सर्वज्ञ होते हुए भी जिज्ञासा से प्रत्येक कृत्य के पीछे का शास्त्र समझनेवाले गुरुदेवजी !

     परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में ३० अप्रैल २००८ को वेद, शास्त्र आदि अध्ययन करनेवालों के लिए ‘सनातन पुरोहित पाठशाला’ स्थापित की गई । ‘प्रत्येक धार्मिक विधि शास्त्र समझकर ‘साधना’ के रूप में करनी चाहिए’, इस संबंध में परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने यहां शिक्षा ग्रहण करनेवालों का मार्गदर्शन किया है ।

‘सनातन पुरोहित पाठशाला’ के संचालक श्री. दामोदर वझे गुरुजी द्वारा यज्ञ का संकल्प करने हेतु की जा रही विधियां समझते हुए परात्पर गुरु डॉक्टरजी

     सनातन के रामनाथी आश्रम में विविध यज्ञ होते रहते हैं । अस्वस्थता तथा अत्यधिक थकान होते हुए भी कुछ यज्ञों में परात्पर गुरु डॉक्टरजी स्वयं उपस्थित रहते हैं । उस समय सनातन के पुरोहितों द्वारा की जा रही विविध विधियों का वह बारीकी से निरीक्षण करते हैं तथा उसके पीछे का शास्त्र भी समझते हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ज्ञानी हैं, तब भी छोटे छोटे कृत्य वे समझकर लेते हैं । यज्ञ अथवा अन्य धार्मिक कृत्य करते समय शास्त्र समझकर पुरोहित वह कृत्य भावपूर्ण और परिपूर्ण करें, ऐसी गुरुदेवजी की लगन होती है ।

१. आश्रम में आए हुए एक पुरोहित को संध्या समय गोत्र का उच्चारण कर
नमस्कार करने पर प.पू. डॉक्टरजी ने इस प्रकार नमस्कार करने के पीछे का शास्त्र समझा

     एक बार आश्रम में एक पुरोहित आए थे । उन्हें नमस्कार करते समय हमने, संध्या में गोत्र का उच्चारण कर नमस्कार करते हैं, उस प्रकार नमस्कार किया । तब प.पू. डॉक्टरजी ने उस संबंध में इस ‘नमस्कार के पीछे का क्या शास्त्र है ? तथा केवल पुरोहितों को ही ऐसा नमस्कार करते हैं कि अन्य समय भी ऐसा नमस्कार करना होता है ?’ इस संबंध में हमसे पूछा । इस प्रसंग से हमें एक वैज्ञानिक का स्मरण हुआ । उस वैज्ञानिक के ज्ञान के संबंध में एक व्यक्ति ने प्रशंसा की, तब वह वैज्ञानिक बोला, ‘‘अब मेरे पास जो ज्ञान है, वह अथाह समुद्र के किनारे पडी रेत के एक कण के बराबर भी नहीं है ।’’ उस वैज्ञानिक के समान ही प.पू. गुरुदेव सर्वज्ञ होते हुए भी सदैव सीखने की स्थिति में रहते हैं, इस कारण वे समष्टि के लिए आदर्श हैं ।

२. तीर्थ लेते समय हाथ की मुद्रा के पीछे के शास्त्र से संबंधित
अध्ययन कर उस संबंध में दैनिक में चौखट बनाकर प्रकाशित करने को कहना

     प.पू. डॉक्टरजी को प्रतिदिन मंत्रपठन कर तीर्थ दिया जाता है । तब ‘हाथ की मुद्रा कैसी होनी चाहिए ?’, इस संबंध में उन्होंने एक मासिक पत्र में जानकारी पढकर हमें उस मुद्रा का शास्त्र अध्ययन करने तथा वह मुद्रा सभी को ज्ञात होने की दृष्टि से उसकी चौखट बनाकर दैनिक में प्रकाशित करने को कहा । तीर्थ लेने से पूर्व वे प्रार्थना करते थे । तत्पश्‍चात हम एक मंत्र बोलते थे ।

२ अ. तीर्थ ग्रहण करते समय बोले जानेवाले मंत्र के अर्थ की जानकारी लेना तथा वह अर्थ स्वयं प्रार्थनास्वरूप होने के कारण अलग से प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है, यह बताना : कुछ दिनों के उपरांत उन्होंने उस मंत्र का अर्थ समझा । ‘मंत्र का अर्थ ही प्रार्थनास्वरूप होने के कारण अलग से प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है’, उन्होंने हमें इसका ध्यान दिलाया । इस प्रसंग से ‘प.पू. गुरुदेवजी प्रत्येक सूत्र कितनी जिज्ञासा से समझते हैं तथा अन्यों को भी वैसी जिज्ञासा उत्पन्न करने की प्रेरणा देते हैं’, इसका हमें भान हुआ । उस समय प.पू. भक्तराज महाराजजी के वाक्य, ‘जिज्ञासु ही ज्ञान का अधिकारी है’, का हमें स्मरण हुआ तथा भान हुआ कि हममें भी ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न होनी चाहिए ।

– सनातन पुरोहित पाठशाला के सर्व विद्यार्थी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२८.३.२०१५)

विधियों के समय जिज्ञासु वृत्ति का दर्शन

पू. संदीप आळशी

     ‘परम पूज्य गुरुदेवजी की पाद्यपूजा की विधि चल रही थी, तब वे विधियों का प्रत्येक कृत्य जिज्ञासा से समझ रहे थे । यदि वे कृत्य ठीक से न हो रहे हों, तो तत्परता से बता देते थे । ‘विधि का प्रत्येक कृत्य शास्त्रानुसार होने पर ही उस विधि का परिपूर्ण फल मिलता है’, इसलिए प्रत्येक कृत्य व्यवस्थित होना चाहिए ऐसी उनकी लगन दिखाई दे रही थी ।’

ज्ञानार्जन की लगन

‘परम पूज्य गुरुदेवजी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में विधियां हो रही थीं, तब एक बार सामवेदी श्री. काळेगुरुजी और उनके सहयोगी ने सामवेद का गायन किया । इस अवसर पर उन्होंने विशिष्ट मुद्राएं कीं । ग्रंथ में ये मुद्राएं लेने के लिए परम पूज्य गुरुदेवजी ने उन मुद्राओं के संबंध में तत्परता से लिखकर रखने के लिए कहा ।’

– (पू.) श्री. संदीप आळशी (२९.५.२०१६)

‘विविध धार्मिक कृत्यों का सूक्ष्म परीक्षण’, यह हिन्दू
धर्मकार्य में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अमूल्य योगदान !

     प.पू. डॉक्टरजी ने सदैव यही बताया है कि ‘पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि से जो अनुभव होता है, उसकी तुलना में इनसे परे सूक्ष्म स्तर की अनुभूतियां अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं । अनेक साधकों को उनकी प्रेरणा और कृपा से सूक्ष्म स्तर पर होनेवाली घटनाओं का ज्ञान होने लगा है । इस ज्ञान को उन्होंने प्रकाशित किया है । इससे समाज को हिन्दू धर्म के अंतर्गत होनेवाले धार्मिक विधियों की ओर देखने की नई दृष्टि मिली है और इन्हें करने का असाधारण महत्त्व भलीभांति अवगत हुआ है । इसके पहले धार्मिक विधियों का अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण इतने विस्तार से किसी ने नहीं प्रस्तुत किया था ।’

– डॉ. दुर्गेश सामंत, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१.५.२०१६)