ग्रंथलेखन का अद्वितीय कार्य करनेवाले एकमात्र परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी !

ज्ञानवंत की हो यशवंत की हो कीर्तीवंत ।
बाप माझा हो ज्ञानवंत ।।

अर्थात मेरे गुरु ज्ञानी, यशवंत और कीर्तिमान हैं । उक्त मराठी भजन पंक्तियां संत भक्तराज महाराजजी ने अपने गुरु के संदर्भ में लिखी हैं । संत भक्तराज महाराजजी के उत्तम शिष्य और सनातन के सभी साधकों के लिए प्राणप्रिय परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के संदर्भ में भी उक्त पंक्तियां यथार्थ सिद्ध होती हैं । अखिल मानवजाति के उद्धार हेतु ग्रंथों के माध्यम से समाज तक आध्यात्मिक ज्ञानसरिता पहुंचानेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ‘ज्ञानी’ हैं ! सनातन के ग्रंथों में विद्यमान ज्ञानामृत के कारण असंख्य जिज्ञासु साधनाभिमुख बन गए हैं तथा ८ अप्रैल २०२२ तक सनातन के ११४ साधक संत बन गए हैं, तो १३४५ साधक संत होने की दिशा में अग्रसर हैं । इस दृष्टि से परात्पर गुरु डॉक्टरजी ‘यशवंत’ हैं ! केवल २७ वर्षाें में ही अर्थात वर्ष १९९५ से मार्च २०२२ तक ३५३ ग्रंथों-लघुग्रंथों की निर्मिति करनेवाले परात्पर गुरु डॉक्टरजी का ग्रंथ-रचना क्षेत्र का कार्य विलक्षण है तथा इससे भी उनके असामान्य आध्यात्मिक कर्तृत्व का परिचय होता है । इस दृष्टि से परात्पर गुरु डॉक्टरजी ‘कीर्तिमान’ हैं !

पू. संदीप गजानन आळशीजी

परात्पर गुरु डॉक्टरजी की यह ज्ञानगाथा, यशोगाथा और कीर्तिगाथा का होने के पीछे मुख्य कारण है उनके ग्रंथकार्य के नानाविध पहलू ! उनके ८० वें जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में उनके इन पहलुओं की जानकारी देनेवाली लेखमाला प्रकाशित कर रहे हैं । इस शृंखला के अंतर्गत यह पहला लेख है । इस लेख में दी गई सनातन के ग्रंथों की विशेषताएं पढकर सनातन के ग्रंथों की और उसके माध्यम से परात्पर गुरु डॉक्टरजी की महानता ध्यान में आएगी ।

संकलनकर्ता : (पू.) श्री. संदीप आळशी (सनातन के ग्रंथों के एक संकलनकर्ता), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

अध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिए ज्ञान का एक अलग कक्ष तैयार करनेवाले सनातन के ग्रंथों की अद्वितीय ग्रंथों की विशेषताएं !

 

१. ‘पुस्तक’ नहीं, अपितु ‘ग्रंथ’ !

प.पू. बेजन देसाईजी नासिक के एक महान संत हुए । १९९७ तक सनातन के केवल ७ – ८ ग्रंथ ही प्रकाशित हुए थे । प.पू. बेजन देसाईजी ने उस समय बताया था, ‘डॉ. जयंत आठवलेजी के सभी ग्रंथों में अध्यात्मशास्त्र के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक, दोनों भाग प्रस्तुत किए हैं । उसमें प्रतिपाद्य विषय का सर्वांगीण विचार किया है तथा उनके व्यापक अध्ययन का आधार होने से वे ग्रंथ अनभिज्ञ मनुष्य को साधना हेतु प्रेरित करते हैं, साथ ही परमार्थ पथ पर अग्रसर साधकों, भक्तों व उपासकों की श्रद्धा दृढ कर धर्माचरण के पथ पर उनका मार्गक्रमण दृढ बनाते हैं ।’

प.पू. बेजन देसाईजी द्वारा बताए अनुसार हमने सनातन के प्रत्येक प्रकाशन को ‘ग्रंथ’ अथवा ‘लघुग्रंथ’ कहना आरंभ किया । उससे पूर्व हम उन्हें ‘पुस्तक’ अथवा ‘पुस्तिका’ कहते थे । लौकिक दृष्टि से, भौतिक विषयों की जो जानकारी देता है, उसे ‘पुस्तक’ कहते हैं और परमार्थ के विषय में जो जानकारी देता है, उसे ‘ग्रंथ’ कहते हैं । ‘प.पू. बेजन देसाईजी द्वारा वर्ष १९९७ में सुझाया यह नामाभिदान अत्यंत उचित ही था’, यह आगे जाकर ध्यान में आया ।

२. अनोखा व व्यापक अध्यात्मशास्त्रीय ज्ञान !

