दैनिक की सेवा से साधकों में गुणवृद्धि करनेवाले सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी !

‘सनातन प्रभात’ नियतकालिकों के पूर्व समूह संपादक डॉ. दुर्गेश सामंत को सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी से सीखने के लिए मिले सूत्र

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ने वर्ष १९९८ में साप्ताहिक ‘सनातन प्रभात’ के माध्यम से पत्रकारिता कर अध्यात्मप्रसार, राष्ट्र एवं धर्मजागृति के उनके कार्य का विस्तार किया । ‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी आरंभ में स्वयं वर्ष १९९८ में आरंभित साप्ताहिक ‘सनातन प्रभात’ तथा वर्ष १९९९ में आरंभित दैनिक ‘सनातन प्रभात’ के ४ संस्करणों, साथ ही हिन्दी एवं अंग्रेजी मासिक ‘सनातन प्रभात’ के समूह संपादक थे ।’ इस अवधि में मैं (डॉ. दुर्गेश सामंत) संपादकीय विभाग में सेवा करता था । उस समय सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी से मुझे सीखने के लिए मिले कुछ विशेषतापूर्ण सूत्र यहां देने का मैंने प्रयास किया है ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी

१. जितना आवश्यक है, उतना ही जमा करने के लिए बताना !

वर्ष १९९८ में साप्ताहिक ‘सनातन प्रभात’ आरंभ हुआ । उस समय मैं साप्ताहिक ‘सनातन प्रभात’ में कुछ विषयों पर लेखन करने लगा । ‘देश, समाज आदि विषयों पर लेख लिखने हों, तो उसके लिए कुछ आवश्यक संदर्भयुक्त जानकारी अपने पास होनी चाहिए’, ऐसा लगने से मैं मेरे पास आनेवाला समाचारपत्र पढकर उसमें किस विषय पर उपयुक्त लेखन है ?, यह देखकर संबंधित पृष्ठ पर उसे चिन्हित कर संबंधित दैनिकों को संग्रहित करने लगा । कुछ दिन उपरांत प.पू. डॉक्टरजी (सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी) से दूरभाष पर बात करते समय मैंने उन्हें यह सूत्र बताया । उन्होंने उसी समय मुझे बताया, ‘‘जितना आवश्यक है, उतना ही कतरन काटकर रखें । अकारण आप समाचारपत्र के पृष्ठों का क्यों संग्रह करते हैं’’ आगे जाकर जब मुझे प.पू. डॉक्टरजी के साथ प्रत्यक्ष सेवा करने का अवसर मिला, उस समय ‘वे निश्चितरूप से कैसे करते हैं ?’, यह मुझे सीखने के लिए मिला ।

२. अल्प समय में अन्य समाचार पत्र पढकरउसमें समाहित चयनित लेखन को चिन्हित करनेवाले सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी !

डॉ. दुर्गेश सामंत

आगे जाकर वर्ष १९९९ में गोवा से दैनिक ‘सनातन प्रभात’ आरंभ हुआ । आरंभ में गोवा के सभी स्थानीय मराठी एवं अंग्रेजी समाचार पत्र संपादकीय विभाग में मंगाए जाते थे । अल्पावधि में ही प.पू. डॉक्टरजी ने अंग्रेजी समाचार पत्र बंद करने के लिए कहा । उसके उपरांत दैनिक ‘सनातन प्रभात’ के लिए विज्ञापन लेने की सेवा करनेवाले साधकों को जिन अंग्रेजी समाचार पत्रों की आवश्यकता थी, उतने समाचार पत्र कुछ समय तक जारी रहे ।

प.पू. डॉक्टरजी समाचार पत्र पढते समय पहले पृष्ठ से लेकर अंतिम पृष्ठ तक का पूरा लेखन पढते थे तथा उन्हें जो लेखन उपयुक्त लगता था, उस लेखन को वे चिन्हित करते थे । प्रत्येक चिन्हित लेखन पर ‘वह किसलिए है ?’, इसकी प्रविष्टि की होती थी, उदा. ‘लावारिस कुत्ते ने छोटे बच्चे को काटा’, यह समाचार हो, तो उस समाचार को चिन्हित किया जाता था तथा वही कोने में ‘लावारिस कुत्ते’, यह विषय लिखा होता था । इन चिन्हित उल्लेखों के आधार पर तथा चिन्हित लेखन से ‘प.पू. डॉक्टरजी एक ही समय पर विभिन्न विषयों की ओर कितनी व्यापक दृष्टि से देख रहे हैं’, यह मेरे ध्यान में आया तथा उससे ‘हमने यदि किसी विषय का अध्ययन करना सुनिश्चित किया, तो हमें उसकी ओर कितने व्यापक तथा विभिन्न दृष्टिकोणों से देखना पडेगा’, यह सीखने के लिए मिला । सबसे विशेष बात यह थी कि वे १५ से २० मिनट में ५-६ समाचार पत्र पढकर उन्हें चिन्हित कर पूरा करते थे । मानो ‘किस पृष्ठ पर क्या पढना चाहिए ?’, यह उन्हें अपनेआप ही तथा उसमें समाहित २-४ वाक्य पढकर ही ध्यान में आता हो ।

