आपस में उचित समन्वय रखकर वनस्पतियां साधकों ने कौन सी वनस्पतियां तथा कितनी मात्रा में एकत्रित की हैं, इसे लिखकर एकत्रित रखें । इस कारण यदि किसी को औषधि की आवश्यकता हो, तो उसकी आपूर्ति करना सरल होगा । किसी केंद्र में कुछ वनस्पतियां अधिक मात्रा में मिलें, तो जिन केंद्रों को उनकी आवश्यकता है, ऐसे पडोसी केंद्रों के साधकों को उन्हें भेजा जा सके । जिनके लिए संभव है, वे स्वयं के परिवार के लिए औषधीय वनस्पतियां एकत्रित करते समय केंद्र के जो साधक औषधीय वनस्पतियां एकत्रित नहीं कर सकते, उनके लिए अथवा निकटवर्ती आश्रम अथवा सेवाकेंद्र के लिए वनस्पतियां एकत्रित करें । यह करने से पहले उत्तरदायी साधकों से चर्चा करें, जिससे औषधियों की मात्रा के संबंध में समन्वय करना सरल होगा । शहरों में ये वनस्पतियां मिलेंगी ही, यह नहीं कह सकते । ऐसे समय में शहरों के निकट के गांवों में जाकर ये वनस्पतियां ला सकते हैं अथवा गांवों में आपके कोई परिचित निवास करते हों, तो उन्हें यह लेख भेजकर इन औषधीय वनस्पतियों का संग्रह करने के लिए कह सकते हैं । |
भावी भीषण विश्वयुद्ध के काल में डॉक्टर, वैद्य, बाजार में औषधियां आदि उपलब्ध नहीं होंगी । ऐसे समय हमें आयुर्वेद का ही आधार रहेगा । क्रमशः प्रकाशित होनेवाले लेख के इस भाग में ‘प्राकृतिक वनस्पतियों का संग्रह कैसे करना चाहिए’, इससे संबंधित जानकारी सहित गरखा और छकुंड (चक्रमर्द) इन २ वनस्पतियों की जानकारी समझते हैं । शीघ्र ही इस विषय पर सनातन का ग्रंथ प्रकाशित होनेवाला है । इस ग्रंथ में औषधीय वनस्पतियां एकत्रित कर संग्रहित करने से विस्तृत रूप में संबंधित व्यवहारिक (प्रत्यक्ष करने योग्य कृत्यों की) जानकारी दी जाएगी ।
१. वर्षा के उपरांत कुछ औषधीय वनस्पतियां
सूख जाती हैं, इसलिए उन्हें अभी से एकत्रित कर रखें !
‘प्रतिवर्ष वरुणदेवता की कृपा से वर्षा ऋतु में प्राकृतिक रूप से असंख्य औषधीय वनस्पतियां उगती हैं । इनमें से कुछ वनस्पतियां वर्षा ऋतु समाप्त होने पर साधारणतः १ – २ महीने में सूख जाती हैं । उसके पश्चात पुनः वर्षा ऋतु आने तक ये वनस्पतियां नहीं मिलतीं । इसलिए ऐसी वनस्पतियां अभी से एकत्रित कर रखनी चाहिए ।
२. औषधीय वनस्पतियां
एकत्रित कर रखने के लाभ
इस लेख में दी हुई औषधीय वनस्पतियों में से कुछ वनस्पतियां आयुर्वेदिक औषधियों की दुकानों में भी मिलती हैं; परंतु ऐसी वनस्पतियां खरीदने की अपेक्षा प्रकृति से एकत्रित करना अधिक उचित है । खरीदी हुई औषधियां ताजी होंगी ही, निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता । वनस्पतियां पुरानी हों, तो उनकी परिणामकारकता अल्प हो जाती है । बाजार में मिलनेवाली अधिकतर औषधियों में मिलावट होती है । उनमें धूल, मिट्टी और अन्य कचरा भी होता है । इसके विपरीत, जब हम स्वयं औषधीय वनस्पतियां एकत्रित करते हैं, तब वे ताजी और शुद्ध मिलती हैं । ऐसी वनस्पतियां हम धोकर रख सकते हैं । इसलिए वे स्वच्छ भी रहती हैं । वनस्पतियां एकत्रित कर ठीक से सुखाकर हवाबंद डिब्बे में सुरक्षित रखने से साधारणत: १ से डेढ वर्ष तक उनका उपयोग कर सकते हैं ।
३. वनस्पतियों की जानकारी होने के लिए
गांव के किसी जानकार अथवा परिचित वैद्य की सहायता लें !
