स्वदेशी अपनाएं : विदेशी दासता ठुकराकर स्वयं में राष्ट्राभिमान बढाएं !

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

स्वदेशी केवल वस्तु नहीं, अपितु एक विचार है । स्वतंत्रता से पूर्व  अनेक क्रांतिकारियों ने इस विचार को अपने जाज्वल्य क्रांतिकार्य का मूलमंत्र बनाया था । उस समय विदेशी दासता के विरुद्ध संघर्ष में स्वदेशी का यह विचार उत्कट राष्ट्रप्रेम का मुख्य स्रोत बना । आज देश भले ही स्वतंत्र हो; परंतु अपने अनेक कृत्यों के माध्यम से हमने विदेशी दासता को संजोकर रखा है । हमारे मन में जो विदेशी, वही अच्छा, इस भ्रामक संकल्पना का रोपण किया गया । इसके परिणामस्वरूप हम स्वदेशी वस्तुओं से दूर होते गए । स्वदेशी के प्रणेता स्व. राजीव दीक्षित ने तूफानी कार्य कर जनमानस में स्वदेशी की ज्योति जगाई ।

     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में आत्मनिर्भर भारत अभियान की घोषणा की । उसमें उन्होंने लोकल अर्थात स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने के सूत्र पर विशेष बल दिया । इस पृष्ठभूमि पर विदेशी प्रतिष्ठानों का वास्तविक रूप उजागर करनेवाली तथा स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का महत्त्व विशद करनेवाली लेखमाला हम अपने पाठकों के लिए आरंभ कर रहे हैं । इससे स्वदेशी उत्पादन प्रचालित होने के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति में राष्ट्राभिमान जागृत होगा और देश पुनः एक बार वास्तविक रूप से आत्मनिर्भर बनेगा !

भारत को आर्थिक दिवालियेपन से बचाने हेतु स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करें !

     ५ वर्ष पूर्व एक अमेरिकी डॉलर का मूल्य ३६ रुपए था; परंतु आज रुपए का अवमूल्यन होकर १ अमेरिकी डॉलर का मूल्य ५० रुपए तक गिर गया है । (वर्तमान में अमेरिकी डॉलर का मूल्य ७५ रुपए ८३ पैसे है । – संपादक) इससे अमेरिका की आर्थिक व्यवस्था समृद्ध हो रही है, यदि आपको ऐसा लगता हो, तो वह अयोग्य है । अमेरिका की अर्थव्यवस्था से इसका कोई संबंध नहीं है, अपितु मूलतः भारतीय अर्थव्यवस्था ही खोखली होती जा रही है, इसका यह प्रतीक है । इसे रोकने हेतु विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी अपनाना आवश्यक है !

१. एक-एक बूंद से महासागर बनता है, यह ध्यान में रखें !

     अन्य एशियाई देशों की भांति भारतीय अर्थव्यवस्था भी दिवालिया हो गई है । भारत में अनेक उद्योग बंद हो रहे हैं । भारतीय अर्थव्यवस्था सुधारने हेतु हमने अभी कोई कदम नहीं उठाए, तो आगे स्थिति अत्यंत दयनीय हो सकती है । हम अनेक विदेशी वस्तुएं खरीदकर प्रतिदिन ३० सहस्र करोड रुपए विदेशी प्रतिष्ठानों की जेब में डाल रहे हैं । भारतीय लोगों ने भारतीय बनावट की एक भी वस्तु खरीदी, तो भारतीय अर्थव्यवस्था पर उसका अनुकूल प्रभाव होगा, हम भारतीयों को इसे ध्यान में लेना चाहिए । इसलिए देश पर आए संकट को रोकने हेतु हम क्या कर सकते हैं, यह विचार न करें !

     आपका एक छोटा सा कृत्य भी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करनेवाला है, इसे ध्यान में लें और भारतीय वस्तुएं खरीदकर भारतीय नागरिक के कर्तव्य का निर्वहन करें ! स्वदेशी वस्तुएं खरीदने के संदर्भ में अपने पडोसी, मित्र और संबंधियों में जागृति लाएं !

२. आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है, इसे ध्यान में लें !

