१. वैराग्य : उचित आहार से तेज के मार्ग से कोशिकाओं का पोषण होने लगने से संबंधित स्तर पर उत्पन्न आध्यात्मिक ऊर्जा संबंधित कोशिका केंद्र के स्तर पर घनीभूत होती है । इसी ऊर्जा से जीव की यात्रा वैराग्य की दिशा में होकर उसका परिणारम वासनारूपी आसक्ति त्यागने में होता है ।
२. देहबुद्धि का घटना : आहार से जीवन विचारों के मार्ग से चैतन्य विश्व में प्रवेश करता है इसलिए इस मार्ग पर अग्रसर होते हुए उसकी देहबुद्धि घटने लगती है ।
३. आहार का भी भान न रहना : देहबुद्धि का भारीपन समाप्त होते ही उसे आहार का भी भान नहीं रहता और वह आहार से संबंधित संवेदनाओं के तरंगों के परे पहुंच जाता है ।
४. चैतन्य के पटल पर ही विहार : जीवन से आहार विधान नष्ट हो, तो देह अंतर में केवल चैतन्य के स्तर पर ही विहार करने लगता है ।
५. सात्त्विक विचारों का संवर्धन : उचित एवं सात्त्विक आहार से सात्त्विक ऊर्जा की निर्मिति होने से यह ऊर्जा मन में सात्त्विक विचारों का संवर्धन कर चित्त को उससे उत्पन्न पुण्यसंचय का संस्कार देती है ।
६. सिद्धि : कालांतर से यह पुण्यसंचय जीव को आध्यात्मिक क्षेत्र में अगले-अगले चरण की सिद्ध अनुभूतियों के विश्व में छोड देता है ।
७. संतत्व, ऋषित्व एवं देवत्व : सात्त्विक आहार संतत्व दे सकता है । ऋषित्व आहार त्याग देता है, जबकि आहारशून्यता अर्थात आहार लेने अथवा न लेने के भान से परे जाना जीव को देवत्व प्रदान करता है ।
हिन्दू धर्म द्वारा निर्धारित उचित एवं सात्त्विक आहार बनाने की नियमपद्धति जीव को सज्जन, साधक, संत, ऋषि एवं तदुपरांत देवधारणा तक पहुंचाकर उसके उपरांत मोक्ष में विलीन कर देती है ।
– एक विद्वान (श्रीचित्शक्ति [श्रीमती] अंजली गाडगीळजी ‘एक विद्वान’ के नाम से भाष्य करती हैं । (७.३.२००८)
संयमित आहारपद्धति से उन्नति होने के विविध चरण
हिन्दू धर्म की आहारपद्धति को ‘संयमित आहारपद्धति’ कहते हैं ।
१. पिंडशुद्धि : ‘संयमित आहारपद्धति’ पंचतत्त्वात्मक ऊर्जा के संतुलन पर आधारित है । उससे उचित आहार से उस संबंधित मात्रा में उचित पद्धति से संबंधित पंचतत्त्वात्मक स्तर का देह में उचित मात्रा में संचयन होता है । यह संचयन जीव को पिंडशुद्धि के लिए उपयुक्त सिद्ध होता है ।
२. सात्त्विक विचारों की निर्मिति का महामंडल तैयार होना : जीव पिंडशुद्धि से विश्वमंडल की ओर अर्थात ही अपने पिंड की परिकक्षाएं भेदकर वायुमंडल का विचार करने लगता है अर्थात उचित एवं सात्त्विक आहार से सात्त्विक विचारों की निर्मिति का महामंडल साध लेता है ।
३. मनोलय एवं बुद्धिलय : विचारों का यह महामंडल अंततः विचारत्याग से मनोलय की ओर एवं चैतन्य के आंकलन से बुद्धिलय की ओर ले जाता है ।
४. चित्तशुद्धि (संतपद) : मनोलय और बुद्धिलय का भान जीव की चित्तशुद्धि साधता है ।
५. देहबुद्धिलय (ऋषिपद) : चित्तशुद्धि ही नित्यस्वरूपी जीव को चैतन्य से जोडती है; इसलिए सात्त्विक आहार से देह को बनाकर स्थूल स्तर पर उसकी शुद्धि साधकर जीव उसके उपरांत सात्त्विकता के संवर्धन से सूक्ष्मदेहों की शुद्धि की ओर जाता है, उसी समय आहार की ओर का उसका ध्यान घटकर वह अल्पावधि में देहबुद्धिलय की ओर जाता है । इसका अर्थ सात्त्विक आहार ही जीव को कालांतर से आहार त्यागने के लिए प्रवृत्त कर त्याग से निवृत्ति की ओर अर्थात ऋषिपद की ओर ले जाता है । वैराग्यवर्धन ही ऋषित्व होता है । वासना समाप्त होते ही वैराग्यवर्धन साध्य होता है ।
६. देवत्व : वैराग्यवर्धन का भान समाप्त होने पर देवत्व आता है ।
– एक विद्वान (श्रीचित्शक्ति [श्रीमती] अंजली गाडगीळजी ‘एक विद्वान’ के नाम से भाष्य करती हैं । (७.३.२००८)