महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय की ओर से आयोजित कार्यशाला में जिज्ञासुआें के लिए परात्पर गुरु डॉ.आठवलेजी का मार्गदर्शन

 

परात्पर गुरु डॉक्टरजी स्पिरिच्युअल साइन्स रिसर्च फाउंडेशन संस्था के प्रेरणास्रोत हैं । पूरे विश्‍व में अध्यात्मप्रसार करने हेतु उन्होंने महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय की स्थापना की है । इस विश्‍वविद्यालय की ओर से भारत के आध्यात्मिक शोधकेंद्र, गोवा में ५ दिनों की आध्यात्मिक कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं । इन कार्यशालाआें का उद्देश्य है, जिज्ञासुआें को साधना के प्रायोगिक भाग की जानकारी देकर उनकी साधना को गति प्रदान करना। परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा इन कार्यशालाआें में उपस्थित जिज्ञासुआें का किया गया मार्गदर्शन आगे दिया है। (भाग ३)

१ इ.गुरुकृपायोग के अनुसार साधना का महत्त्व !

१ इ ३.अध्यात्म का प्रसार होने हेतु आध्यात्मिक लेखन का अनुवाद करना, गुरुकृपा संपादन करने की सर्वोत्तम सत्सेवा है !

श्री. शॉन क्लार्क : श्रीमती मामी को जपानी भाषा में अनुवाद करने की सेवा करनी है ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : अध्यात्मप्रसार करने का यह सर्वोत्तम मार्ग है । ग्रंथ सहस्रों लोगों तक पहुंचते हैं । किसी एक नगर में जाकर हम अधिक से अधिक ५००,१०००,१५०० लोगों को साधना के विषय में बता सकते हैं; परंतु ग्रंथ सर्वत्र पहुंच सकते हैं । एसएसआरएफ के कारण ही आप यहां पहुंच पाए । यदि अध्यात्मप्रसार के लिए श्री. शॉन क्लार्क (एसएसआरएफ जालस्थल के संपादक)या एसएसआरएफ के सद्गुरु सिरियाक वाले पूरे विश्‍व में भ्रमण करते,तो कितने लोगों को संपर्क कर सकते थे ?इसके विपरीत प्रतिवर्ष १० लाख लोग एसएसआरएफ का जालस्थल देखते हैं । इसलिए आध्यात्मिक लेख का अनुवाद करना अध्यात्मप्रसार का सर्वोत्तम मार्ग है; परंतु यह सेवा करते समय, मैंने अनुवाद किया यह भूलकर ईश्‍वर मेरी सहायता कर रहे हैं, ऐसा भाव रखना चाहिए । मन में केवल अनुवाद करना है, यह विचार न रख उस समय जो सीखा, घर जाकर उसे तुरंत आचरण में लाना चाहिए । ऐसा करने पर लेखों का अनुवाद करने की सेवा कितनी महत्त्वपूर्ण है,यह आपके ध्यान में आएगा । इसलिए कि यह सेवा करते समय हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है । ऐसे तो हम ग्रंथ पढते हैं; परंतु जब हम यथार्थ रूप से उसका अध्ययन करते हैं, तब इस अध्ययन से ही हम साधना में आगे बढते हैं । आप अध्यात्मप्रसार के लिए जाएंगे, तो जिज्ञासु आपसे अनेक प्रश्‍न पूछेंगे । यदि आपको उनकी सभी शंकाओं का निराकरण करना संभव हुआ, तो अध्यात्म एवं आपके द्वारा बताई गई साधना पर उन्हें विश्‍वास होगा । इस प्रकार आपकी आध्यात्मिक उन्नति होगी एवं आप ईश्‍वर के अधिक निकट जाएंगे ।

१ इ ४. गुरुकृपायोग के अनुसार प्रामाणिकता से १ -२ वर्ष सेवा करने पर साधना की शेष कालावधि में निश्‍चित रूप से उन्नति होगी !

श्री.ट्रंग वेन : साधना में लगन, साधना एवं सत्सेवा की गंभीरता बढाने के लिए क्या करना चाहिए ?

परात्पर गुरु डॉ.आठवलेजी : जब हम प्रामाणिकता से साधना करते रहते हैं, तो धीरे-धीरेे हमें १ -२ प्रतिशत आनंद अनुभव करना संभव होता है । एक बार हमने इसका अनुभव किया, तो इसके पश्‍चात हम पूर्व की अस्थिर स्थिति में नहीं जाते । भौतिक जीवन में हमें सुख मिलता है, आनंद नहीं । सुख और आनंद में अंतर है । इसलिए गुरुकृपायोग के अनुसार अष्टांग साधना के अंतर्गत स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन, नामजप, सत्सेवा, सत्संग, भावजागृति, त्याग एवं प्रीति के लिए प्रयास करना चाहिए । १ -२ वर्ष तक प्रामाणिकता से यह प्रयास अनवरत करने पर आप कुछ मात्रा मेंं आनंद का अनुभव करेंगे । इसके उपरांत आप कभी पीछे नहीं मुडेंगे, आगे ही जाएंगे ।

१ इ ५. निरंतर उत्तरदायी साधकों सेे पूछकर एवं शंकाओं का निराकरण कर साधना के अगले चरण का अवलंब करें !