इस प्रकार ‘समाज’, ‘सडकें’, ‘शोध कार्य’, ‘अध्यात्म’, ‘धर्म’, ‘युद्ध’, ‘स्त्री’ जैसी विभिन्न एकशब्दीय प्रविष्टियों से युक्त कतरनें काटकर उनका वर्गीकरण कर उन्हें आगे जाकर संग्रहित किया गया । उसके उपरांत विभिन्न विषयों पर आधारित ग्रंथनिर्मिति के समय उस लेखन का उपयोग हुआ ।

३. समाचारों पर संपादकीय दृष्टिकोण देना सिखाकर विचार विकसित होने के लिए गति मिलना !

अन्य समाचार पत्रों में प्रकाशित कुछ समाचारों पर प.पू. डॉक्टरजी किसी वाक्य में स्वयं के दृष्टिकोण लिखकर रखते थे । उसके पश्चात उन दृष्टिकोणों का अध्ययन कर संपादकीय विभाग का कोई साधक दृष्टिकोणों की चौखटें बनाता था । उन्हें पुनः जांचने हेतु प.पू. डॉक्टरजी के सामने रखा जाता था । उनके द्वारा सुधार किए जाने के उपरांत अगले दिन वो चौखटें दैनिक ‘सनातन प्रभात’ में छापी जाती थीं । उससे साधकों को तथा पाठकों को ‘समाचारों की ओर किस दृष्टि से देखना चाहिए ?’, यह सीखने के लिए मिला । कुछ अवधि के उपरांत उन्होंने समाचारों पर कुछ भी न लिखकर केवल उन्हें चिन्हित कर भेजना आरंभ किया । तो ‘उसमें कौनसा दृष्टिकोण अभिप्रेत हो सकता है ?’, इसपर विचार कर संपादकीय विभाग का संबंधित साधक चौखट तैयार करता था । उसके उपरांत वह चौखट जांचने हेतु उसे प.पू. डॉक्टरजी के पास भेजा जाता था । इससे सीखने की अगली प्रक्रिया हुई । उसके उपरांत उन्होंने कहा कि ‘इसके आगे दैनिक में छापने से पूर्व चौखटों को जांचने के लिए मेरे पास न भेजें ।’ वे उन चौखटों को अगले दिन के दैनिक में पढते थे । इससे समाचार पत्रों के लेखन से समस्याओं की खोज कैसे करनी चाहिए ? तथा उसपर समाज, राष्ट्र एवं धर्म के हित की दृष्टि से निश्चित रूप से कौनसे विचार रखे जाने चाहिए ?’, इसका दिशादर्शन हुआ । हम भी इसी प्रकार से अन्य समाचार पत्र, साथ ही हमारा दैनिक (दैनिक ‘सनातन प्रभात’) पढकर उक्त पद्धति से चौखटें बना पाएं, इसके लिए प.पू. डॉक्टरजी ने हमें प्रोत्साहित किया । इससे हमारे विचार विकसित होने में सहायता मिली ।

‘कार्यालय में आए अन्य समाचार पत्र के संपादक को निश्चित रूप से क्या बताना है ?’, इसके संदर्भ में दिया विशेष दृष्टिकोण !

शुद्धलेखन का अभ्यास करते समय विभाग के साधक ! (वर्ष १९९९)

एक बार एक प्रतिष्ठित मराठी दैनिक के संपादक हमारे कार्यालय में आए । उनके आने से पूर्व उन्हें सामान्य की भांति सनातन संस्था का कार्य तथा दैनिक ‘सनातन प्रभात’ का कार्यालय दिखाने के साथ ही मैं उन्हें और क्या दिखाऊं अथवा बताऊं ?, यह पूछने के लिए मैं प.पू. डॉक्टरजी के पास गया । उन्होंने बताया, ‘‘हम अपने दैनिक में शुद्धलेखन अच्छा हो, इसके लिए क्या करते हैं ?, यह आप उन्हें बताइए । उसके साथ ही उन्हीं के समाचार पत्र में अंदर के पृष्ठ पर एक स्तंभ आकार का; परंतु वैसे बहुत अल्प महत्त्ववाला समाचार पढकर, हम हमारे दैनिक में उसपर अपना विचार रखते हैं, यह उन्हें आप दिखाइए ।’’ जब वे संपादक हमारे कार्यालय में आए, तब मैंने उन्हें पूरा कार्यालय दिखाया तथा उसके उपरांत उक्त दो सूत्र बताए । शुद्धलेखन के संदर्भ में जानकारी सुनकर वे संपादक कहने लगे, ‘‘यह बात विशेष है । आजकल शुद्धलेखन क्या होता है ?, इस विषय में दैनिक कार्यालय में काम करनेवाले अनेक लोगों को ज्ञात ही नहीं होता ।’’ ‘उनके समाचार पत्र में छपे छोटे से समाचार पर भी हम किस प्रकार दृष्टिकोण देते हैं’, इसका उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ । इससे मुझे ‘जब कोई हमारे यहां आता है, तो उन्हें निश्चित रूप से क्या दिखाना अथवा बताना चाहिए ?’, यह एक पहलू सीखने के लिए मिला ।

