मनु, चाणक्य और बृहस्पति द्वारा विकसित भारतीय न्याय व्यवस्था ही भारत के लिए योग्य !

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अब्दुल नजीर का प्रतिपादन !

  • उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति ने यह विचार व्यक्त किए होंगे, तो भी भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी, ढोंगी आधुनिकतावादी यह स्वीकार नहीं करेंगे और इस विचार को ‘स्वयं को अधिक समझता है’ इस मनोदशा में विरोध करेंगे !  – संपादक
  • न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण करने के लिए शासनकर्ता कदम उठाएंगे क्या ?  – संपादक
  • ‘मनुस्मृति’ समाज में दूरी निर्माण करती है’, ‘स्त्रियों को हीनता से देखती है’, ऐसा कहते हुए ऋषि मनु की आलोचना करनेवाले कथित बुद्धिवादी और धर्मनिरपेक्षतावादियों को उनकी महानता समझ में आएगी, वह सौभाग्यशाली दिन होगा !  – संपादक

     नई दिल्ली – कानून के विद्यार्थियों को अब पूंजीवादी भूमिका से बाहर निकलने की आवश्यकता है । मनु, चाणक्य और बृहस्पति द्वारा विकसित की हुई पुरातन भारतीय न्याय व्यवस्था ही भारत के लिए योग्य है, ऐसा मत उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अब्दुल नजीर ने व्यक्त किया है । अखिल भारतीय अधिवक्ता महासंघ की राष्ट्रीय परिषद में वे बोल रहे थे ।

न्यायमूर्ति नजीर ने आगे कहा कि,

१. जब भारत में पश्चिमी न्यायशास्त्र लागू किया गया, तब केवल सत्ताधारी वर्ग को न्याय उपलब्ध हुआ । सामान्य व्यक्ति न्याय नही मांग सकता । प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति किसी भी बात के विरुद्ध न्याय मांग सकता है ।

२. न्याय व्यवस्था में भारतीयकरण के लिए प्रयास करने चाहिए । अब आधुनिक न्यायशास्त्र के स्थान पर भारत की प्राचीन न्यायशास्त्र द्वारा बताए विचारों की ओर ध्यान देना चाहिए । कानून का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए प्राचीन भारतीय न्याय प्रणाली अनिवार्य विषय के रुप में सम्मिलित करना चाहिए । प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था में, कोई व्यक्ति किसी भी बात के विरुद्ध न्याय मांग सकता है । राजाओं को भी कानून के राज्य के आगे झुकना पडा था । सत्ताधारी वर्ग के विरोध में भी न्याय मांगने का अधिकार था ।

३. पश्चिमी विचार, यह अधिकारों के विषय में है, तो भारतीय विचार, यह दायित्व पर आधारित है ।

४. प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई व्यक्ति जितना अधिक दायित्व स्वीकार करेगा, उतनी मात्रा में उसे अधिकार दिये जाते थे । अधिकार यह दायित्व निभाने के साधन थे ।

५. पश्चिमी न्यायशास्त्र अलग है । पश्चिमी न्याय व्यवस्था में दायित्वों पर बहुत कम जोर दिया जाता है । इस व्यवस्था में अधिकार को प्रधानता दी जाती है । इस व्यवस्था में नागरिकों को अपने अधिकार पाने के लिए अपने दायित्व निभाने चाहिए, ऐसी आवश्यकता नहीं । इसका विवाह जैसी सामाजिक संस्थापर महत्वपूर्ण परिणाम होता है ।

६. भारतीय न्यायशास्त्रानुसार विवाह  एक कर्तव्य है । अनेक सामाजिक कर्तव्यों में से विवाह भी एक कर्तव्य है, जो सभी को निभाना चाहिए; परंतु पश्चिमी न्यायशास्त्र के अधिकारों के कारण विवाह की ओर एक संधि की भांति देखा जाता है । इस संधि से प्रत्येक जोडीदार उसको या उसे संभव जितना मिल सके पाने का प्रयास करता है । *तलाक की उच्च दर* यह विवाह के कर्तव्य के पहलू की और दुर्लक्ष करने का परिणाम है । (३०.१२.२०२१)