छोटे गांवों के अधिकांश प्रौढ व्यक्तियों को अनेक औषधीय वनस्पतियों की जानकारी होती है । ऐसे व्यक्तियों को इस लेख में दी हुई वनस्पतियों के छायाचित्र दिखाकर वे वनस्पतियां कहां मिल सकती हैं, यह पूछकर इन वनस्पतियों को निश्चित रूप पहचान लीजिए । संभव हो तो अपने परिचित वैद्यों की सहायता भी ले सकते हैं । वैद्य औषधीय वनस्पतियां पहचानते ही हैं तथा उनका उपयोग कैसे करना है, इसका भी उन्हें ज्ञान होता है । एक कुशल वैद्य एक ही औषधीय वनस्पति का उपयोग विविध रोगों में प्रभावी रूप से कर सकता है । इस लेख में दी हुई वनस्पतियों के अतिरिक्त यदि कोई जानकार व्यक्ति अन्य वनस्पतियां बताता है, तो उनका भी उचित मात्रा में संग्रह कर रख सकते हैं ।
४. औषधीय वनस्पतियां एकत्रित
करने से संबंधित कुछ प्रायोगिक सूत्र
अ. घर से बाहर निकलने से पहले प्रार्थना करें और घर लौटने पर कृतज्ञता व्यक्त करें ।
आ. गंदगी, अपशिष्ट जल, दलदल, श्मशान भूमि आदि स्थानों पर उगी हुई वनस्पतियां एकत्रित न करें । जिस स्थान से औषधीय वनस्पतियां एकत्रित करनेवाले हैं, वह स्थान स्वच्छ होना चाहिए ।
इ. उस परिसर में प्रदूषण उत्पन्न करनेवाले, विशेषतः हानिकारक रासायनिक पदार्थ छोडनेवाले कारखाने नहीं होने चाहिए ।
ई. फफूंद अथवा कीडे लगी हुई तथा रोगी वनस्पतियां न लें ।
उ. विषैले वृक्ष पर लगी हुई औषधीय वनस्पतियां न लें, उदा. कजरा के वृक्ष पर लगी हुई गिलोय न लें ।
ऊ. जिस स्थान पर मन को कष्टदायक स्पंदन प्रतीत होते हों, उस स्थान की वनस्पतियां न लें ।
ए. वनस्पतियों की निश्चित पहचान हुए बिना वनस्पति न लें । गलत वनस्पतियों का उपयोग होने पर हानिकारक परिणाम भी हो सकते हैं । इसलिए जानकार व्यक्ति से वनस्पतियों की निश्चित पहचान करवाकर ही लें ।
ऐ. सूर्यास्त के उपरांत औषधीय वनस्पतियां न तोडें ।
५. औषधीय वनस्पतियां एकत्रित करने पर की जानेवाली प्रक्रिया
अ. एकत्रित की हुई वनस्पतियां रस्सी से एकत्रित बांधकर उन पर तुरंत नाम लिखकर थैली में भरें ।
आ. घर लाकर धोकर स्वच्छ कर लीजिए । वनस्पतियां धोते समय उनके बीज व्यर्थ न जाने दें । इसके लिए धोने से पहले उन्हें अलग निकालकर रखें । वनस्पतियां जड से उखाडी हों, तो उनकी जडें कैंची से काटकर पेड से अलग करें । जडों में मिट्टी लगी होती है । अतः जडें अलग से धोएं, जिससे उनकी मिट्टी अन्य वनस्पतियों पर न लगे ।
