वृद्धावस्‍था की पूर्वसिद्धता के रूप में अभी से स्‍वयं को मनोलय की प्रकृति(आदत)लगाएं और परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी की प्रेरणा से स्‍थापित आध्‍यात्मिक संस्‍था निर्मित करनेवाले ‘साधक-वृद्धाश्रमों’ का महत्त्व समझिए !

 १. वृद्धावस्‍था में मन के संघर्ष का सामना कर पाने के लिए अभी से स्‍वयं में मनोलय की प्रकृति विकसित करें !

१ अ. वृद्धावस्‍था की कुछ समस्‍याएं और दुःख : ‘वृद्धावस्‍था में स्‍वयं में विशेष कुछ करने की शारीरिक क्षमता न रहने से छोटी छोटी बातों के लिए भी परिजनों पर निर्भर रहना पडता है । कभी कभी कुछ वस्‍तुएं क्रय करने के लिए पैसे भी परिजनों से मांगने पडते हैं । परिजन जो भी खाने-पीने देते हैं, उसी में संतुष्‍ट रहना पडता है । परिजन जैसे रखें, वैसे रहना पडता है । वृद्धावस्‍था में शारीरिक रोग भी बहुत बढ जाते हैं और आयु के अनुसार उनके उपचारों पर भी मर्यादाएं आ जाती हैं । ऐसे में उन व्‍याधियों को सहने के अतिरिक्‍त पर्याय नहीं रह जाता।

प्राय: घूमना-फिरना न होने से एक ही स्‍थान पर बैठे रहना पडता है; इससे अकेलापन बढता है । अधिकांश घरों में पाया जाता है कि परिजन उनके वृद्ध माता-पिता को संभालने का काम ‘अब हमें यह विवश होकर करना ही पडेगा’, इस भावना से करते हैं । इस कारण उनमें प्रेमभावना नहीं रहती । कभी कभी तो परिजन उनके वृद्ध माता-पिता को संभालने से बचने के लिए उन्‍हें वृद्धाश्रम में रखने का दुष्‍कृत्‍य भी करते हैं । इन सबके कारण वृद्धावस्‍था में मन का बहुत संघर्ष होता है अथवा कभी-कभी तीव्र निराशा भी आती है ।

१ आ. युवाआें, ‘कल आप भी वृद्ध होंगे’, यह ध्‍यान में लेकर आज ही सजग हो जाइये !

परात्पर गुरु डॉ. आठवले

१. ‘माता-पिता देवतासमान हैं’, अपनी हिन्‍दू संस्‍कृति ऐसा सिखाती है । आज के युवा इस पर गंभीरता से विचार करें कि कहीं ‘उनके अयोग्‍य आचरण से माता-पिता दु:खी तो नहीं हो रहे हैं’, ऐसा करना पाप है और इस पाप का फल भुगतना ही पडता है ।

२. आज के युवाआें द्वारा ‘भविष्‍य में उनके बच्‍चों से उनके प्रति अयोग्‍य वर्तन (व्‍यवहार)न हो’, इसलिए बच्‍चों पर अभी से अच्‍छे संस्‍कार डालने की आवश्‍यकता है ।

३. आज के युवाआें को ‘अपने वृद्धावस्‍था में भुगतनेवाली संभाव्‍य समस्‍याआें का सहजता से सामना करने के लिए अभी से तैयारी करनी चाहिए । उन्‍हें अपने खाने-पीने और घूमने-फिरने की रुचि को मर्यादित कर; ‘सबकुछ मेरे मनानुसार ही हो’, ऐसी वृत्ति छोडकर ‘परिस्‍थिति न स्‍वीकारना’, ‘दूसरों से तालमेल न बिठाना’, ‘दूसरों से अपेक्षा रखना’, जैसे स्‍वभावदोषों पर नियंत्रण रखने का प्रयास करना चाहिए ।

