‘केरल के इडनीर मठ के शंकराचार्य केशवानंद भारतीजी ने ६.९.२०२० को देहत्याग किया । आज पुनः देश के सामने एक बार उनके संबंध में जानकारी आ रही है । ४७ वर्ष पूर्व शंकराचार्यजी ने केरल की तत्कालीन वामंपथी (कम्युनिस्ट) सरकार के विरुद्ध भूमि नियंत्रण कानून के विषय पर न्यायालयीन संघर्ष किया था । इस संघर्ष को न्यायालयीन इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है और अनेक अभियोगों में उसका संदर्भ दिया जाता है । न्यायालय के इतिहास में ऐसे कुछ प्रमुख ही अभियोग हैं, जिनका निरंतर संदर्भ आता रहा है । उनमें से यह एक अभियोग है ।
१. शंकराचार्य श्री केशवानंद भारतीजी की ‘केरल
भूमि सुधार कानून १९६९’ को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती
इडनीर मठ के पास अनेक वर्षों से भक्तों द्वारा अर्पण में मिली सहस्रों एकड भूमि थी । वर्ष १९७० में तत्कालीन वामपंथी सरकार ने मठ और जमींदारों की भूमि को अपने नियंत्रण में लेने का कानून बनाकर सहस्रों एकड भूमि अपने नियंत्रण में ली । उसमें इडनीर मठ की सहस्रों एकड भूमि भी ली गई । इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते समय सरकार की यह इच्छा थी कि जब किसी व्यक्ति से भूमि अधिग्रहण करनी हो, तब उन्हें उसकी हानिभरपाई (अधिग्रहित भूमि का बाजारमूल्य के आधार पर निर्धारित मूल्य चुकाना) आवश्यक नहीं है । उसके स्थान पर भारत सरकार अथवा राज्य सरकार को जो उचित लगे, उतनी धनराशि (एवार्ड) दे सकेगी । इस प्रकार कानूनी प्रावधान करने हेतु संसद ने संविधान में २४ वां, २५ वां और २९ वां संशोधन किया । उन्होंने मूल कानून में से ‘हानिभरपाई’ शब्द हटाकर उसके स्थान पर पुरस्कार (एवार्ड) शब्द जोड दिया । इस प्रकरण से पूरे देश में उथल-पुथल मच गई थी । लोग तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कार्यशैली पर असंतुष्ट थे । श्रीमती गांधी के पास बहुमत था और उससे ‘वे लोकतंत्र के लिए संकटकारी सिद्ध हो रही निरंकुश सरकार चला रही हैं’, यह जनभावना बन गई थी । तब शंकराचार्य श्री केशवानंद भारतीजी ने ‘केरल भूमि सुधार कानून १९६९’ को चुनौती दी थी ।
२. खंडपीठ द्वारा ‘संविधान का मूलभूत प्रारूप बदला नहीं जा सकेगा’, यह निर्णय दिया जाना
शंकराचार्य श्री केशवानंद भारतीजी ने इस अभियोग में ‘गोलकनाथ विरुद्ध पंजाब राज्य’ प्रकरण के निर्णय का संदर्भ दिया था इस प्रकरण में ११ न्यायाधीशोंवाली खंडपीठ ने निर्णय दिया था कि ‘केंद्र सरकार अथवा संसद को संविधान में संशोधन करने का तो अधिकार है; परंतु ऐसा करते समय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हो’, इस प्रकार से उसमें बदलाव नहीं किया जा सकता । किसी को भी संविधान के मूल प्रारूप में बदलाव लाने का अधिकार नहीं है ।’
‘गोलकनाथ विरुद्ध पंजाब राज्य’ प्रकरण में न्यायाधीशों को संविधान के मूल प्रारूप को बाधित करनेवाले संशोधन को रद्द किए जाने की जानकारी थी; इसलिए भूमि अधिग्रहण कानून में केंद्र सरकार द्वारा किए गए २४, २५ और २९ वें संशोधन विधिजन्य हैं अथवा नहीं, इसपर विचार करने के लिए १३ न्यायाधीशों के सामने यह प्रकरण रखा गया था । सामान्यतः किसी कानून को चुनौती दी जाती है, तब वह प्रकरण ५ न्यायाधीशों की खंडपीठ के पास जाता है । केंद्र सरकार द्वारा किए गए संशोधनों की वैधता की पडताल करने के लिए १३ न्यायाधीशों का खंडपीठ क्यों बनाया गया ? मूलतः इंदिरा गांधी की यह इच्छा थी कि ‘गोलकनाथ प्रकरण में न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय रद्द होना चाहिए ।’ उस समय न्यायसंस्था के कुछ न्यायाधीश सरकार के साथ निकटता बनाए हुए थे । वे निर्णय घोषित करने से पूर्व ही उनके कच्चे मसौदों को सरकार के हाथ में पहुंचाते थे । इसपर मुख्य न्यायाधीश सिकरी ने सीधे न्यायाधीश बेग को पूछा था कि ‘ऐसे कैसे हुआ ?’ उनका मत था, ‘न्यायव्यवस्था की संप्रभुता बनी रहे !’ इसकी सुनवाई के समय १३ न्यायाधीशों में बडा संघर्ष होकर ६ विरुद्ध ६ के अनुसार निर्णयपत्र दिए गए । मुख्य न्यायाधीश सिक्री, अन्य न्यायाधीशों में शेलाट, ग्रोवर, हेगडे, मुखर्जी एवं जगमोहन रेड्डी ने सरकार के विरुद्ध निर्णय दिया, तो अन्य न्यायाधीशों में से ए.एन. रे, पालेकर, मैथ्यू, द्विवेदी, बेग और चंद्रचूड ने निर्णय दिया कि ‘संसद को संविधान में बदलाव करने के अधिकार हैं’; परंतु उसी समय ‘संविधान के मूल प्रारूप में बदलाव करने के अधिकार नहीं हैं’, ऐसा प्रतिपादित किया । वह निर्णय सही माना गया । ऐतिहासिक केशवानंद भारती निर्णय यही है !
३. अनेक वरिष्ठ न्यायाधीशों की उपेक्षा कर एएन रे और उनके
पश्चात एचएम बेग को मुख्य न्यायाधीश बनाने से अन्य न्यायाधीशों का त्यागपत्र देना
विधिजन्य एवं राजनीतिक क्षेत्र में इस निर्णय की लंबे समय तक आलोचना की गई । न्यायव्यवस्था में उसके दूरगामी परिणाम हुए । इसके कारण सर्वोच्च न्यायालय और न्यायाधीशों की निष्पक्ष छवि भी प्रभावित हुई । मुख्य न्यायाधीश एस.एम. सिक्री सेवानिवृत्त हुए । तत्पश्चात न्यायाधीश शेलाट, न्यायाधीश हेगडे और न्यायाधीश ग्रोवर की वरिष्ठता को एक ओर रखकर उनकी तुलना में कनिष्ठ न्यायाधीश ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया । वास्तव में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में सेवावरिष्ठता महत्त्वपूर्ण मापदंड होता है । उसे एक ओर रखने के कारण न्यायाधीश शेलाट, न्यायाधीश हेगडे और न्यायाधीश ग्रोवर ने अपने पद से त्यागपत्र दिया । प्रख्यात अधिवक्ता फली नरीमन, भारत के महाधिवक्ता सीके दफ्तरी, कुलदीप नय्यर और न्यायाधीश जगमोहन रेड्डी ने भी इसकी आलोचना की । सर्वोच्च न्यायालय के बार एसोसिएशन ने मुख्य न्यायाधीश के रूप में ए.एन. रे की पदोन्नति की आलोचना की थी । इस बैठक में मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश तथा वरिष्ठ अधिवक्ता एमसी छागला भी उपस्थित थे । आगे जाकर ए.एन. रे की सेवानिवृत्ति के पश्चात वरिष्ठता के क्रम के अनुसार एच.आर. खन्ना मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए पात्र थे; परंतु उन्होंने केशवानंद भारती प्रकरण की सुनवाई के समय सरकार के विरुद्ध मतप्रदर्शन किया; इसलिए उन्हें वंचित रखा गया और उनकी तुलना में कनिष्ठ एच.एम. बेग को पदोन्नत किया गया । इस प्रकार निरंतर २ बार इंदिरा गांधी ने वरिष्ठता को एक ओर रखकर मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की । इससे उन्हें बहुत बडी आलोचना का सामना करना पडा ।
४. इंदिरा गांधी के विरुद्ध न्यायालय का परिणाम आने के
पश्चात उनके द्वारा उसी रात आपातकाल लागू किया जाना
सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित इस तनावपूर्ण वातावरण में ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया, जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई । उस समय न्यायाधीश कृष्णा अय्यर छुट्टी की अवधि के न्यायाधीश थे । उन्होंने अपने संस्मरणों में कहा है, ‘‘सवेरे उच्च न्यायालय का निर्णय आने के कुछ ही मिनट पश्चात केंद्रीय विधिमंत्री एच.आर. गोखले ने मुझसे मिलने का प्रयास किया । उनसे मिलने का प्रयोजन पूछने पर उन्होंने कहा कि यह निर्णय प्रधानमंत्री के विरुद्ध गया है, आप छुट्टी की अवधि के न्यायाधीश हैं; इसलिए आवेदनपत्र प्रविष्ट करने हेतु मैं आपसे मिलने को इच्छुक हूं । इस प्रकरण में हमें इस निर्णय पर पूरी रोक चाहिए ।’’ तब न्यायाधीश अय्यर ने विधिमंत्री से मिलना अस्वीकार कर दिया ।