इ. वनस्पतियां स्वच्छ धोने के लिए उन्हें आधे से एक घंटे तक पानी में डुबोकर रखें । इससे उन पर लगी हुई धूल तथा अन्य मैल भीगकर शीघ्र अलग होने में सहायता होती है ।
ई. गीली वनस्पतियों के छोटे टुकडे करके रखें ।
उ. वनस्पतियां धोने के उपरांत धूप में अच्छे से सुखाएं । सुगंधित वनस्पतियों को धूप में न सुखाकर छाया में सुखाएं । सूखी हुई वनस्पतियों पर आगामी प्रक्रिया यदि तुरंत न करनी हो, तो उन्हें प्लास्टिक की थैलियों में नाम लिखकर सीलबंद कर रखें । सीलबंद की हुई वनस्पतियों की थैलियां हवाबंद डिब्बे में रखें ।
ऊ. सुखाई हुई वनस्पतियां अथवा उनके चूर्ण का उपयोग न किया जा रहा हो, तो निश्चित अवधि के पश्चात उनकी सुस्थिति का निरीक्षण करें ।
ए. वनस्पति के सूखे हुए छोटे टुकडों का मिक्सर में बारीक चूर्ण बनाकर रखें । मिक्सर में पीसे हुए चूर्ण को आटे की छलनी से छान लें । छलनी में जो सामग्री शेष रहती है, उसे पुनः एक बार मिक्सर में बारीक कर लें अथवा उसे अलग से थैली में रख दें । वनस्पति के चूर्ण को छानने के पश्चात जो मोटी सामग्री शेष रह जाती है, उसे ‘यवकूट चूर्ण’ कहते हैं । चूर्ण का उपयोग पेट में लेने अथवा लेप करने के लिए तथा यवकूट चूर्ण का उपयोग काढे के लिए कर सकते हैं । सर्व चूर्ण एकत्रित भरकर रखने के स्थान पर साधारणतः १५ चम्मच चूर्ण की छोटी-छोटी थैलियां भरें । प्रत्येक थैली पर चूर्ण का नाम और उत्पादन दिनांक लिखकर उन्हें सीलबंद कर हवाबंद डिब्बे में रखें । इससे चूर्ण अधिक सुरक्षित रहता है ।
६. वनस्पतियां एकत्रित करते समय
मिलनेवाले बीजों से उनकी रोपाई भी करें !
कुछ वनस्पतियां प्राकृतिक रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध हों, तो उनकी रोपाई करना इष्ट होता है । रोपाई करने से हमारी आवश्यकतानुसार कभी भी वे वनस्पतियां उपलब्ध हो सकती हैं । औषधीय वनस्पतियां एकत्रित करते समय उस वनस्पति का बीज भी अलग निकालकर रखें । जिनके लिए संभव हो, वे इन वनस्पतियों की रोपाई अपने आंगन अथवा कृषि भूमि पर करें । किन वनस्पतियों की रोपाई करनी चाहिए, आगे उस उस वनस्पति की जानकारी में यह दिया गया है ।
७. मार्ग से आते-जाते समय दिखाई देनेवाली
वनस्पतियों का निरीक्षण करने की आदत बनाएं !