आध्यात्मिक विषयों पर विविध ग्रंथों में स्थित लगभग ३० प्रतिशत लेखन अन्य संदर्भग्रंथों से लिया गया लेखन है, लगभग २० प्रतिशत साधकों को सूक्ष्म से प्राप्त ईश्वरीय ज्ञान है, जबकि ५० प्रतिशत लेखन ग्रंथों के संकलनकर्ता परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को अपने गुरु से प्राप्त आशीर्वाद के कारण अंतर् से स्फुरित है ।

२ अ. परात्पर गुरु डॉक्टरजी की कृपा से कुछ ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधकों को सूक्ष्म से मिलनेवाला व्यापक अध्यात्मशास्त्रीय ईश्वरीय ज्ञान ! : परात्पर गुरु डॉक्टरजी जबसे अध्यात्म में आए, तब से ही उनमें अध्यात्म को परिपूर्ण पद्धति से समझ लेने की तीव्र जिज्ञासा थी । ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग जैसे विविध साधनामार्गाें में स्थित विषयों के संदर्भ में रहस्यमय प्रश्नों के उत्तर उन्हें प्राप्त करने थे, साथ ही अध्यात्म में विद्यमान विविध गतिविधियों का शास्त्र भी समझ लेना था । उसके लिए वे अनेक संतों से मार्गदर्शन लेते थे, साथ ही स्वयं ध्यान से भी उत्तर प्राप्त करते थे । २००३ में एक बार उनके मन में यह विचार आया कि ‘इस प्रकार से उत्तर प्राप्त करने के लिए अनेक वर्ष लगेंगे । अध्यात्म का संपूर्ण ज्ञान अखिल मानवजाति तक शीघ्र पहुंचना चाहिए । अब भगवान ही सभी प्रश्नों के तीव्र गति से उत्तर दें, ऐसा कुछ तो होना चाहिए ।’ उसके तुरंत उपरांत सनातन की साधिका श्रीमती अंजली गाडगीळ को अध्यात्म के कुछ विषयों का ज्ञान अपनेआप ही स्फुरित हुआ ! यह कोई संयोग नहीं था ! भगवान ने परात्पर गुरु डॉक्टरजी की जिज्ञासा इस प्रकार पूर्ण की थी ! कालांतर में अन्य साधकों को भी ज्ञान स्फुरित होने लगा । आज श्री. राम होनप, कु. मधुरा भोसले व श्री. निषाद देशमुख, इन साधकों के माध्यम से विविध आध्यात्मिक विषयों पर सूक्ष्म से ‘न भूतो न भविष्यति’ अध्यात्मशास्त्रीय ज्ञान प्रतिदिन पन्ने भर-भर कर मिल रहा है ! परात्पर गुरु डॉक्टरजी के मन में उभरे सैकडों प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना अभी भी शेष है !

३. काल के अनुसार ग्रंथ-निर्मिति

किसी भी कार्य को काल के अनुसार करने का महत्त्व है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने काल के अनुसार ही ग्रंथों की निर्मिति की है । इसके कुछ उदाहरण आगे दिए हैं ।

अ. परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने आरंभ में अध्यात्मका प्रस्तावनात्मक विवेचन, अध्यात्म, गुरुकृपायोग जैसे केवल साधना सिखानेवाले ग्रंथ लिखे । ‘सुख-दुःख के परे शाश्वत आनंद है और उसका अनुभव करने के लिए साधना करनी आवश्यक है’, इसके लिए इन ग्रंथों का प्रयोजन था । इन ग्रंथों में प्रमुखता से व्यष्टि स्तर पर साधना कैसे करें, यह बताया गया है ।

आ. आज के समय में कलियुगांतर्गत कलियुग चल रहा है । इस कलियुग में अराजकता, गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार, धर्मद्रोह आदि अपने चरम पर पहुंच गए हैं । सामान्य व्यक्ति को सुखकर जीवन व्यतीत करना भी कठिन बन गया है, वहां निश्चिंत मन से साधना करना तो दूर ही रहा ! समाज, राष्ट्र एवं धर्म की इस दयनीय स्थिति में परिवर्तन लाने हेतु ‘हिन्दू राष्ट्र (सनातन धर्म राज्य)’ की स्थापना करना ही एकमात्र उपाय शेष रहता है । हिन्दू राष्ट्र-स्थापना हेतु प्रयास करना कालानुसार आवश्यक समष्टि साधना ही है । इसके संदर्भ में समाज का मार्गदर्शन होने हेतु परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने ‘ईश्वरीय राज्य की स्थापना’, ‘हिन्दू राष्ट्र क्यों आवश्यक ?’, ‘हिन्दू राष्ट्र : आक्षेप एवं खण्डन’ जैसे समष्टि साधना सिखानेवाले ग्रंथों की रचना की ।                                         (क्रमश:)