४. ‘सेवाओं में निश्चित रूप से कहां सुधार करना है ?’, यह बताते समय विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोण देना !

४ अ. सेवा सुचारू न होने का कारण समझ में न आना ! : गोवा के दोनापावला में सबकुछ नए सिरे से आरंभ हुआ था । दैनिक प्रतिदिन समय पर पूरा होना किसी न किसी कारणवश कठिन होता था । दैनिक के सभी उपविभागों के साधकों की सेवाएं एक-दूसरे पर निर्भर थीं । स्वाभाविक रूप से प्रत्येक साधक को ‘मेरे पूर्व के उपविभाग के कारण हमें समस्याएं आ रही हैं’, ऐसा लगता था । पृष्ठों की रचना करनेवाले (फॉर्मेटर) तथा संपादकीय संस्करण करनेवालों के मध्य होनेवाले मतभेद तो सामान्य बात बन चुकी थी । कुल पूरा दायित्व मुझपर होने से ‘किस कारण ? क्या ? कहां चूक हो रही है ? तथा निश्चितरूप से कहां तथा क्या उपाय करने से थोडासा तो सुचारू होगा’, यह मेरी समझ में नहीं आता था । प.पू. डॉक्टरजी प्रतिदिन दैनिक पर चिन्हित कर १० – १५ चूकें दिखाते थे । उसके कारण मैं त्रस्त हो चुका था ।

४ आ. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी द्वारा ‘निश्चित रूप से कहां चूक हो रही है ?’, यह बताना तथा उसके पीछे का ध्यान में आया हुआ आध्यात्मिक दृष्टिकोण ! : उसके पश्चात मैंने प.पू. डॉक्टरजी से पूछा, ‘‘निश्चित रूप से कहां चूक हो रही है ? कहां सुधार करना चाहिए ?’’ तथा मैं और संपादकीय विभाग के अन्य साधक जहां बैठक करने बैठते थे, उस पटल की ओर निर्देश कर उन्होंने कहा, ‘‘वहां सुधार होना चाहिए !’’ इसपर मुझे आश्चर्य हुआ । इस संदर्भ में ‘वे अन्य उपविभागों के संदर्भ में भी बताएंगे’, यह मेरी अपेक्षा थी । तो मैंने उनसे पूछा, ‘‘यह आपको कैसे ज्ञात हुआ ?’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं इसमें फंसा नहीं हूं; इसलिए !’’

उनके इस वाक्य का कार्यसापेक्ष व्यावहारिक अर्थ तथा उसके पीछे की विचारधारा मुझे तुरंत ध्यान में आई । उसके अनुसार हमने कृति करना भी आरंभ किया; परंतु उसके पीछे का मेरी समझ में आया हुआ आध्यात्मिक स्तर का दृष्टिकोण यह था, प.पू. भक्तराज महाराजजी के ‘गुंतूनी गुंत्यात पाय माझा मोकळा (अर्थात उलझन में उलझकर भी मैं मुक्त हूं’, इस वचन के अनुसार प.पू. डॉक्टरजी इस माया में संलिप्त नहीं हैं । उसके कारण उन्हें कहां, क्या और कितना सुधार करना चाहिए ?’, यह अच्छे से समझ में आता है । जैसे जो माया में संलिप्त नहीं होता, उसे सत्य का ज्ञान होता है; इसलिए वह ज्ञानी माया में फंसे जीवों को एक निश्चित मार्ग दिखा सकता है, वैसे ही यह है । गृहस्थी में संलिप्त व्यक्ति को उसमें समाहित दोष, अहं आदि के कारण ‘निश्चितरूप से आगे कैसे बढना चाहिए ?’, यह समझ में नहीं आता । यह बात मेरी समझ में आई ।

पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ के रजत जयंती महोत्सव के उपलक्ष्य में प.पू. डॉ. आठवलेजी ने जो सिखाया, उसे यहां प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । केवल संपादक के रूप में नहीं, अपितु एक साधक के रूप में प.पू. डॉ. आठवलेजी ने मुझे तैयार किया, इसके लिए उनके चरणों में कृतज्ञता !

– डॉ. दुर्गेश सामंत, ‘सनातन प्रभात’ नियतकालिकों के पूर्व समूह संपादक