हम आते-जाते अनेक वनस्पतियां देखते रहते हैं; परंतु हमें यह ज्ञात नहीं होता कि वे औषधीय वनस्पतियां हैं । इस लेख में दी हुई वनस्पतियां सर्वत्र दिखाई देती हैं । ये वनस्पतियां ऐसी हैं, जिन्हें मार्ग से आते-जाते सहजता से पहचाना जा सकता है । इनका तथा अन्य वनस्पतियों का निरीक्षण करने तथा उन्हें पहचानने की हमें आदत बना लेनी चाहिए, जिससे भीषण आपातकाल में हम उनका उपयोग कर पाएं ।
८. वनस्पतियों की जानकारी पढते समय उपयुक्त कुछ सूचनाएं
अ. आगे दी हुई वनस्पतियों की जानकारी में वनस्पति का लैटिन नाम और कुल भी दिया है । ये आधुनिक वनस्पति शास्त्र की संज्ञा हैं । इनके द्वारा अंतरजाल पर (इंटरनेट पर) इन वनस्पतियों से संबंधित अधिक जानकारी खोजना सरल होता है ।
आ. आरंभ में औषधीय वनस्पतियों के उपयोग दिए हैं । प्रौढ व्यक्तियों के लिए वनस्पतियों के चूर्ण आदि का उपयोग साधारणतः कितनी मात्रा में करना चाहिए, यह उसके आगे के उपसूत्र में दिया है । ३ से ७ आयुवर्ग के लिए प्रौढ मात्रा का चौथाई तथा ८ से १४ आयुवर्ग के लिए प्रौढ मात्रा की आधी मात्रा में औषधि लें ।
इ. औषधि की उपयुक्तता के अनुसार ४ व्यक्तियों के परिवार के लिए ताजी (सूखी हुई नहीं !) वनस्पति कितनी मात्रा में एकत्रित करनी चाहिए, यह यहां दिया है । यह केवल दिशादर्शक अनुमान है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार वनस्पतियां संग्रहित करे ।
ई. जहां औषधि की मात्रा चम्मच में दी है, वहां मध्यम आकार का चम्मच लें ।
९. वर्षा ऋतु में प्राकृतिक रूप से उगनेवाली और
उसके उपरांत सूख जानेवाली औषधि वनस्पतियां
९ अ. मुर्गा फूल
९ अ १. वैकल्पिक हिन्दी नाम : गरखा, मोरशिखा
९ अ २. संस्कृत नाम : शितिवार
९ अ ३. लैटिन नाम : Celosia argentea
९ अ ४. कुल : Amaranthaceae
अ. औषधीय उपयोग
१. यह वनस्पति सर्व प्रकृति के लोगों के लिए उपयुक्त और किसी भी प्रकार की हानि न करनेवाली है ।
२. पथरी और मूत्र की समस्याआें पर यह नामी औषधि है । पथरी के लिए बीज अधिक उपयुक्त है । पथरी तथा रुका हुआ मूत्र होने के लिए १ चम्मच मिश्री के साथ १ चम्मच बीज खाएं ।
३. इस वनस्पति का गुणधर्म शीतल है तथा यह शरीर में किसी भी कारण से बढी हुई उष्णता अल्प करनेवाली है । खसरा, छोटी माता (चिकन पॉक्स), हार्पिस (नागिन) आदि विकारों से शरीर में उत्पन्न उष्णता, एलोपैथी औषधियों के कारण होनेवाली उष्णता, आंखें आना (आईफ्लू), मुंहासे, शरीर पर फुंसियां होना, खूनी बवासीर, मासिक धर्म अथवा अन्य समय योनिमार्ग से अधिक रक्तस्राव होना, मूत्र में जलन तथा चक्कर आना जैसी उष्णता के विकारों में अत्यधिक उपयुक्त है ।
४. यह रक्त (हीमोग्लोबिन) बढाने और थकान दूर करनेवाली है । इसमें लौह, चूना (कैल्शियम), जस्ता (जिंक), पोटाश (पोटेशियम) आदि खनिज विपुल मात्रा में होते हैं । इसकी सब्जी भोजन में रखनी चाहिए ।
५. आंखों के विकार, अतिसार (जुलाब), सफेद पानी (ल्यूकोरिया) की शिकायत, त्वचा विकार तथा घाव भरने के लिए इसके पांचों भागों का चूर्ण खाना चाहिए ।
