१. गुणों का उचित उपयोग
किन गुणों का उपयोग कहां करना है, यह समझ में आना चाहिए । जहां प्रेम देना है, वहां क्षात्रभाव आदि बताना अनुचित है ।
२. चिंतन करना
किसी ने अपनी चूक मन से और तुरंत स्वीकार की, तो उसे पुनः उसकी चूक बताने की अपेक्षा उसे अगले स्तर की शिक्षा देनी चाहिए; क्योंकि उस साधक को उसकी चूक का भान हो चुका है; परंतु जिसे अभी भी उसका भान नहीं हुआ हो, उसे चिंतन करना आवश्यक है ।
३. विचार उचित नहीं होंगे, तो घडा कच्चा ही रहेगा !
केवल कृत्य नहीं, अपितु उसके पीछे का विचार भी उचित होना चाहिए । किसी समय उचित कृत्य करना संभव नहीं हुआ; परंतु उसका विचार उचित हो, तो आगे जाकर अपनेआप उचित कृत्य होने में सहायता मिलती है । विचार ही उचित न हों, तो अभी अध्यात्म में आपका घडा कच्चा ही है, ऐसा समझें । घडा कच्चा है अर्थात अभी विचारों में परिपक्वता नहीं आई है ।
४. वाणी का महत्त्व
अपनी वाणी से हमें क्या बोलना चाहिए, ईश्वर इसकी शिक्षा देते हैं । उसके लिए हमारी वाणी सात्त्विक और सुमधुर होनी चाहिए । हमारी वाणी ही हमें तथास्तु ! (ऐसा ही होे) कहती है ।
५. नदियों का उत्पत्तिस्थान तथा उनका मार्ग
नदी का उत्पत्तिस्थान बहुत छोटा अर्थात हमारी उंगली की चौडाई की धार के बराबर होता है । नदी का प्रवाह आगे-आगे बढते समय वह वहां की भूमि में विद्यमान जल के स्रोत और झरने जागृत करता जाता है । उसके कारण आगे जाकर वह नदी चौडी होकर और बडी हो जाती है ।
६. एक से नहीं, अपितु अनेक से शास्त्र का बनना
अध्यात्म में शोध करते समय परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी केवल स्वयं के शोध तक सीमित न रहकर अन्य संतों और साधकों के शोध का संदर्भ देकर उससे सिखाते हैं; क्योंकि शास्त्र किसी एक से नहीं, अपितु अनेक लोगों से बनता है ।
७. निराशा छोडकर ईश्वर का स्थायी आनंद प्राप्त
करने हेतु स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया अपनाना आवश्यक !
मन में निराशा के विचार आने पर आनंद, आनंद का जप कर देखना चाहिए, उससे निराशा के विचार नष्ट होकर कुछ समय तक आनंद मिलेगा; परंतु यह तत्कालीन उपाय है । ईश्वर का स्थायी आनंद मिलने हेतु शाश्वत स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया ही अपनानी होगी ।
८. जहां धर्मसंस्कृति है, वहां लक्ष्मीजी होती हैं; क्योंकि धर्मसंस्कृति का अर्थ है श्रीविष्णुजी !
९. अतीत में मग्न न रहें, भविष्य का विचार न करें ! केवल वर्तमान में रहकर गुरुचरणों का स्मरण करें। इसी में हमारी भलाई है ।
१०. भावपूर्ण प्रार्थना से ईश्वर का तत्त्व कार्यरत होता है । प्रार्थना करने से हमारे चारों ओर विद्यमान ईश्वरीय तत्त्व जागृत होकर हमें उसका लाभ मिलता है ।
११. भगवान श्रद्धावान व्यक्ति को ही जीवन में कोई अभाव नहीं होने देते । ज्ञानी एवं तपस्वी की अपेक्षा श्रद्धावान अधिक महत्त्वपूर्ण होता है !
