१. ‘यात्रा करानेवाली चारपहिया धर्मरथ है’, इस भाव से चारपहिया का ध्यान रखना
१ अ. पू. रमानंद अण्णा यात्रा करते समय चारपहिया को ‘धर्मरथ’ संबोधित करते हैं ।
१ आ. यात्रा पर जाने से एक दिन पूर्व रथ की (चारपहिया की ) सवच्छता करने के लिए बताना तथा जाने के दिन उसकी शुद्धि कर एवं कुदृष्टि उतारकर यात्रा आरंभ करने के कारण अडचनें दूर होना : ईश्वर की कृपा से पू. रमानंदअण्णा को यात्रा करनेवाला रथ(चारपहिया) चलाने की सेवा प्राप्त हुई । पू. अण्णा यात्रा पर जाने के एक दिन पूर्व रथ की स्वच्छता करने के लिए बताते हैं तथा दूसरे दिन रथ की शुद्धि कर एवं कुदृष्टि उतारकर यात्रा पर लिए निकलते हैं । अतः यात्रा में अडचनें नहीं आतीं ।
१ इ. यात्रा पर जाते समय वे सूक्ष्मता से ये बताते हैं कि रथ में साधकों का सर्व साहित्य किस प्रकार रख सकते हैं तथा अच्छे स्पंदन आने के लिए साहित्य की रचना किस प्रकार करनी चाहिए ?
१ ई. रथ अच्छी तरह से चलाने के लिए साधक का मार्गदर्शन करना : रथ चलाते समय वे मुझे उसकी सूक्ष्मता बताते थे, ‘रथ अच्छी तरह से कैसे चलाते हैं ? यदि मार्ग में मोड तथा घाटी आई, तो रथ किस प्रकार चलाना ? रात्रि के समय किन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए तथा यदि सामने से वाहन आया, तो उन्हें किस प्रकार ‘फोकस’ अथवा लाईट ऊपर-नीचे (अपर-डीपर) करना ।’
१ उ. ‘दूर की यात्रा में साधक को विश्रांति प्राप्त हो’, इसलिए स्वयं को पीठदर्द होते हुए भी रथ चलाना तथा रथ चलाते समय रथ में एक पृथक चैतन्य एवं ऊर्जा प्रतीत होना : पू. अण्णा इस विषय में सतर्क रहते हैं कि कहीं साधक को रथ चलाते समय नींद तो नहीं आ रही है ?’ यदि साधक को नींद आ रही हो, तो उसे रथ बाजू में खडे करने के लिए बताकर उसे मुंह धोने के लिए तथा कर्पूर एवं इत्र का उपाय करने के लिए बताते हैं । पू. अण्णा को पीठदर्द होते हुए भी दूर की यात्रा करते समय ‘साधक को विश्रांति प्राप्त हो’, इसलिए स्वयं रथ चलाते हैं । पू. अण्णा के रथ चलाते समय तथा मेरे रथ चलाते समय वातावरण में होनेवाला अंतर मुझे त्वरित ध्यान में आता है ।
२. गुणविशेषताएं
२ अ. ‘साधकों की प्रगति तीव्रगति से हो’, ऐसी लगन रहना
२ अ १. साधकों की व्यष्टि एवं समष्टि साधना का नियोजन करना : पू. रमानंद अण्णा साधकों के मन पर गुरुदेवजी की महानता अंकित करते हैं । ‘साधक मनुष्य जन्म को सार्थक करें’, इसलिए वे साधकों को निरंतर अंतर्मुख कर उनकी व्यष्टि एवं समष्टि साधना का नियोजन करके देते हैं । वे साधकों को निरंतर आनंदी एवं उत्साही रखते हैं ।
२ अ २. यदि साधकों द्वारा किए गए नियोजन में त्रुटियां हैं, तो ‘साधकों से वे त्रुटियां लगातार न हों,’ इसलिए पू. रमानंद अण्णा साधकों को दृष्टिकोण देते हैं ।
२ आ. प्रत्येक कृति सात्त्विक होने के लिए प्रयास करना
२ आ १. तरबूजे का छोटा टुकडा खाने के लिए दी गई ‘स्टिक्स’ (फल के टुकडे उठाने की नोंकवाली काठी) वापस कर चम्मच से टुकडा खाना : एक बार उनके भोजन के पश्चात मैंने उन्हें तरबूजे के छोटे टुकडे तथा खाने के लिए स्टिक्स लेकर आया । उस समय पू. अण्णा ने मुझे बताया कि स्टिक्स से फल को चुभाकर नहीं खाते । यदि फल को चुभाया, तो उससे अच्छे स्पंदन नहीं आएंगे । पू. अण्णा ने वे स्टिक्स वापस देकर मुझे चम्मच लाने के लिए कहा ।
२ इ. भाव का सगुण रूप
२ इ १. पू. रमानंद अण्णा में इतना भाव है कि सभी साधक उनका स्वागत करने के लिए उत्सुक रहते हैं । पू. अण्णा दिखाई देते ही साधकों की आंखों में भावाश्रू आ जाते हैं । साथ ही साधकों की ओर देखकर पू. अण्णा का भी भाव जागृत होता है ।
२ इ २. साधकों के मन पर साधना का महत्त्व भावपूर्ण रीति से अंकित करना : पू. अण्णा ‘साधकों के कल का नियोजन क्या होगा ?’ इसका ब्यौरा एक दिन पूर्व प्राप्त कर ‘साधकों को अधिक क्या करना अपेक्षित है ?’, इसका चिंतन करने के लिए उन्हें बताते हैं । पू. अण्णा साधकों के मन पर साधना का महत्त्व इस प्रकार अंकित करते हैं कि वह सुनते समय साधक तथा धर्मप्रेमियों की भावजागृति होती है । उस समय सभी साधक भावावस्था का अनुभव करते हैं तथा पू. अण्णा की भी भावजागृति होती है ।
२ इ ३. परात्पर गुरुदेवजी के प्रति अपार भाव ! : परम पूज्य गुरुदेवजी के प्रति पू. अण्णा का इतना भाव है कि वे प्रत्येक मार्गदर्शन के समय ‘हमारे गुरुदेवजी’, ‘हमारे गुरुजी’, ‘हमारे परम पूज्य डॉक्टरजी’, ऐसा कहते हैं । ‘सबकुछ गुरु की आज्ञा से हो रहा है’, ऐसा बार-बार बताते हैं । ‘परम पूज्य गुरुदेवजी’, यह कहने के पश्चात भी उनका भाव जागृत होता है ।
३. प्रार्थना
‘पू. अण्णा, ‘हमें निरंतर अपने सान्निध्य में रखें । साधकों को निरंतर आपका मार्गदर्शन प्राप्त हो । इस भीषण आपत्काल में हमारे अंदर होनेवाले स्वभावदोष एवं अहं का लय होकर गुरुदेवजी द्वारा बताए गए शिखर तक हमें लेकर चलें’, ऐसी आपके चरणों में शरणागत भाव से प्रार्थना है ।’
– श्री. सुकेश गुरव, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (२.६.२०२१)