६. धातुपुष्टता के लिए (वीर्यवृद्धि के लिए) १ चम्मच बीज १ कटोरी दूध और २ चम्मच घी के साथ लीजिए ।
७. भांग और गांजे का नशा उतरने के लिए इस वनस्पति की जडें ठंडे पानी में घिसकर देते हैं ।
८. बीमारी से उठने पर स्नान के पानी में यह वनस्पति डालकर पानी गरम करें तथा यह गरम पानी छानकर उससे स्नान करें ।
आ. भोजन में उपयोग
१. इसके कोमल पत्तों की सब्जी स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है । आपातकाल में अनाज के अभाव में भोजन में इसका उपयोग कर सकते हैं ।
२. बीज से खाद्य तेल निकाला जा सकता है ।
९ अ ५. वनस्पति की पहचान : वर्षा ऋतु के अंत में मार्ग के किनारे तथा जंगल में यह वनस्पति बडी मात्रा में दिखाई देती है । कमर की ऊंचाई तक बढनेवाली इस वनस्पति के सिरे पर सफेद और गुलाबी रंग के शंकु के आकार के फूल होते हैं । (छायाचित्र देखें ।) इन फूलों में राई से छोटे आकार के काले रंग के बीज होते हैं । यह लाल भाजी के कुल की वनस्पति है ।
९ अ ६. एकत्रित किए जानेवाले भाग
अ. साधारणतः ५ किलो जड सहित पूर्ण वनस्पति एकत्रित कर उसका चूर्ण बनाकर रखें ।
आ. बोरी भरकर फूल एकत्रित करें । फूल एकत्रित करने से पहले कुछ फूल हाथों से मसलकर उसके बीजों की परिपक्वता की निश्चिति कर लें । परिपक्व बीज काले रंग के होते हैं । फूल तोडने पर उन्हें बिना धोए धूप में सुखाकर हाथों से मसलें अथवा लाठी से पीटकर उनके बीज एकत्रित करके रखें । आवश्यकता प्रतीत हो, तो बीज धोकर धूप में सुखाकर रख सकते हैं ।
इ. बीज निकालने के उपरांत फूलों का चूरा अलग निकालकर उसका उपयोग स्नान के जल में डालकर करें ।
९ अ ७. मात्रा
अ. १ चम्मच पंचांग चूर्ण (पूर्ण वनस्पति का चूर्ण) दिन में २ – ३ बार एक कटोरी पानी में मिलाकर पीएं ।
आ. १ चम्मच बीज एक कटोरी पानी के साथ पीएं ।
इ. उपलब्ध हो, तो इस वनस्पति के पत्तों की सब्जी भोजन में रखें ।
९ अ ९. रोपाई : ‘यह वनस्पति सदैव उपलब्ध होने के लिए अपने आंगन अथवा छत पर इसकी रोपाई कर सकते हैं । इसका बीज रोपने के पश्चात ५ से ७ दिनों में अंकुरित होता है । ३० से ४० दिनों में सब्जी हेतु उत्तम पत्ते मिलते हैं । ८० से ९० दिनों में बीज परिपक्व हो जाता है । कोमल पत्ते तोडते रहने से बीज विलंब से मिलते हैं । सब्जी के लिए इस वनस्पति की रोपाई करनी हो, तो अच्छी खाद और पानी देने से अच्छी गुणवत्ता के पत्ते मिलते हैं । १० × १० मीटर के परिसर में रोपाई करने से एक बार में १० से १५ किलो पत्ते सब्जी हेतु मिलते हैं ।
९ अ ८. वनस्पति का उपयोग किसे नहीं करना चाहिए ? : इस वनस्पति के बीज पेट में जाने पर आंखों की पुतलियां कुछ मात्रा में फैल जाती हैं । इसलिए जो कांचबिंदु (ग्लूकोमा) से पीडित हैं, वे इस बीज का सेवन न करें ।’ (संदर्भ : http://tropical.theferns.info/viewtropical.php?id=Celosia+argentea) (१६.११.२०२०)
९ आ. चक्रमर्द
९ आ १. वैकल्पिक हिन्दी नाम : छकुंड
९ आ २. संस्कृत नाम : चक्रमर्द, एडगज
९ आ ३. लैटिन नाम : Senna tora, Senna obtusifolia
९ आ ४. कुल : Fabaceae