     अनेक क्रांतिकारियों ने प्राणार्पण किए; इसलिए हमें स्वतंत्रता मिली; परंतु विदेशी प्रतिष्ठानों के आक्रमण के कारण यह देश पुन: परतंत्र हो रहा है । हमें विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने की आदत पड गई है; परंतु भारत को आर्थिक दिवालियेपन से बचाने हेतु हमें अपनी जीवनशैली को बदलना आवश्यक है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की अर्थव्यवस्था का वैश्‍वीकरण हुआ है, ऐसा बोला जा रहा है; परंतु हमारे-आपके लिए यह वैश्‍वीकरण नहीं, अपितु भारत में पुनः उपनिवेशवाद उत्पन्न करने जैसा है ।

(संदर्भ : एक हिन्दुत्वनिष्ठ द्वारा प्रसारित संगणकीय पत्र, वर्ष २०१५)  

विदेशी कंपनियों द्वारा भारत की हो रही लूट !

     अपने साथ ५० सहस्र पाऊंड लेकर भारत में आई ईस्ट इंडिया कंपनी का वार्षिक लाभ अल्पावधि में ही ६० करोड पाऊंड तक पहुंच गया । आज भारत में लगभग ६ सहस्र बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं । उनमें से एक चौथाई कंपनियों का वार्षिक लेन-देन भारत के वार्षिक लेन-देन से भी अधिक है । एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को अक्षरशः लूटकर अपना दास बनाया, तो अब भारत में आई कंपनियां क्या करेंगी, इस विचार से भय उत्पन्न होता है । अपने साथ २४ लाख रुपए लेकर आई हिन्दुस्तान लीवर का वार्षिक लाभ लगभग २५० करोड रुपए, तो केवल डेढ लाख रुपए लेकर आई कोलगेट का लाभ ७७ करोड रुपए है ।

     क्या हमें ठंडे पेय, आलू के चिप्स, चाय, खिलौने, नमक आदि वस्तुओं के उत्पादन के लिए विदेशी प्रतिष्ठानों की आवश्यकता है ? हाथी आयोग ने स्वास्थ्य के लिए आवश्यक ११७ औषधियों की सूची बनाई थी; परंतु देश में ८४ सहस्र प्रकार की अर्थहीन औषधियां बनाकर उन्हें अधिक मूल्य पर बेचा जाता है । पैरासिटामोल का प्रति किलो उत्पादन मूल्य केवल ३५ रुपए है; परंतु बाजार में उन्हें ५०० रुपए प्रति किलो बेचा जाता है । हॉरलिक्स, बूस्ट, बोर्नविटा, माल्टोवा, सेरेलैक इत्यादि में चने और अलसी का सत्त्व होता है । ये दोनों वस्तुएं सस्ती होते हुए भी ये कंपनियां इन वस्तुओं को प्रति किलो २०० रुपए के मूल्य पर बेचती हैं । उनके आकर्षक विज्ञापनों की बलि चढकर हम भी ऐसी वस्तुएं खरीदते हैं !

     बाजार में उपलब्ध विविध लोकप्रिय ब्रांड के शीतपेयों के संदर्भ में क्या कहें ? उनका उत्पादन मूल्य प्रति लिटर २ रुपए १० पैसे है, जिसे हम १५ – २० रुपए देकर खरीदते हैं । उनमें विद्यमान कार्बनडाइऑक्साइड स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, साथ ही उनमें कीटकनाशकों की मात्रा कितनी होती है, यह अलग से बताने की आवश्यकता ही नहीं ।

     भारत के १ लाख ८ सहस्र गांवों में मनुष्य और पशु एक ही तालाब का पानी पीते हैं । आधे भारत में पानी की किल्लत है; परंतु ये कंपनियां पेय बनाने के लिए भरपूर मात्रा में पानी का उपयोग कर रही हैं, जो चिंता का विषय है । कोक और पेप्सी कंपनियां १७५ देशों में फैली हैं । अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए से सेवानिवृत्त उच्चाधिकारी अब इन कंपनियों में शीर्ष पर हैं । उन्होंने अपनी कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए अनेक देशों में मंत्री, नेता और राष्ट्रपति तक के व्यक्तियों की हत्याएं की हैं । क्यूबा, नामीबिया, सुदान, मोरोक्को, जॉर्डन, नाइजीरिया, इथोपिया इत्यादि अनेक देशों में इन कंपनियों ने अराजकता फैलाई है ।

– डॉ. सच्चिदानंद सुरेश शेवडे, राष्ट्रीय प्रवचनकार, डोंबिवली.

(संदर्भ : राष्ट्रजागर, पृष्ठ क्र. १३७, १३८, १३९)

     (उक्त लेख में उल्लेखित मूल्य वर्ष २०११ के हैं । आज इन वस्तुओं मे मूल्य और बढे हैं  । इसके कारण भारत में कार्यरत विदेशी प्रतिष्ठानों को करोडों रुपए का लाभ मिल रहा है । अतः भारतीय नागरिकों का पैसा विदेश जाने की अपेक्षा उसे देश में ही रखने हेतु स्वदेशी को अपनाना आवश्यक है । – संपादक)

वैश्‍वीकरण का प्रलोभन दिखाकर देश का आर्थिक दीवाला
निकालनेवाले कांग्रेस के तथाकथित अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह !

     ‘वैश्‍वीकरण की अनुशंसा डॉ. मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री ने की थी । वैश्‍वीकरण हुआ, अर्थात हमने अपने देश का आयात-कर घटाया व अन्य देशों के प्रतिष्ठानों को यहां विनियोजन हेतु आमंत्रित किया ।

     उस समय हमने शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर किया जानेवाला शासकीय व्यय घटाया । तदुपरांत वर्ष १९९७ में इस प्रक्रिया पर शासन से कुछ प्रश्‍न पूछे गए । तब वैश्‍वीकरण से संबंधित कुछ तर्कों की एक सूची दी गई । उसमें कहा गया था कि –

     भारत में पूंजी की आवश्यकता है और जब तक विदेशी निवेश नहीं होगा तब तक देश की प्रगति नहीं होगी । भारत में तंत्रज्ञान की न्यूनता है । विदेशी निवेशकों के साथ ही नया तंत्रज्ञान भी आएगा ।

     इस देशका निर्यात अल्प है और जब तक बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठान यहां नहीं आएंगे, तब तक निर्यात नहीं बढेगा । इस कारण विदेशी प्रतिष्ठानों को यहां आने दें । उन पर कोई भी बंधन न थोपकर सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएं । इससे उद्योगहीन / बेरोजगार युवाओं को काम मिलेगा और देश में उपजीविका के साधन बढेंगे तथा देश की अर्थव्यवस्था सक्षम बनेगी ।’

वैश्‍वीकरण से भारत को नहीं, अपितु विदेशी प्रतिष्ठानों को ही अधिक लाभ होना

     ‘कुछ सांसदों के माध्यम से लोकसभा में पूछे गए प्रश्‍न और उनके उत्तर –

अ. भारत में १९९१ से १९९७ तक विदेशी प्रतिष्ठानों के साथ कितने रुपयों के आर्थिक प्रस्ताव स्वीकारे गए ?

उत्तर : ९४ सहस्र करोड रुपए

आ. उसमें से प्रत्यक्ष में कितने धन का भारत में निवेश हुआ ?

उत्तर : १९ सहस्र ७०० करोड रुपए

     इसका अर्थ यह है कि ६ वर्षों में भारत द्वारा इतनी सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर भी २० सहस्र करोड डॉलर्स नहीं, अपितु केवल २० सहस्र करोड रुपए आए और वे भी केवल आर्थिक निवेश के रूप में ! इसका अर्थ यह है कि विदेशी निवेश विदेशियों के लाभ के लिए है, हमारे लाभ के लिए नहीं । संसार का कोई भी देश इतना मूर्ख नहीं कि वह आपके लाभ के लिए उनके धन का यहां निवेश करेगा । वर्ष १९८० से यूरोप और अमेरिका में मंदी है और अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार मंदी दूर करने के लिए धन की आवश्यकता होती है । इसलिए उन देशों के पास यदि धन होता, तो वे उसका उपयोग अपनी मंदी दूर करने के लिए करते  । इस देश का प्रत्येक वर्ष का अर्थसंकल्प (आर्थिक बजट) २ लाख ४० सहस्र करोड रुपयों का होते हुए प्रत्येक वर्ष ३ सहस्र करोड रुपयों का विदेशी निवेश नगण्य ही है ।’

वैश्‍वीकरण के नाम पर निर्धन देशों को लूटनेवाले धनवान देश !

     ‘लोकसभा में एक और प्रश्‍न पूछने पर वित्तमंत्री ने उत्तर दिया कि वर्ष १९९१ से १९९७ की अवधि में भारत से बाहर ३४ सहस्र करोड  रुपए चले गए । अर्थात संसार के ये तथाकथित विकसित देश निर्धन देशों को कभी भी धन नहीं देते, तो उनका ही धन ले जाते हैं ।

     जागतिक व्यापार संगठन के प्रतिवेदन के अनुसार वर्ष १९९५ – १९९६ की स्थिति इस प्रकार है –

अ. संसार के १२० निर्धन देशों में धनवान देशों द्वारा किया गया निवेश : ५०० बिलियन (अरब) डॉलर्स

आ. इसी वर्ष इन निर्धन देशों से अमेरिका और यूरोप के देशों में गया धन : ७२५ बिलियन (अरब) डॉलर्स

     कौन किसकी सहायता कर रहा है ? संपूर्ण संसार में कितनी यह ठगी चल रही है ?’