श्रीमती श्‍वेता क्लार्क : श्री.सागर जोशी कुछ समय अमेरिका में थे । अब वे पुणे में रहते हैं ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : अमेरिका से भारत आने पर आपको क्या प्रतीत हुआ ?

श्री.सागर जोशी ः अमेरिका एवं भारत में बहुत अंतर है । मैं जब अमेरिका में था,तब साधना अथवा कुछ तो अच्छा करने का मन में विचार आता था; परंतु वैसा न कर मैं उद्यान अथवा अन्यत्र जाना जैसी भौतिक कृतियों में उलझा रहा । भारत आने पर अपनेआप मेरा नामजप होने लगा, यह एक बडा अंतर है । यहां आने पर ऐसा प्रतीत हुआ मानो ईश्‍वर ने पुनः मुझे आध्यात्मिक जीवन की ओर प्रेरित किया । आश्रम में आने के पश्‍चात मेरे मन की सभी शंकाओं का निराकरण हुआ । यहां मार्गदर्शन करनेवाले साधकों से अच्छा मार्गदर्शन मिला एवं मेरी सभी शंकाओं का निराकरण हुआ ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : सुख कनिष्ठ स्तर का होता है । वह भौतिक अथवा सांसारिक सुख से संबंधित है । साधना से अनुभव होनेवाला आनंद मन एवं बुद्धि के परे होता है । हम आनंदावस्था में रहते हैं,तब हमारे मन में कोई प्रश्‍न नहीं रहते । आनंदावस्था का अर्थ है सत्-चित्-आनंद । जब हम इस अवस्था में होते हैं,तब हमें अंतर्मन से ही सभी प्रश्‍नों के उत्तर मिलते हैं । ईश्‍वर के आंतरिक सान्निध्य में रहने के कारण हम आनंदावस्था में रहते हैं । उनके आंतरिक सान्निध्य में रहने से हमेंं किसी ग्रंथ अथवा जालस्थल देखने की आवश्यकता नहीं होती । हमें वह भीतर से ही मिलता है ।

श्री.सागर जोशी ः इससे पूर्व मैं प.पू.वरदानंद भारतीजी (पूर्वाश्रम के प्रा.अनंत दामोदर आठवलेजी)के मार्गदर्शन में साधना करता था । एसएसआरएफ के संपर्क में आने पर मुझे कौन सी साधना करनी चाहिए, इस दुविधा में था । आपको देखने पर मुझे उनका (प.पू.वरदानंद भारतीजी का) स्मरण हुआ । आपके रूप में मुझे वे ही दिखाई देते हैं । एक बार मैंने पू.काळे दादी (सनातन संस्था की ५८ वीं संत पू.विजयालक्ष्मी काळेजी) से सनातन संस्था एवं एसएसआरएफ द्वारा बताई गई साधना के संबंध में पूछा था । उस समय उन्होंने गुरुतत्त्व कैसे एक रहता है ?इस विषय में बताया था। उसके बाद मेरे मन में कोई शंका शेष नहीं रही ।

परात्पर गुरु डॉ.आठवलेजी : गुरुतत्त्व आनंदावस्था में होता है । वह सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापी होता है । सत्-चित्-आनंद उसका गुणधर्म रहता है । अतः यद्यपि हमारी स्थूल आंखों को गुरु अलग-अलग व्यक्तियों के रूप में दिखाई देते हैं, तब भी प्रत्यक्षत:तत्त्व रूप में वे एक ही होते हैं ।

परात्पर गुरु डॉ.आठवलेजी : अध्यात्म अनंत का शास्त्र है। प्रश्‍न ही पूछते रहेंगे तो ईश्‍वर को समझने में अनेक जन्म व्यर्थ जाएंगे । उसी प्रकार प्रत्येक प्रश्‍न को एक प्रतिप्रश्‍न रहता ही है । अतः उन प्रश्‍नों का अंत ही नहीं है । अध्यात्म में बताई गई साधना क्यों और कैसे ? के परे जाकर करनी चाहिए । आप तो,कुछ पूछना ही नहीं है, इस स्थिति में पहुंच गए हैं ।

(सबको उद्देशित कर) आध्यात्मिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है, यह ध्यान में रखना चाहिए । इसलिए आप श्री. सागर समान न करें। आपके मन में जो भी शंकाएं हैं, वे कार्यशाला के उत्तरदायी साधकों से पूछें । उन उत्तरों से आपके मन का समाधान होना आवश्यक है । (क्रमश:)