९ आ ५. उपयोग
अ. औषधीय उपयोग
१. इसका संस्कृत नाम है ‘चक्रमर्द’ । ‘चक्र’ अर्थात ‘गजकर्ण/दाद’ । ‘मर्द’ अर्थात नष्ट करनेवाली वनस्पति, इसलिए इसे ‘चक्रमर्द’ कहते हैं । खुजली, दाद आदि फफूंद द्वारा उत्पन्न त्वचा के रोगों में (फंगल इन्फेक्शन में) इसका रस दिन में ३ – ४ बार त्वचा पर लगाने से ये रोग ठीक हो जाते हैं ।
२. ‘चक्रमर्द का रस शरीर पर (विशेषतः पेट, नितंब, स्तन, गला आदि अवयवों पर) मलने से अथवा पंचांग का (पूर्ण वनस्पति का) चूर्ण उबटन के समान शरीर पर रगडने से अनावश्यक मेद (चरबी) अल्प होकर शरीर सुडौल बनता है । अधिक लाभ के लिए प्रतिदिन सूर्यनमस्कार करें ।
३. चक्रमर्द का रस और बेसन का मिश्रण त्वचा पर मलकर
लगाएं । इससे त्वचा कोमल और दिव्य बनती है । अनावश्यक तैलीय, कालापन तथा ढीलापन अल्प होते हैं । रस के अभाव में चक्रमर्द का चूर्ण और बेसन के मिश्रण का उपयोग करें ।
४. जिनके पेट में कृमि होते हैं, वे २ चम्मच चक्रमर्द का बीज चबाकर खाएं और एक घंटे पश्चात २ चम्मच अरंडी पीकर आधी कटोरी गरम पानी पीएं । इससे कृमि निकल जाते हैं ।
५. अधिक खांसी आना, छाती में कफ होना, सांस फूलना, शरीर भारी होना, ग्लानि रहना आदि अवस्था में चक्रमर्द के बीजों का २ चम्मच चूर्ण ४ कप पानी में उबालकर १ कप काढा बनाएं । काढा बनाते समय उसमें तुलसी के दो पत्ते और काली मिर्च के दो दाने पीसकर डालें । यह गरम काढा घूंट-घूंट करके पीएं । इससे सफेद और झागवाले कफ निकल जाते हैं ।
६. शरीर पर सफेद दाग दिखाई देना, शरीर पर खुजली होना, सर्दी की पुनरावृत्ति, खांसी आना आदि लक्षण होने पर चक्रमर्द के पत्तों की सब्जी और मिस्सा की रोटी खाएं ।
७. चक्रमर्द का तेल : चक्रमर्द का रस १ लीटर, गोमूत्र २ लीटर, हलदी चूर्ण २५ ग्राम, मुलेठी का चूर्ण २५ ग्राम और तिल का तेल १ लीटर आदि घटक एकत्रित कर केवल तेल शेेष रहने तक मंद आंच पर उबालें । तेल ठंडा होने पर बोतल में भरकर रखें और उसमें २ ग्राम अजवायन के फूल का बारीक चूर्ण डालकर बोतल का ढक्कन लगाएं और बोतल हिलाकर तेल में घुलने दें । (अजवायन का फूल आयुर्वेदिक औषधि की दुकान में मिलता है । वह न मिले, तो उसके स्थान पर भीमसेनी कर्पूर का उपयोग करें ।) इस तेल का उपयोग बाह्य उपचार के लिए करें ।
अ. सर्व प्रकार के त्वचारोगों में, विशेषतः जिस त्वचा के रोग में पानी बहना, गीलापन, खुजली आदि लक्षण हों, उन रोगों में यह अत्यधिक उपयुक्त है ।
आ. योनिमार्ग में खुजली, तथा उसमें से निकलनेवाले चिपचिपे स्राव आदि में, इस तेल में कपास डुबोकर रात को सोते समय योनिमार्ग में रखें ।
इ. आग, गरम पानी, भाप, बिजली का झटका आदि के कारण जले हुए घाव में यह तेल अत्यधिक लाभदायक है । जले हुए स्थान पर पानी न लगने दें ।
ई. खरोंच आने/छिलने, घाव आदि में यह तेल लगाने से लाभ होता है ।
उ. मेद अर्थात चरबी की मात्रा कम करने के लिए इस तेल से मर्दन (मालिश) करनी चाहिए ।’ (संदर्भ : आहार रहस्य (भाग ३ और ४), लेखक : वैद्य रमेश मधुसूदन नानल)
आ. भोजन में उपयोग