वैश्‍वीकरण के कारण विदेशी शेयरहोल्डर्स द्वारा भारत के ७० हजार कोटि रुपए की लूट !

     वैश्‍वीकरण के कारण भारत में धन आने पर शेयर बाजार में शेयर्स के भाव बढे और १५० रुपए का शेयर १ हजार ५०० रुपए में बेचा जाने लगा । लोगों ने अलंकार बेचकर, उद्योग बेचकर तथा शेयर्स खरीदे । मनमोहन सिंह कहते थे, ‘‘अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है ।’’ अर्थशास्त्र के अनुसार ‘केवल शेयर्स में वृद्धि होना’ लाभ नहीं दर्शाता । कुछ दिनों में शेयर्स के भाव गिर गए और ३ हजार रुपए का शेयर १०० रुपयों में भी कोई खरीदने के लिए तैयार नहीं था । तब रामनिवास मिर्जा की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई । समिति के ब्यौरे के अनुसार ‘शेयर मार्केट में विदेशी पूंजी लगाने के कारण भाव में कृत्रिम वृद्धि हुई । भारतवासियों ने अपने रुपए उसमें लगाए, बाद में विदेशी ७० हजार कोटि रुपए लेकर यहां से भाग गए ।’ ‘शेयर्स बेचकर बाजार से ४०० – ५०० कोटि रुपए लेनेवाले प्रतिष्ठान अस्तित्व में ही नहीं हैं’, यह स्पष्ट हुआ है । इस विषय में कोई नियम नहीं हैं और न किसी प्रकार के बंधन हैं । यहां अर्थमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह वैश्‍वीकरण की प्रशंसा कर रहे थे और उधर ७० हजार करोड रुपए लूट लिए गए; इसका उत्तरदायी कौन ? उत्तरदायित्व लेने को कोई भी तैयार नहीं !

     संसद की समिति के ब्यौरे द्वारा ‘सिटी बैंक ऑफ इंडिया’ को भारत से भगाने का निर्णय लिया गया । ‘सिटी बैंक’ इसके लिए उत्तरदायी थी । हर्षद मेहता इसका एक छोटा हिस्सा था । ‘‘इससे संसार में गलत संदेश जाएगा’’, कहते हुए डॉ. सिंह ने इस निर्णय का विरोध किया । हम अपने देश में चोर को चोर नहीं कह सकते, यह सोचने की बात है । यदि अमेरिका में किसी भारतीय बैंक ने इतना बडा घोटाला किया होता तो उसका बहिष्कार कर दिया गया होता । ‘सिटी बैंक ऑफ इंडिया’ के विरुद्ध अनेक साक्ष्य होने पर भी उसे भारत से नहीं निकाला गया क्योंकि डॉ. सिंह की ऐसी इच्छा नहीं थी । मैं दावा करता हूं कि ‘‘डॉ. मनमोहन सिंह अमेरिका के दलाल बनकर काम करते हैं ।’’ इतनी बडी हानि से आनेवाली मंदी अभी भी अल्प नहीं हुई है । अनेक प्रतिष्ठान और उद्योग बंद पडे हैं । मुझे ऐसे अनेक लोगों की जानकारी है, जिन्हें पूरी तरह लूटा गया और वे बेघर हो गए हैं । मनमोहन सिंह तथा चिदंबरम् के पास लूटा हुआ धन वापस लाने की कोई योजना नहीं ? (‘सिटी बैंक ऑफ इंडिया’ ने तत्कालीन कांग्रेस के शासन काल में कितने रुपए लूटे ? उत्तरदायी कौन ? इसकी पूरी खोज कर संबंधित लोगों पर कठोर कार्रवाई करते हुए विदेशियों द्वारा लूटा धन भारत वापस लाना चाहिए, यह राष्ट्रभक्तों की अपेक्षा ! – संपादक)

पुराने, फेंकने योग्य पदार्थ भारत में बेचकर देश को ‘कचरापेटी’ बनानेवाले अमीर देश !