१२. अध्यात्म से मनुष्य में विद्यमान ईश्वर जागृत हो जाते हैं, तो विज्ञान से वे मिटते जाते हैं ।
१३. समष्टि साधना करते समय सामने उत्पन्न स्थिति से निरंतर मेल करना आवश्यक होता है तथा निरंतर वर्तमान में रहना पडता है । अतः अतीत और भविष्य के विचार दूर होते हैं । अतीत एवं भविष्य की चिंता समाप्त होने पर मनुष्य वर्तमान में रहकर आनंदित होता है ।
सनातन के प्रत्येक साधक का जीवन एक अनुभूति ही है !
सनातन संस्था के माध्यम से गुरुकृपायोग के अनुसार अष्टांग साधना करनेवाले प्रत्येक साधक का जीवन एक अनुभूति ही है । साधनायात्रा करते समय गुरुदेवजी ने प्रत्येक साधक को उसकी क्षमता के अनुरूप बहुत ही ज्ञान प्रदान किया है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधकों को अनुभव एवं अनुभूति के माध्यम से परिपूर्ण बनाने का मानो महामंत्र ही प्रदान किया है । प्रत्येक साधक को उसकी साधनायात्रा में प्राप्त अनुभूतियों के आधार पर एक ग्रंथ तैयार हो सकता है । (वास्तविकता भी यही है । – परात्पर गुरु डॉ. आठवले) कलियुग में तन, मन एवं धन का संपूर्ण त्याग कर संतोष के साथ ईश्वरप्राप्ति हेतु संपूर्ण जीवन समर्पित करनेवाले तथा राष्ट्र एवं धर्म के उत्कर्ष हेतु निरपेक्षभाव से दिन-रात परिश्रम करनेवाले सनातन के साधकों को त्रिवार प्रणाम !
शरणागतभाव एवं सत्यनिष्ठा के साथ साधना का ब्यौरा देने पर गुरुदेवजी का प्रसन्न होना तथा गुरुदेवजी की प्रसन्नता में ही साधक की आध्यात्मिक उन्नति का बीज छिपा होना
१. जब संबंधित साधक को हम किसी सेवा का ब्यौरा देते हैं, तब मन ही मन उस साधक के अंतर में विद्यमान ईश्वर के आशीर्वाद भी हमें मिलते हैं और कार्यपद्धति का पालन करने से हममें अनुशासन भी आता है । ईश्वर अनुशासनप्रिय होने से उसके अनुसार आचरण करने से हमें उनके आशीर्वाद प्राप्त होने में सहायता मिलती है ।
२. महत्त्वपूर्ण बात यह कि इसके पीछे कार्यरत गुरुदेवजी की संकल्पशक्ति के कारण वह आशीर्वाद हमारी आध्यात्मिक उन्नति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होता है ।
३. हम क्या ब्यौरा देते हैं, इसकी अपेक्षा हम ईश्वर के चरणों में शरणागत होकर हमारे जो कुछ भी प्रयास हैं, उन्हें सत्यनिष्ठा से ब्यौरासेवक को बताते हैं ।, यह गुरुदेवजी को अत्यंत प्रिय है । हमारे इस छोटे से सत्यनिष्ठ कृत्य से गुरुदेवजी प्रसन्न होते हैं और उससे उनके मन में अब इस साधक की उन्नति होनी चाहिए, ये विचार आने लगते हैं ।
४. गुरुदेवजी की प्रसन्नता में ही साधक की आध्यात्मिक उन्नति का बीज छिपा होता है ।
५. गुरुदेवजी की प्रसन्नता का अर्थ उस साधक पर मानो ईश्वर का वरदहस्त ही है ! अतः गुरुदेवजी की बताई प्रत्येक बात ध्यान में रखकर उसके अनुसार कृत्य करने से चूकें अल्प होती हैं और प्रगति भी शीघ्र होती है ।
– श्रीचित्शक्ति श्रीमती अंजली गाडगीळजी का अमूल्य विचारधन !
(संग्राहक : श्री. दिवाकर आगावणे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२६.३.२०२०)