न्यायाधीश अय्यर ने निर्णय पर पूरी तरह रोक लगाना अस्वीकार किया; परंतु शर्तों के साथ दिए गए आदेश के अनुसार इंदिरा गांधी को सांसद एवं प्रधानमंत्री के नाते संसद में उपस्थित रहने की अनुमति दी, साथ ही यह भी शर्त रखी कि ‘उन्हें इस अवधि में चुनावों में मतदान करने और किसी भी प्रकार का चुनाव लडने का अधिकार नहीं होगा ।’ संसद में जिस समय किसी प्रस्ताव पर मतदान होता है, उस समय ऐसे अपात्र सदस्यों को मतदान का अधिकार नहीं रहता । इस आदेश के फलस्वरूप उसी दिन मध्यरात्रि को इंदिरा गांधी ने भारत पर आपातकाल थोपा । आपातकाल के अंतर्गत मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए । विपक्षी दलों के सदस्यों को प्रतिबंधात्मक आदेश देकर हिरासत में लिया गया और प्रसारमाध्यमों पर प्रतिबंध लगा दिए गए । चुनाव अपात्रता याचिका में वरिष्ठ विधिज्ञ नानी पालखीवाला इंदिरा गांधी के अधिवक्ता थे । आपातकाल की घटना के कारण नानी पालखीवाला इतने आहत हुए कि उन्होंने इस प्रकरण में इंदिरा गांधी के पक्ष में वकालत करना ही अस्वीकार कर दिया ।
५. उच्च न्यायालय के द्वारा इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध प्रमाणित
करने पर, उसे वैधता में बदलने हेतु संसद द्वारा प्रयास किया जाना
सर्वोच्च न्यायालय में इंदिरा गांधी का अपील लंबित था, तब १०.८.१९७५ को संसद ने (संविधान में ३० वां संशोधन) कर कानून लागू किया । इसके अनुसार प्रधानमंत्री के चुनाव से संबंधित विवाद को न्यायालयों के कार्यक्षेत्र से पूर्वलक्षित प्रभाव से (पहले के दिनांक से कानून लागू कर) छीन लिया गया । ‘प्रधानमंत्री का कोई भी चुनाव रद्द घोषित नहीं किया जाएगा’ ऐसा कानून बनाया गया । जिस चुनाव कानून के आधार पर (संशोधन) उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्रीपद पर विराजमान इंदिरा गांधी को अपात्र प्रमाणित किया था, उसे संसद ने वैध प्रमाणित करने का प्रयास किया ।
६. न्यायव्यवस्था के इतिहास में पहली बार ही १३ न्यायाधीशों की खंडपीठ स्थापित करना
इंदिरा गांधी द्वारा दी गई इस चुनौती में मुलभूत रचना को बदलने का सिद्धांत उपस्थित किया गया । इस संदर्भ में चल रही सुनवाई के समय महाधिवक्ता ने न्यायालय से अनुरोध किया कि ‘श्री केशवानंद के आदेश का पुनरावलोकन किया जाए’ इस निर्णय में संसद की मूलभूत रचना के सिद्धांत से संविधान में संशोधन करने की शक्ति सीमित की गई अथवा नहीं, इसका पुनर्विलोकन सुनने हेतु १३ न्यायाधीशों की खंडपीठ स्थापित की गई ।
९.१०.१९७५ के मुख्य न्यायाधीश के आदेश के उपरांत १०.११.१९७५ को १३ न्यायाधीशों की खंडपीठ ने केशवानंद भारती प्रकरण के पुनर्विलोकन की सुनवाई आरंभ की । इस खंडपीठ में मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे, एच.आर. खन्ना, के.के. मैथ्यू, एम.एच. बेग, वाई.वी. चंद्रचूड, पी.एन. भगवती, वी.आर. कृष्णा अय्यर, पी.के. गोस्वामी, ए.सी. गुप्ता आदि वरिष्ठ न्यायाधीश अंतर्भूत थे । नानी पालखीवाला ने सुनवाई के एक दिन पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने यह अनुरोध किया था कि ‘संसद को यदि संवैधानिक लोकतंत्र में बदलाव करने की असीमित शक्ति प्रदान की गई, तो उससे देश की एकता और अखंडता नष्ट होगी । केशवानंद भारती प्रकरण की अचूकता के संदर्भ में कल से सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई आरंभ होगी । अतः सरकार के मौखिक अनुरोध के अनुसार आनेवाली पुनर्विचार याचिका रोकी जाए ।’