संक्षेप में, स्‍वयं को मनोलय की प्रकृति में लाकर किसी भी परिस्‍थिति में आनंदी रहना सीखकर साधना करने का प्रयास करें । ‘सनातन संस्‍था’ साधना पर योग्‍य मार्गदर्शन देती है ।

२. ‘साधक-वृद्धाश्रम’ निर्मित हो, परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी को ऐसा लगने के कारण

पू. संदीप आळशी

अ. सनातन के आश्रम में पूर्णसमय सेवा करनेवाले कुछ साधक अब रुग्‍णाईत अथवा वृद्ध हैं ।
आ. अबतक घर में रहकर साधना करनेवाले जिन साधकों ने सर्वस्‍व का त्‍याग किया और साधना की, ऐसे साधकों का मन वृद्धावस्‍था में संतान के घर रहकर पोता-पोतियों के साथ खेलना, घर में चल रहे दूरचित्रवाणी के कार्यक्रम देखना, माया सेसंबंधित बातचीत करना आदि में मन नहीं रमता । उन्‍हें साधना छोडकर अन्‍य सबकुछ अवांछित लगता है । ‘आजीवन अच्‍छी साधना हो’, इस उद्देश्‍य से ऐसे साधकों को आश्रम में बुलाया जाता है । आजकल ऐसे कुछ लोग आश्रम में रह रहे हैं ।

इ. जिन साधकों ने साधना के लिए पूर्णसमय त्‍याग किया है, ऐसे लोगों के वृद्ध माता-पिता को असुविधा न हो, इसके लिए उन्‍हें भी रहने के लिए आश्रम में बुलाया जाता है । आजकल आश्रम में कुछ ऐसे वृद्ध भी रह रहे हैं ।
परात्‍पर गुरु डॉक्‍टरजी ने सनातन के साधकों को सहसाधकों और उनके परिजनों के प्रति भी ‘अपने परिजन’ जैसा भाव रखने सिखाया है । इससे सनातन के आश्रम में सभी परिवारभाव से रहते हैं । परात्‍पर गुरु डॉक्‍टरजी की सीख के कारण आश्रम के साधक रुग्‍ण अथवा वृद्ध साधकों का खाना-पीना, औषधियां आदि सब प्रेम और सेवाभाव से करते हैं ।

इस कारण रुग्‍ण अथा वृद्ध साधकों के मन पर कोई दबाव नहीं रहता तथा उन्‍हें आश्रम में रहने में संकोच नहीं होता और वे आनंद से रहते हैं । सनातन के साधक ‘रुग्‍ण अथवा वृद्ध साधकों का सब कुछ करना सेवा भाव से करते हैं, इसलिए साधकों की साधना होती है ।

परात्‍पर गुरु डॉक्‍टरजी का मन आकाश जितना व्‍यापक, प्रेमभाव सागर जितना गहरा और ‘सभी बिना किसी अडचन के साधना कर ईश्‍वरप्राप्‍ति कर सकें’, हिमालय जैसी उत्तुंग ऐसी लगन है । इसी कारण परात्‍पर गुरु डॉक्‍टरजी को साधक-वृद्धों की सुविधा के लिए प्रथम भारत के प्रत्‍येक राज्‍य में और आगे चलकर प्रत्‍येक जनपद में ‘साधक-वृद्धाश्रम’ निर्मित हों, ऐसा लगता है । परात्‍पर गुरु डॉक्‍टरजी द्वारा स्‍थापित अथवा उनकी प्रेरणा से स्‍थापित आध्‍यात्मिक संस्‍थाएं शीघ्र ही वैसे प्रयास करनेवाली हैं । ऐसे परात्‍पर गुरु डॉक्‍टरजी के चरणों में साधक कितनी भी कृतज्ञता व्‍यक्‍त करें, वह अधूरी ही रहेगी ।’

– (पू.) श्री. संदीप आळशी (२०.८.२०१९)