओर नहीं देखेगा । यदि कोई देखे भी तो उसपर चोरीका झूठा आरोप लगेगा ।’ उसके उपरांत चंद्रको न कोई अपने पास आने देता, न ही वह कहीं आ-जा सकता था । उसके लिए अकेले जीना कठिन हो गया । तब चंद्रने तपश्‍चर्या कर गणपतिको प्रसन्न किया एवं प्रतिशापकी विनती की । गणपतिने मन ही मन सोचा, ‘शाप तो मैं पूर्ण रूपसे वापस नहीं ले सकता । उसका कुछ तो प्रभाव रहना ही चाहिए एवं अब प्रतिशाप भी देना पडेगा । कैसे करूं कि अपना दिया हुआ शाप भी नष्ट न हो और उसे प्रतिशाप भी दे सकूं ?’ ऐसा विचार कर गणपतिने चंद्रको प्रतिशाप दिया, ‘श्री गणेश चतुर्थीके दिन तुम्हारे दर्शन कोई नहीं करेगा; परंतु संकष्टी चतुर्थीके दिन तुम्हारे दर्शन किए बिना कोई भोजन नहीं करेगा ।’ (शुक्ल पक्षकी चतुर्थीको ‘विनायकी’ एवं कृष्ण पक्षकी चतुर्थीको ‘संकष्टी’ कहते हैं ।)

इस दिन भूल से चंद्र दर्शन हो जाए तो क्या करें ?

‘श्री गणेश चतुर्थी’ को ‘कलंकित चतुर्थी’ भी कहा जाता है । इस चतुर्थी पर चंद्रमा को देखना वर्जित है । यदि गलती से चतुर्थी का चंद्रमा दिखाई दे तो ‘श्रीमद्भागवत’ के १०वें खंड के अध्याय ५६-५७ में दी गई कहानी ‘स्यमंतक मण्याची चोरी’ पढनी अथवा सुननी चाहिए । भाद्रपद शुक्ल तृतीया या पंचमी को चंद्रमा देखें । इससे चतुर्थी के चंद्र दर्शन का अधिक धोखा नहीं रहता ।

यदि भूल से चंद्रदर्शन हो जाए तो आगे दिए मंत्र से अभिमंत्रित किया हुआ पवित्र जल प्राशन करें । इस मंत्र का २१, ५४ अथवा १०८ बार जप करें ।

सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ।। – ब्रह्मवैवर्त पुराण, अध्याय ७८

अर्थ : हे सुंदर सुकुमार! इस मणि के लिए सिंह ने प्रसेन को मारा है, और जंबुवंत ने उस सिंह को मार डाला है; इसलिए तुम रोओ मत । अब इस स्यमन्तक मणि पर तुम्हारा ही अधिकार है ।

सौजन्य : सनातन संस्था