सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?
पू. डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे । उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिंदी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । गत लेख में ‘बुद्धि, उसका अवलंबित्व एवं उत्पत्ति की मर्यादा !’, इन विषयों पर किया विवेचन दिया गया था । अब देखेंगे उसका अगला भाग ! (भाग ११)
३८. जन्म, जाति एवं भोग का मिलना बुद्धि से परे होना
जन्म, जाति व भोग – इन तीनों की उपलब्धि जीवन में किन कारणों से होती हैं, इसे समझ पाना मनुष्य की बुद्धि के परे है ।
३९. शारीरिक क्रियाओं के विषय में बुद्धि अनभिज्ञ होना
सांस लेना, हृदय धडकना, भोजन पचना, खून बनना इत्यादि अनेक महत्त्वपूर्ण क्रियाएं शरीर के अंदर सतत होती रहती हैं; परंतु मनुष्य की बुद्धि उनसे अनभिज्ञ रहती है । गहरी नींद की अवस्था में भी ये क्रियाएं होती रहती हैं, परंतु बुद्धि को इनका पता नहीं होता ।
४०. बुद्धि में विद्यमान तीन दोष एवं उनकी व्याप्ती
बुद्धि (मन) में तीन प्रकार के दोष (विकार) होते हैं जिनके नाम हैं मल, विक्षेप, और आवरण । राग, द्वेष, तृष्णा, ईर्ष्या आदि का होना बुद्धि का ‘मल’ (गंदगी) दोष कहलाता है । मन की चंचलता या अस्थिरता तथा मन का इधर-उधर भटकना ‘विक्षेप’ दोष कहलाता है । वस्तु के यथार्थ अर्थ का आवरण कर (ढंककर) उसे अन्य अयथार्थ अर्थ में समझ लेना बुद्धि का ‘आवरण’ का दोष कहलाता है; इस आवरण दोष के कारण मन में भ्रम होता है तथा पदार्थों का कुछ-का-कुछ या उलटा-पुलटा ज्ञान हो जाता है ।
४१. बुद्धि की दुर्बलता दर्शानेवाले लक्षण
निरर्थक शारीरिक हरकतों का पाया जाना : कोई-कोई मनुष्य में सब बातें ठीक दिखाई देती हैं परंतु वे कुछ अजीब सी आदत पकड लेते हैं । जैसे कुछ मनुष्यों का बार-बार आंख भीचना, गर्दन हिलाना या कुछ-का-कुछ बोल देना इत्यादि दोष पाया जाता है । यह भी बुद्धि के किसी कोने के पुर्जे का ढीला होने समान है, अर्थात बुद्धि की कमजोरी की निशानी है । एक मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार ऐसे बुद्धिजीवी या श्रमजीवी लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो किसी न किसी प्रकार के मानसिक विकार से ग्रस्त हैं ।
४२. आश्चर्यकारक घटना समझने में बुद्धि के लिए कठिन होना
विस्मयकारी घटनाओं को समझ पाना कठिन जगत के विस्मयकारी (आश्चर्यजनक) अनेक कार्यों तथ्यों या निष्कर्षो को मनुष्य की बुद्धि के लिए समझ पाना संभव नहीं है उदाहरण के लिए जैसे शक्तिपात का होना, चमत्कारों का दिखाई देना, सिद्धियों का प्राप्त होना इत्यादि ।
४३. बीजरूप को समझना संभव नहीं
पदार्थों के बीजरूप (अर्थात अत्यंत प्रारंभिक अवस्था) से उत्पन्न होनेवाली बाद की संभावनाओं को समझ पाना मनुष्य के लिए संभव नहीं । उदाहरण के लिए बरगद के पेड को ले लीजिए, जिसका पेड तो बहुत विशाल होता है किंतु बीज बहुत छोटा होता है । इस छोटे बीज में पूरे पेड के विकसित होने का सामर्थ्य निहित है, जिसकी सूक्ष्मताओं को अभी तक नहीं समझा गया है ।
४४. भूतकाल अथवा भविष्यकाल का आंकलन न होना
४४ अ. भूतकाल की घटना : अत्यंत भूतकाल की घटनाओं का आंकलन मनुष्य की बुद्धि नहीं कर सकती, जैसे कि पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई, प्राणि जगत का विस्तार कैसे हुआ इत्यादि ।
४४ आ. भविष्यकाल की घटना : संसार के विभिन्न पदार्थों एवं क्रियाओं के विषय में भविष्य में क्या होनेवाला है, इसे भी मनुष्य की बुद्धि निश्चयपूर्वक नहीं समझ सकती ।
४५. बुद्धि अपने दैनिक क्रिया-कलापों को प्रायः नहीं समझती
४५ अ. कार्य का परिणाम समझ न पाना : उदाहरण के लिए हम किसी व्यक्ति को अपना अंतरंग मित्र बनाते हैं परंतु कभी ऐसा भी हो जाता है कि वही मित्र बाद में विश्वासघात कर बैठता है ।
४५ आ. बुद्धि को सभी परिणामों का पूर्व ज्ञान न होना : आधुनिक युग में कई सुविधाजनक वैज्ञानिक उपकरण हानिकारक भी सिद्ध हुए हैं । उदाहरण के लिए हवाईजहाज बनानेवालों ने क्या यह पहले कभी सोचा था कि पूरा का पूरा हवाई जहाज बम की तरह इस्तेमाल होगा जो बहुमजली इमारतों को गिराने के लिए किया जाएगा ? (जैसा कि ११ सितंबर २००१ में यू.एस.ए में हुआ) । इसके अतिरिक्त बहुत सी आधुनिक दवाइयां जो मनुष्य के लाभ के लिए बनाई गई थीं वह बाद में हानिकारक पाई गईं । इस प्रकार के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं ।
४५ इ. गणित के निष्कर्षों का अनुभव न होना : बुद्धि ने ही गणित की संरचना की परंतु गणित (Mathematics) द्वारा निकाले गए कई निष्कर्षों को मनुष्य नहीं समझ पाता (अर्थात अनुभव नहीं कर पाता) । उदाहरणार्थ गणित में कई प्रकार की प्रक्रियाएं होती हैं जैसे उत्तरोत्तर अवकलन (Succesive differentiation), उत्तरोत्तर समाकलन (Succesive integration), या इनके मिश्रित रूप इत्यादि, इन सब का अनुभव कर पाना मनुष्य के लिए संभव नहीं ।
४५ ई. कर्मों का सृष्टि पर प्रभाव भी बुद्धि का ज्ञात नहीं : अपने किसी भी कर्म का प्रभाव सृष्टि पर अनुकूल अथवा प्रतिकूल होगा, इसका निश्चितपूर्वक निर्णय कर पाना मनुष्य की बुद्धि के परे है । मनुष्य अल्पज्ञ है । वह समस्त सृष्टि से परिचित नहीं, इसलिए किस प्राणी के किस कर्म का प्रभाव प्रकृति के किस स्तर पर कैसा पडता है, यह निर्णय करना मनुष्य के सामर्थ्य के बाहर है । अतः वेद जिन कर्मों को शुभ या उपादेय बताते हैं, उनका प्रभाव पूर्णतया सृष्टि-पोषक, मंगलमय एवं कल्याणकारी होता है और जिन कर्मों को वेद अशुभ या हेय निर्देश करते हैं, उनका प्रभाव सृष्टि के लिए अवश्य ही अमंगलकारी होता है ।’ (क्रमशः)
– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा, वरिष्ठ शोधकर्ता एवं भारतीय संस्कृति के अध्ययनकर्ता (साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’)