७. सरकार के मौखिक आदेश के अनुसार मुख्य न्यायाधीश
द्वारा केशवानंद भारती प्रकरण में पुनरावलोकन का आदेश दिया जाना
वरिष्ठ विधिज्ञ नानी पालखीवाला ने यह वाद-विवाद किया कि ‘मूलभूत सिद्धांत का पुनः अवलोकन करने के लिए कोई भी याचिका प्रविष्ट नहीं की गई थी, साथ ही ऐसी कोई भी याचिका नहीं थी, जिसमें न्यायालय ने मूलभूत रचना सिद्धांत को लागू करने में आपत्ति दर्शाई हो । सरकार के मौखिक अनुरोध के अनुसार केवल प्रशासनिक आदेश से मुख्य न्यायाधीश ने पुनः अवलोकन करने का आदेश दिया था ।’ उनकी पहली आपत्ति पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया; परंतु उसके उपरांत पालखीवाला द्वारा दर्शाई गई आपत्तियों का बहुत बडा परिणाम हुआ और मुख्य न्यायाधीश ने केशवानंद भारती निर्णय के पुनः अवलोकन का आदेश कैसे और क्यों दिए, इस पर कई वाद-विवाद आरंभ हुए । एक चरण पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘‘इस पुनः अवलोकन का अनुरोध सरकार की ओर से किया गया था ।’ तत्पश्चात मुख्य न्यायाधीश ने बताया कि तमिलनाडु सरकार ने इस प्रकार पुनः अवलोकन करने का अनुरोध किया था । उसके उपरांत तमिलनाडु सरकार ने भी इस प्रकार अनुरोध करना अस्वीकार कर दिया था ।
८. इंदिरा गांधी को बचाने का प्रयास होने की बात ध्यान में आने
पर मुख्य न्यायाधीश द्वारा पुनः अवलोकन की सुनवाई को रोका जाना
इसके दूसरे दिन अर्थात ११.११.१९७५ को सुनवाई चल रही थी । १२.११.१९७५ को वाद-विवाद के समय मुख्य न्यायाधीश ने आश्चर्यचकित होकर ‘इस पुनर्विचार याचिका को सुनने की आवश्यकता नहीं है’ की घोषणा की और स्वयं को इससे छुडा लिया; क्योंकि इन सभी प्रकरणों में मुख्य न्यायाधीश रे की सरकार अथवा इंदिरा गांधी को बचाने की भागदौड दिखाई दे रही थी, यह इस अभियोग की विशेषता है । इसके कारण सर्वोच्च न्यायालय की छवि भी धूमिल हुई थी ।
९. शंकराचार्य श्री केशवानंद के प्रयासों के कारण मूलभूत रचना
में बदलाव न कर संविधान में संशोधन करने का कानून स्थाई हुआ
इस प्रकार श्री केशवानंद प्रकरण का निर्णय स्थाई रहा और अभी भी मुलभूत रचना सिद्धांत टिका हुआ है । आज वकालत की शिक्षा लेनेवाले प्रत्येक छात्र को, साथ ही उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करनेवाले प्रत्येक अधिवक्ता को श्री केशवानंद भारती के विषय में ज्ञात हुआ, जिसमें संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार तो अवश्य है; परंतु उसे मुलभूत बदलाव करने का अधिकार नहीं हैं, यह कानून स्थाई हुआ । इन ४५ वर्षों में जो भी कानून बने और जिन कानूनों की पडताल के लिए उन्हें न्यायालय में चुनौती दी गई, उसमें प्रत्येक बार केशवानंद भारती प्रकरण में दिए गए निर्णय का अनुपालन किया गया । आज ४५ वर्षों में सरकार ने जो कुछ भी कानून बनाए, उनमें यह सिद्धांत बताया जाता है ।
अतः संविधान में कोई भी संशोधन होता है, तब ५० वर्ष बीत जाने के उपरांत भी केशवानंद भारती प्रकरण का स्मरण होता है । इस प्रकार इस न्यायालयीन संघर्ष के माध्यम से अध्यात्म-क्षेत्र का उच्च पद पर विराजमान व्यक्ति न्यायिक-क्षेत्र के लिए भी स्मरणीय सिद्ध हुआ !
श्रीकृष्णार्पणमस्तु !’
– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णीजी, संस्थापक सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद तथा अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय