महर्षि अध्‍यात्‍म विश्‍वविद्यालय की ओर से आयोजित कार्यशाला में जिज्ञासुओं का परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने किया मार्गदर्शन

 

परात्‍पर गुरु डॉक्‍टरजी ‘स्‍पिरिचुअल साइंस रिसर्च फाउंडेशन’ संस्‍था के प्रेरणास्रोत हैं । उन्‍होंने समूचे विश्‍व में अध्‍यात्‍म का प्रचार करने के लिए ‘महर्षि अध्‍यात्‍म विश्‍वविद्यालय’ की स्‍थापना की है । इस विश्‍वविद्यालय की ओर से गोवा, भारत में स्‍थित आध्‍यात्‍मिक शोध केंद्र में, ५ दिनों की आध्‍यात्‍मिक कार्यशाला आयोजित की गई थी । इस कार्यशाला का उद्देश्‍य था जिज्ञासुओं को साधना के प्रायोगिक अंगों की जानकारी देकर उनकी साधना को गति देना । परात्‍पर गुरु डॉक्‍टरजी ने इस कार्यशाला के जिज्ञासुओं का जो मार्गदर्शन किया था, वह आगे दे रहे हैं । (भाग २)

१. साधना

१ आ ४. आध्‍यात्‍मिक प्रगति करनी हो, तो पूर्वजन्‍मों के लेन-देन का विचार न कर, वर्तमानकाल में रहना चाहिए !

श्रीमती रुचि गोल्‍लामुडी : पिछले १० – १५ वर्ष से मुझे ‘स्‍लिप पैरालिसिस’ (नींद में अंग अकडना) है । पहले मुझे यह कष्‍ट १५ दिन में एक बार होता था; परंतु पिछले एक वर्ष से कष्‍ट की मात्रा घट गई है और अब यह कष्‍ट ३ से ६ महीने में एक बार होता है; इसलिए आनंदित रहती हूं । पहले जब मुझे यह कष्‍ट होता था, तब प.पू. भक्‍तराज महाराजजी को पुकारती थी; अब कष्‍ट होने पर आपका (परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी का) स्‍मरण कर, नामजप करती हूं । पिछले अनेक वर्षों से मुझे यह कष्‍ट हो रहा है; परंतु अभी भी वह क्‍यों नहीं थम रहा है ? मुझे जकडनेवाली यह सूक्ष्म शक्‍ति इतनी प्रबल क्‍यों है ?

परात्‍पर गुरु डॉ. आठवले : ‘यह शक्‍ति प्रबल क्‍यों है ?’, यह विचार न कर, इसका कारण समझने का प्रयत्न करना चाहिए । साधना करते समय ऐसी घटनाओं को बहुत महत्त्व नहीं देना चाहिए । मैं आपको एक कथा सुनाता हूं । दक्षिण भारत से एक साधक मुझे मिलने आया था । उस समय उसका एक पैर कटा हुआ था । जब मैंने उससे पूछा कि यह कैसे हुआ, तब उसने कहा, ‘‘एक दिन मैं दुपहिया वाहन से कहीं जा रहा था । मेरे सामने एक ट्रक चल रहा था । अचानक वह रुक गया । इससे मेरा वाहन उससे टकरा गया और नीचे गिर गया । उससे एक पैर की हड्डी टूटी । इसलिए यह पैर काटना पडा ।’’ उस समय ‘ट्रकचालक अचानक क्‍यों रुका’, इस विषय में उस साधक ने दुर्घटना स्‍थल पर जमे लोगों की बातचीत सुनी । वह ट्रकचालक लोगों को बता रहा था कि उस समय एक गाय सडक पार कर रही थी । उसे बचाने के लिए ट्रक अचानक रोकना पडा ।