     प्रथम ईस्ट इंडिया कंपनी ने शस्त्र के आधार पर देश को लूटा, अब केवल माध्यम बदला है । हमारे देश से ७० हजार करोड रुपए लूटे गए और हम शांति से देखते रहे । २ वर्षों के पश्‍चात हम ये सब भूल जाएंगे । जब से वैश्‍वीकरण प्रारंभ हुआ, तब से घोटाले बढ गए । वर्ष १९९१ से विदेशों से जो वादे हुए हैं उनमें से ५ प्रतिशत उच्च तंत्रज्ञान विषयक हैं   । अन्य शून्य प्रतिशत तंत्रज्ञान के हैं । जैसे पेप्सी, कोका कोला, आलू चिप्स, गेंहू का आटा, नमक, सौंदर्य प्रसाधन, अंतर्वस्त्र आदि । वर्ष १९७७ में मोरारजी देसाई के शासन ने शून्य प्रतिशत तंत्रज्ञान पर आधारित ८७० वस्तुओं की  सूची बनाई थी । इन वस्तुओं के लिए कोई भी बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठान भारत में नहीं आ सकता था । डॉ. मनमोहन सिंह ने नियम में परिवर्तन कर सभी वस्तुओं के निर्माण और विक्री के लिए भारत में खुली छूट दे दी । इसलिए यहां की वस्तुओं की विक्री घट गई । बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठानों ने अपने देश के पुराने, फेंकने योग्य पदार्थ भारत में बेचकर देश को कचरापेटी बना डाला ।

वैश्‍वीकरण के नाम पर यूरोप में प्रतिबंधित तंत्रज्ञान भारत में बेचा जा रहा है !

     जिन उत्पादों के लिए भारत में किसी भी तंत्रज्ञान की आवश्यकता नहीं है, ऐसे क्षेत्र में आजकल भारत में बहुत सारे बहुराष्ट्रीय (मल्टी नेशनल)प्रतिष्ठान काम कर रहे हैं, उदाहरण के लिए फेनक (साबुन), दंतमंजन, पादत्राण, टमाटर की चटनी, (सॉस) चॉकलेट आदि । इसके लिए उच्च तंत्रज्ञान की आवश्यकता नहीं होती ।

     कोई भी बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठान उपग्रह बनाना, दूरसंचारक्षेत्र अथवा क्षेपणास्त्र बनाना, ऐसे कार्य भारत में नहीं करता । जहां उच्च तंत्रज्ञान का प्रयोग होता है, वहां तंत्रज्ञान देने कोई भी देश अथवा बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठान सिद्ध नहीं हैं ।

     प्रधानमंत्रीपद पर रहते राजीव गांधी ने अमेरिका से महासंगणक और ‘क्रायोजेनिक इंजिन’ की मांग की; किंतु अमेरिका के तत्कालीन अध्यक्ष रोनाल्ड रेगन ने उसे नकार दिया । रूस भारत को ‘क्रायोजेनिक इंजिन’ देनेवाला था; किंतु अमेरिका के दबाव के कारण वह प्रस्ताव रद्द कर दिया गया ।

     अंत में भारतीय शास्त्रज्ञों ने वह चुनौती स्वीकार की । पुणे के ‘सी-डेक’ संस्था के संशोधकों ने कठोर परिश्रम कर ‘परम’ नामक पहला महासंगणक बनाया । उसके पश्‍चात ‘परम’ से भी अधिक विकसित ३ संगणक उन्होंने बनाए । भारत की प्रसिद्ध शोध संस्था ‘डीआरडीओ’ ने ‘क्रायोजेनिक इंजिन’ भी बनाया है ।

     तंत्रज्ञान आधुनिक समय का शस्त्र है और उसे कोई भी देश दूसरे को नहीं देगा । उसे अपने लिए स्वयं ही बनाना पडता है । वैश्‍वीकरण के नाम पर विगत कुछ वर्षों में यूरोप में प्रतिबंधित तंत्रज्ञान भारत भेजा गया है ।

उदारीकरण अर्थात भारतीयों को सस्ते में मारने का ठेका !

     तथाकथित अर्थ शास्त्री लॉरिन समर ने अपने सहयोगियों को एक पत्र लिखा था, कुछ समय पश्‍चात उसका रहस्य खुला । उसमें कहा गया था, ‘भारत की उदारता का लाभ उठाकर विकसित देशों का घातक तंत्रज्ञान हमें भारत में भेजना चाहिए; क्योंकि इस तंत्रज्ञान के कारण यदि भारत में कोई व्यक्ति मर गया, तो अमेरिका में मरे व्यक्ति की तुलना में उसका मूल्य अल्प होगा ।’

     इसका अर्थ इतना ही है कि भारत का व्यक्ति अमेरिकी शोधकेंद्रों का चूहा बनकर रह गया है । आज भारत द्वारा कैनेडा, न्यूजीलैंड तथा अमेरिका के साथ किए सैकडों अनुबंध के कारण वहां के निकम्मे तंत्रज्ञान भारत में लानेवाले हैं ।

     इसमें आण्विक कचरे से लेकर सुअर की गंदगी तक के अनेक विषय संलग्न हैं । यह सब उदारीकरण के नाम पर चल रहा है । भारत में ऐसी एक भी समिति नहीं बनी है, जो इन प्रस्तावों पर नियंत्रण रख सके ।

वित्त मंत्री बनते ही वैश्‍वीकरण के विरुद्ध रखे अपने ही निष्कर्ष को नकारकर
विश्‍व बैंक के बिचौलिए (दलाल) जैसा आचरण करनेवाले कांग्रेस के डॉ. मनमोहन सिंह !

     भारत के वित्त मंत्री बनने से पहले वर्ष १९८६ से १९८९ की समयावधि में डॉ. मनमोहन सिंह देश के आर्थिक महासंघ के मुख्य सचिव थे । वे भारत के ३ शासकीय विभागों के परामर्शदाता थे । साथ ही भारत के मुख्य अधिकोष ‘रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया’ के मुख्य (गवर्नर) थे । वे ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ देहली के सदस्य हैं और पूरे विश्‍व में एक ख्यातिप्राप्त अर्थ शास्त्री के रूप में उन्हें मान्यता है । भारत के वित्त मंत्री होने से पहले उनका एक शोध प्रकाशित हुआ था । उसमें विश्‍व के १७ निर्धन देशों का अध्ययन किया गया था । उसमें भारत, पाक और ब्रह्मदेश भी हैं । वर्ष १९८६ से १९८९ की समयावधि में इस देश में कितना निवेश आया और कितना गया, इसका तुलनात्मक अध्ययन उन्होंने किया ।

     उनकी गिनती के अनुसार उपर्युक्त समयावधि में इस निर्धन देश में ‘२१५ बिलियन डॉलर्स’ निवेश, सहायता और ऋण के रूप में बाहर से आया । इस देश से ‘३४५ बिलियन डॉलर्स’ का धन बाहर गया । इससे उन्होंने निष्कर्ष रखा कि ‘पूंजी कभी भी निर्धन देश में नहीं आती, अपितु यहां से जाती ही है ।’ तब ऐसा कहनेवाला व्यक्ति वित्त मंत्री बनने पर उसी वैश्‍वीकरण का समर्थक कैसे बन गया ? जब डॉ. सिंह वित्त मंत्री के रूप में काम करने लगे, तब वे केवल १ रुपया २५ पैसे का नाममात्र वेतन लेते थे; क्योंकि शेष वेतन उन्हें विश्‍व बैंक दे ही रहा था । जो मनुष्य विश्‍व बैंक का अधिकारी है और उनसे वेतन लेता है, वह विश्‍व बैंक को अभिप्रेत बात ही इस देश में करेगा, इसमें कोई शंका नहीं । जो व्यक्ति वित्त मंत्री बनने से पहले एक बात कहता था, वही व्यक्ति वित्त मंत्री बनने पर पूरी तरह अपनी ही बातों के विरुद्ध बोलने लगा ।

– स्वदेशी आंदोलन के प्रणेता स्व. राजीव दीक्षित (वर्ष १९९७)

देश की स्थिति बदलने के लिए स्वदेशी आंदोलन के पुनरुत्थान की आवश्यकता !

१. भारत के स्वदेशी आंदोलन का प्रारंभ और उसे मिलनेवाला प्रतिफल !

     वर्ष १९०५ में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया जिसके विरुद्ध भारत में स्वदेशी आंदोलन हुआ । इस आंदोलन ने देश के लोगों को जागृत किया । परिणामतः वर्ष १९११ में बंगाल का विभाजन रोका गया । इस स्वदेशी आंदोलन के आधार पर भारतीय स्वतंत्रता के अनेक आंदोलन हुए । इस आंदोलन की निम्नलिखित विशेषताएं हैं ।

अ. स्वदेशी आंदोलन की प्रेरणा से गांव-गांव में विदेशी कपडों का दहन किया गया ।

आ. जिस दुकान में विदेशी वस्तु की विक्री होती थी; उस दुकान के सामने महिलाएं और छोटे बच्चे सत्याग्रह करते थे । युवक दुकान के सामने खडे होकर विदेशी साहित्य खरीदने के लिए आनेवालों का प्रबोधन करते थे; यदि किसी व्यक्ति ने विदेशी वस्तु खरीदी, तो युवक उसे जला देते थे ।

इ. स्वदेशी का आग्रह तीव्र था; शक्कर इंग्लैंड से आती थी इसलिए लोगों ने शक्कर खाना बंद कर दिया । बहुत से घरों में विदेशी नमक खाना बंद हुआ ।

२. अन्य देशों की स्वदेशी संबधी जागरूकता !

२ अ. आर्थिक मंदी के समय लोगों में स्वदेशी की भावना जागृत कर स्वावलंबी होनेवाला जापान ! : दूसरे विश्‍वयुद्ध के समय अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों के ऊपर दो परमाणु बम गिराकर उन्हें नष्ट किया, जिससे जापान की अर्थव्यवस्था को गहरा आघात पहुंचा और जापान संसार का सबसे अधिक ऋणग्रस्त देश हो गया । इस परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए जापानी लोगों मेंे स्वदेशी की भावना जागृत की गई । जापान में प्राकृतिक संपदा कम होने पर भी लोगों में राष्ट्रनिष्ठा, देशभक्ति और स्वाभिमान होने के कारण वर्ष १९६५ से जापान स्वावलंबी हो रहा है । स्वदेशी आंदोलन सफल होने के कारण जापान के लोग अभी भी विदेशी वस्तुओं का उपयोग नहीं करते ।

२ आ. बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठानों से मुक्ति पाने के लिए स्वदेशी आंदोलन करनेवाला रूस ! : ९० के दशक में रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने वैश्‍वीकरण और उदात्त नीति का सहारा लेकर आंतरिक अर्थव्यवस्था बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठानों को सौंप दी; परिणामत: शक्तिमान राष्ट्र लाचार हुआ । अगले ५ – ७ वर्षों में उन्होंने रूस की अर्थव्यवस्था को बडे पैमाने पर हानि पंहुचाई । अगले राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने देश का विनाश रोकने के लिए रूस में स्वदेशी आंदोलन प्रारंभ किया ।

२ इ. स्वदेशी आंदोलन युद्ध के साथ जोडने से अमेरिका को विजय मिल सकी ! : १८ वीं शताब्दी के प्रारंभ में इतिहासकार फ्राक्नर ने लिखा है, अंग्रेजों से अमेरिका का युद्ध आरंभ होने से पहले अमेरिका ने अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार प्रारंभ किया था । उन्होंने अंग्रेजों से ऊनी और सूती कपडे खरीदना बंद कर दिया । अमेरिका में ऊनी कपडे तैयार करने के लिए भेडों को बचाना आवश्यक था । इसलिए लोगों ने भेड का मांस खाना बंद किया तथा स्वदेशी कपडों का (मोटी खादी) उपयोग प्रारंभ किया । स्वदेशी का यह आंदोलन युद्ध के साथ जोडने के कारण अमेरिका ने विजय प्राप्त की । उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि देश में गंभीर आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संकट आने पर उससे मुक्ति पाने के लिए स्वदेशी का मार्ग अपनाना पडता है ।

३. भारत में स्वदेशी आंदोलन से ही पुनरुत्थान हो सकता है !

     राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए भारतीय संस्कृति और भाषा का अभिमान स्वदेशी पर आधारित जीवनशैली विकसित करने पर ही साध्य हो सकता है । इसके लिए स्वदेशी विचारधारा का अधिकाधिक प्रसार आवश्यक है । वर्ष १९०५ में भारत में स्वदेशी आंदोलन हुआ था; फिर से नई ऊर्जा के साथ वैसा ही आंदोलन आरंभ करना आवश्यक है । इसके लिए सर्वप्रथम निम्नलिखित प्रयत्न करने चाहिए ।

३ अ. घर का दूरदर्शन बंद कर बच्चों का चारित्रिक पतन होने से बचाइए ! : ‘दूरदर्शन पर जो दिखाया जाता है; बच्चे उसका अनुकरण करते हैं । देहली के एक प्रसिद्ध विद्यालय के ७० – ८० प्रतिशत विद्यार्थी लैंगिक संबंध के व्यसनाधीन हैं । इसी प्रकार भारत में प्रतिदिन १४ से २० वर्ष की लाखों लडकियों के गर्भपात किए जाते हैं । बच्चे यह सब दूरदर्शन से ही सीखते हैं । वे मनोरुग्ण हो जाते हैं, आत्महत्या करते हैं और जल्दबाजी में निर्णय लेकर संपूर्ण जीवन बरबाद कर बैठते हैं । इस कारण दूरदर्शन बंद कर बच्चों का चारित्रिक पतन होने से उन्हें बचाइए, क्योंकि चरित्र नहीं तो कुछ भी नहीं ।’

३ आ. लुभावने विज्ञापनों से प्रेरित होकर उपयोग करनेवाली विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कीजिए ! : ‘कोलगेट, सिबाका, फोरहंस और क्लोजअप आदि अमेरिकी उत्पादनों का उपयोग मत कीजिए । दांत में अटके हुए भोजन के कण निकालकर मुख स्वच्छ रखने का काम हमारी जिह्वा अच्छी तरह करती है इसलिए दांत साफ करने के लिए किसी ब्रश की आवश्यकता नहीं होती । नीम अथवा बबूल की दातून दांत साफ करने के लिए उत्तम होती है । उसका उपयोग कीजिए । विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की प्रेरणा अधिक से अधिक लोगों को दीजिए । बहिष्कार एक ऐसा विस्फोटक है जो बडी से बडी दासता को तोड सकता है । अपने गांव, तहसील या जिले में तैयार होनेवाली वस्तुओं का उपयोग कीजिए । इससे भारत का पैसा भारत में ही रहेगा; विदेश नहीं जाएगा ।’

३ इ. केवल आर्थिक लाभ के लिए राष्ट्र का अहित करनेवाले बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठानों के विज्ञापन देनेवाले देशवासियों से प्रश्‍न पूछिए ! : अनेक प्रसिद्ध खिलाडी, क्रिकेट खिलाडी, अभिनेता विदेशी प्रतिष्ठानों का विज्ञापन करते हैं । इनके पास करोडों रुपए की संपत्ति होते हुए भी वे विदेशियों से करोडों का सौदा (डील) करते हैं । अमेरिका जैसे विदेशी राष्ट्रों का भारत से आर्थिक प्रतिबंध होने पर भी वे उनके उत्पाद का विज्ञापन क्यों करते हैं ? यह प्रश्‍न बार-बार पूछने पर उन्हें समाज में रहना कठिन हो जाएगा और वे विदेशी विज्ञापनों का बहिष्कार करना आरंभ कर देंगे; क्योंकि जो प्रेम और सम्मान भारतीय समाज से उन्हें मिला है; उतना अमेरिका, तथा अन्य कहीं भी नहीं मिल सकता ।

३ ई. स्पर्धा न कर, सहयोग आंदोलन करना आवश्यक ! : विदेश की स्पर्धात्मक नीति हिंसक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देती है । इससे भारत के पारंपरिक उद्योग जैसे कपडे की मीलें, तेल के कोल्हू, चरखे आदि छोटे-बडे ४ लाख ६२ हजार उद्योग बंद हुए हैं । भारत में ७०० कपडे की मीलों में से ३५० बंद हैं । स्पर्धा कभी समाप्त नहीं होती; बहिष्कार करना ही एकमात्र उपाय है ।

४. भारतीय वस्तुओं की अपेक्षा विदेशी वस्तुएं सस्ती क्यों ?

     उत्पादन व्यय कम होने के कारण विदेशी वस्तुएं भारतीय वस्तुओं की अपेक्षा सस्ती होती हैं । विदेश में कैदियों से नि:शुल्क उत्पादन करवाया जाता है । वहां मजदूर संगठन न होने के कारण उन्हें काम से कभी भी निकाल दिया जाता है । इस संबंध में वे उदासीन रहते हैं क्योंकि स्पर्धा में टिके रहना उनके लिए महत्त्वपूर्ण होता है । उन्हें उद्योग के लिए ९० पैसे प्रति युनिट बिजली दी जाती है; इसीलिए वे कम कीमत में वस्तुएं बेच सकते हैं ।  भारत में ४/५ प्रतिशत लोगों के पास करोडों रुपए की संपत्ति है । इसके विपरीत ९५/९६ प्रतिशत लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं भी पूर्ण नहीं होतीं । इसका कारण यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का ढांचा विदेशी है । विदेशों में गरीबी न होने के कारण वहां अर्थव्यवस्था का ढांचा स्पर्धात्मक है ।

     भारतीयों को उद्योग के लिए दुगने पैसे देकर बिजली लेनी पडती है तथा अनेक कर भरने पडते हैं; इसलिए भारतीय वस्तुएं महंगी होती हैं ।

     यदि हमने सहयोग के भाव से स्वदेशी माल खरीदा, तो बिक्री बढेगी । मांग बढने से बिक्री बढेगी, तो वही वस्तुएं सस्ती मिलेंगी । इस प्रकार के नियोजन से २५ वर्षों में निस्संदेह देश का विकास होगा ।

– स्वदेशी आंदोलन के प्रणेता स्वर्गीय राजीव दीक्षित