१. बीज भूनकर बनाए गए चूर्ण का उपयोग कॉफी के विकल्प के रूप में कर सकते हैं । इसका स्वाद कॉफी के समान होता है । कॉफी के कारण होनेवाले दुष्परिणाम इस चूर्ण से नहीं होते । यह चूर्ण कफ और श्वसनसंस्था के रोग अल्प करनेवाला है । स्वास्थ्य के लिए चाय अथवा कॉफी के स्थान पर चक्रमर्द के चूर्ण का उपयोग लाभदायक है ।
२. कोमल पत्तों की सब्जी अच्छी बनती है । आपातकाल में अनाज के अभाव में भोजन के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं ।
९ आ ६. वनस्पति की पहचान : इस वनस्पति से सभी परिचित हैं । वर्षा ऋतु में बडी संख्या में मार्ग के किनारे ये पेड उगते हैं । इसके कोमल पत्तों की सब्जी बनाकर खाते हैं । ये पेड कमर तक ऊंचे होते हैं । इसके फूल पीले रंग के होते हैं । इन पेडों पर हंसिए के समान साधारणतः अर्धगोलाकार फलियां लगती हैं । वर्षा ऋतु के उपरांत ये फलियां सूखकर मिट्टी के रंग की हो जाती हैं । इन फलियों में मेथी के दानों के समान बीज होते हैं ।
९ आ ७. वनस्पति के एकत्रित करने योग्य अंग और बननेवाली औषधियां
अ. साधारणतः २ किलो जड सहित पूर्ण वनस्पति एकत्रित कर उसका चूर्ण बनाकर रखें । बाह्य उपचारों के लिए इसका उपयोग करें ।
आ. पेड पर सूख रही फलियों को कैंची द्वारा धीरे से काटकर एकत्रित करें । फलियां हिलने से उसके बीज फैल सकते हैं । साधारणतः २ से ४ किलो (अथवा संपूर्ण वर्ष में हमारे लिए जितनी चाय की पत्ती अथवा कॉफी के चूर्ण की आवश्यकता होती है, उतने किलो) फलियां एकत्रित कर उन्हें धूप में अच्छे से सुखाएं । उनका बीज अलग करें । फलियों के छिलके फेंक दें और बीज धूप में अच्छे से सुखाएं । सूखे हुए बीज कढाई में धीमी आंच पर भूनकर ठंडा होने पर उनका चूर्ण बनाकर रखें ।
इ. तेल बनाना हो, तो पर्याप्त रस मिलने के लिए जड सहित वनस्पति एकत्रित करें । वर्षा ऋतु में पत्ते ताजे होने से अधिक रस निकलता
है । वर्षा समाप्त होने पर वनस्पति सूख जाती है, इसलिए अधिक पानी डालकर रस निकालें ।
९ आ ८. मात्रा : बीजों का चूर्ण १ से २ चम्मच (कॉफी बनाने की मात्रानुसार)
९ आ ९. रोपाई : रोपाई करने की आवश्यकता नहीं होती । प्रकृति में वर्षा ऋतु में यह वनस्पति बडी मात्रा में दिखाई देती है; परंतु कुछ देशों में इस वनस्पति की रोपाई की जाती है । रोपाई करनी हो, तो एक बर्तन में कुनकुना पानी लेकर उसमें चक्रमर्द के सूखे हुए बीज डालें और १२ घंटे गलने दें । उसके पश्चात बोएं । इससे अधिक अंकुरित होते हैं ।
९ आ १०. वनस्पति का उपयोग किसे नहीं करना चाहिए ?
अ. चक्रमर्द के बीज का उपयोग एक बार अधिक मात्रा में न करें । इससे वमन अथवा अतिसार (जुलाब) हो सकता है ।
आ. कुछ स्थानों पर चक्रमर्द के बीज का तेल निकालते हैं; परंतु इसका उपयोग भोजन में न करें । इससे आंतों को हानि पहुंचकर विविध रोग उत्पन्न हो सकते हैं ।
इ. चक्रमर्द के पुराने पत्ते पचने में भारी होते हैं । इसलिए उन्हें नहीं खाना चाहिए ।’
– वैद्य मेघराज माधव पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी,
गोवा. (१८.११.२०२०)