यह साधक स्‍वस्‍थ होने पर एक ज्‍योतिषी से मिला और उसने उनसे पूछा, ‘‘मुझसे ऐसी कौन-सी चूक हुई, जिससे मुझे अपना पैर गंवाना पडा ?’’ उस ज्‍योतिषी ने कहा, ‘‘पिछले जन्‍म में आपने एक गाय के पैर पर पत्‍थर मारकर उसे घायल किया था । इससे लेन-देन का गणित बना, जिसका भुगतान इस जन्‍म में पैर गंवाकर करना पडा । इसलिए गाय के कारण आपको एक पैर गंवाना पडा ।’’ मैंने उस साधक से कहा, ‘‘ज्‍योतिषी से पूछें कि पिछले जन्‍म में मुझे गाय को पत्‍थर क्‍यों मारना पडा ?’’ यह न समाप्‍त होनेवाली कथा है । इसलिए ‘वर्तमान काल में रहना’ सर्वोत्तम है । क्‍यों और कैसे ?, ये कभी समाप्‍त न होनेवाले प्रश्‍न हैं । ऐसे ज्ञान केवल सैद्धांतिक होते हैं, आध्‍यात्‍मिक प्रगति के लिए इनसे कोई लाभ नहीं होता ।

१ इ. गुरुकृपायोगानुसार साधना का महत्त्व !

१ इ १. दैनिक जीवन का आध्‍यात्‍मीकरण, ‘गुरुकृपायोग’ है !

श्रीमती श्‍वेता क्‍लार्क : महर्षि अध्‍यात्‍म विश्‍वविद्यालय की कार्यशाला में आने से पहले श्रीमती प्रेमा हेर्नांडेज के मन में कुछ शंकाएं थीं । उन्‍हें अन्‍य साधनामार्ग के अनुसार साधना करनी थी; परंतु अब उनमें गुरुकृपायोगानुसार साधना के प्रति श्रद्धा उत्‍पन्‍न हुई है । इसलिए, अब उन्‍हें इसी मार्ग से साधना करनी है ।

परात्‍पर गुरु डॉ. आठवले : अध्‍यात्‍म में सबके लिए एक साधनामार्ग नहीं हो सकता । डॉक्‍टर प्रत्‍येक रोगी को एक ही औषधि नहीं देते, आवश्यकतानुसार (उदा. मधुमेह, अस्थिभंग, हृदयविकार, मोतिबिंदु आदि रोगानुसार) अलग-अलग औषधि देते हैं  । उसी प्रकार, प्रत्‍येक की प्रकृति अनुसार उसका साधनामार्ग पहले से निश्‍चित रहता है । ‘गुरुकृपायोग’ और अन्‍य साधनामार्ग में यही भेद है । गुरुकृपायोग में अध्‍यात्‍म के सैद्धांतिक भाग की अपेक्षा प्रायोगिक भाग पर अधिक बल दिया जाता है । अध्‍यात्‍म की सैद्धांतिक जानकारी बतानेवाले सहस्रों ग्रंथ हैं; उन्हें पढकर सैद्धांतिक ज्ञान समझा जा सकता है । गुरुकृपायोग में ज्ञान के सैद्धांतिक भाग को आचरण में लाना सिखाया जाता है । उसके अनुसार साधना करने पर आध्यात्‍मिक प्रगति शीघ्र होती है । उसके पश्चात, आप समझ सकेंगे कि ग्रंथ में क्या नहीं है । अध्यात्‍म का सैद्धांतिक भाग आप प्रत्यक्ष अनुभव कर सकेंगे । ग्रंथों में वर्णन की सीमा होती है; क्योंकि वह शब्द रूप में होता है; परंतु ईश्वर शब्द़ों के परे हैं ।

१ इ २. अन्‍य देशों में अध्‍यात्‍म का प्रचार कर, वहां के लोगों का मानवजन्‍म सार्थक करें !

श्रीमती मामी सुमगरी : मैं आश्रम में पहली बार ही आई हूं । जापान से आनेवाले मेरे जैसे नए साधकों का कृपया मार्गदर्शन करें ।

परात्‍पर गुरु डॉ. आठवले : आप दूसरे देश में जाकर अध्‍यात्‍म प्रचार का बीज बोएं । पश्‍चात, वहां अध्‍यात्‍म का वृक्ष बढेगा । किसी भी देश, नगर अथवा परिसर में अकेले रहकर साधना करना कठिन होता है । लोगों के साथ रहकर साधना करना सरल होता है । आश्रम में लगभग २५० साधक रहते हैं । प्रत्येक साधक दूसरों की साधना की ओर ध्यान द़ेता है और उनकी सहायता करता है । अपने घर में हम अपने मन के अनुसार आचरण करते हैं; परंतु आश्रम में ऐसा नहीं चलता । आप जब स्वदेश लौटेंगे, तब वहां के लोगों के मन में अध्यात्म के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न कीजिएगा; क्योंकि साधना न करनेवाला व्यक्ति पशु समान होता है । वह मनुष्य देहधारी प्‍राणी होता है । हममें और कुत्ते अथवा घोडे में क्या अंतर है ? ईश्वर ने हमें बुद्धि दी है । अनेक साधकों और संतों ने साधना कर आध्यात्मिक प्रगति की है । इसलिए, जब तक हम साधना नहीं करेंगे, तब तक ‘मानव’ कहलाने के योग्य नहीं होंगे । यह दृष्टिकोण अपनाकर हमें अध्यात्म का प्रचार करना है । ईश्वर संपूर्ण विश्व का निर्माता है । कोई साधक केवल अपने लिए ध्यान-धारणा करता होगा, तो ईश्वर को उसके विषय में उतना अपनत्व नहीं लगेगा । इसके विपरीत, जब कोई साधक समाज में जाकर दूसरों को साधना का महत्त्व बताता होगा, तो थोडा ही क्यों न हो, वह ईश्वर का कार्य करता है । उसके मन में केवल ईश्वर का विचार रहता है, जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । अध्यात्म का ‘अ’ समझने पर, द़ूसरों को भी ‘अ’ सिखाइए; ‘आ’ समझने पर ‘आ’ सिखाइए । अध्यात्म सिखाने के लिए आध्‍यात्‍मिक गुरु बनने की आवश्यकता नहीं है । आप जो कुछ सीखते हैं, उसका प्रचार करें । अध्यात्म में प्रगति करने के पश्चात, सब बातों की जानकारी हो जाती है । इसलिए, समाज में जाकर लोगों को अध्यात्म की ओर मोडने की इच्छा नहीं होती । हम सदैव ईश्वर के अनुसंधान में लगे रहते हैं, अर्थात आनंदावस्था में रहते हैं । उस अवस्था से बाहर आकर अध्यात्मप्रचार करने की इच्छा नहीं होती । इसलिए, ‘अभी दूसरों को साधना बताना’, हमारी साधना का अंग है ।

परात्‍पर गुरु डॉ. आठवले (पू. (श्रीमती) भावना शिंदे की ओर देखकर) : आप बताएं कि अध्‍यात्‍मप्रचार कैसे करती हैं ।

पू. (श्रीमती) भावना शिंदे : हम कनाडा में विविध आध्‍यात्मिक विषयों पर प्रवचन और सत्संग करते हैं । उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम आए हुए जिज्ञासुआें को प्रेम देने का प्रयत्न करते हैं । आध्यात्मिक ज्‍ञान तो बहुत है और वह अनेक लोग दे सकते हैं; परंतु जिज्ञासुआें को जो तीव्रता से अनुभव होता है, वह है, ‘प्रेमभाव’ । वे हमसे कहते हैं, ‘‘एसएसआरएफ के साधकों से हमें जो प्रेम मिलता है, उसकी तुलना किसी भी संस्था से मिलनेवाले प्रेम से नहीं की जा सकती ।’’ इसका कारण यह है कि हम उनके प्रश्‍नों के उत्तर ढूंढने में उनकी सहायता करते हैं । हमारे इस प्रेमपूर्ण व्‍यवहार के कारण ही वे हमारा साथ देते हैं ।

परात्‍पर गुरु डॉ. आठवले : अब साधना के रूप में क्‍या करना है, यह सबके ध्‍यान में आया न ? आध्यात्मिक ज्ञान अपने तक सीमित न रखें; दूसरों को देते रहें । इससे भगवान आपकी सहायता करेंगे और आपकी साधना में प्रगति होगी । (क्रमशः)

इस अंक में प्रकाशित की गई अनुभूतियां ‘जहां भाव, वहां ईश्‍वर’ इस उक्‍ति अनुसार साधकों की व्‍यक्तिगत अनुभूतियां हैं । सभी को ऐसी अनुभूतियां होंगी ही, ऐसा नहीं है । – संपादक