सप्तर्षि स्तवन विशेष के उपलक्ष्य में…
अब तक विश्व में अनेक संस्कृतियों का उद्भव हुआ तथा वे नष्ट भी हुईं; परंतु प्राचीन भारतीय सनातन हिन्दू संस्कृति लाखों वर्षाें से टिकी हुई है । केवल इतना ही नहीं; अपितु प्राचीन काल में संपूर्ण पृथ्वी पर केवल हिन्दू संस्कृति ही थी । हिन्दू संस्कृति विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है । ऋषि-मुनि ही सनातन हिन्दू धर्म संस्कृति के उद्गाता हैं ! हमारे पास सृष्टि की निर्मिति से लेकर अब तक का इतिहास है । ऋषि-मुनि तो साक्षात ईश्वर की निर्मिति हैं । मनुष्य एवं देवता के मध्य की कडी हैं ! उनसे ही मनुष्य के अगले वंश की उत्पत्ति हुई । सर्वप्रथम ऋषियों ने ही मानव जीवन व्यतीत करने हेतु आवश्यक साधनों का आविष्कार किया । उन्होंने मनुष्य के जीवनोद्धार हेतु अनिवार्य वेदों का ज्ञान समाज तक पहुंचाया । ऐसे त्यागी एवं तपस्वी ऋषियों के मनुष्य पर अनंत कोटि उपकार हैं । इस विशेषांक के माध्यम से हम उनकी जानकारी लेंगे, साथ ही मनुष्य के लिए देवता-समान इन ऋषियों के प्रति कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करेंगे !
सप्तर्षि : वैदिक धर्म के संरक्षक !मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि, इंद्र एवं देवता, ये सभी भगवान की आज्ञा में होते हैं । भगवान की प्रेरणा से ही मनु इत्यादि विश्व का संचालन करते हैं । चारों युगों के अंत में काल जब वेदों को निगल जाता है, तब ऋषि ही अपनी तपस्या के बल पर पुनः उनका साक्षात्कार करते हैं ! उनके कारण ही सनातन धर्म की रक्षा होती है; इसीलिए वेदों में ७ ऋषियों को वैदिक धर्म का संरक्षक माना गया है । |
भगवान के द्वारा उत्पन्न किया गया काल !
भगवान ने काल की उत्पत्ति की तथा युगों की निर्मिति की । उस काल को हम पहचान सकें; इसके लिए उन्होंने उसे विभिन्न संज्ञाएं भी दीं । पल, घटिका, प्रहर, दिन, रात, वर्ष तप, युग, महायुग एवं मन्वंतर, इन संज्ञाओं में काल की गणना की जाती है ।
• युग : सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलियुग ! एक-एक युग लाखों वर्षाें का होता है ।
• महायुग (‘चतुर्युग’) : ४ युग मिलकर १ महायुग बनता है । उसके कुल वर्ष ४३ लाख २० सहस्र वर्ष हैं ।
• मन्वंतर : ऐसे ७१ महायुग मिलकर १ मन्वंतर बनता है ।
• कल्प : ऐसे १४ मन्वंतर अर्थात एक कल्प ! एक कल्प ब्रह्माजी का एक दिन तथा एक रात होती है ।
प्रत्येक मन्वंतर के सप्तर्षि भिन्न हैं !
प्रत्येक मन्वंतर में भिन्न सप्तर्षि होते हैं । १४ मन्वंतरों के कुल ९८ ऋषि माने गए हैं, पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है । अंगिरस अर्थात भृगु, अत्रि, क्रतू, पुलस्त्य, पुलह, मरिची एवं वसिष्ठ, ये सभी ‘स्वायंभुव’ नामक प्रथम मन्वंतर के सप्तर्षि थे । वर्तमान समय में चल रहा मन्वंतर ७ वां मन्वंतर है, जिसे ‘वैवस्वत’ मन्वंतर के रूप में जाना जाता है । इसका अर्थ वर्तमान समय में हम सभी वैवस्वत मन्वंतर में विचरण कर रहे हैं । इस वैवस्वत मन्वंतर में हमें कौनसे सप्तर्षि प्राप्त हैं ? सप्तर्षि किस रूप में हम सभी के लिए कृपावंत हुए हैं ? इस मन्वंतर के सप्तर्षि हैं महर्षि कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं भारद्वाज !
सप्तर्षि की ७ गुणविशेषताएं !
१. उनकी आयु बहुत लंबी है ।
२. उन्होंने मंत्रों को प्रकट किया है ।
३. वे ऐश्वर्यसंपन्न हैं ।
४. भगवद्कृपा से उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है ।
५. वे गुण एवं विद्या से युक्त हैं ।
६. वे धर्म की वृद्धि के कार्य में निरंतर प्रयासशील होते हैं ।
७. वे गोत्रों के प्रवर्तक हैं ।
इन ७ गुणों से युक्त सप्तर्षि साक्षात भगवान के ही अंश हैं ।
(संदर्भ : भक्तिसत्संग, सनातन संस्था)
प्रलयकाल में भी सप्तर्षि को जीवित रखनेवाला मत्स्यावतार !
भगवान श्रीविष्णु का प्रथम अवतार है मत्स्यावतार ! जब प्रलय आया, उस समय सबकुछ नष्ट हो गया । सर्वत्र पानी ही पानी हो गया था । तीनों लोक उस पानी में डूब गए । बचे रहे केवल सप्तर्षि एवं सत्यव्रत मनु ! भगवान ने उनकी रक्षा हेतु एक विशाल नौका भेजी थी । सत्यव्रत मनु एवं सप्तर्षि के पास ही निर्मिति का संपूर्ण बीज था । पशु, पक्षी, वनस्पति, अनाज जैसे सभी प्रकार की निर्मिति के प्रत्येक घटक का बीज उनके पास था । प्रलयकाल में साक्षात भगवान के विशाल मत्स्यावतार ने सप्तर्षि एवं मनु को उस नौका से विहार करवाया तथा उनकी रक्षा की । प्रलय समाप्त होने के उपरांत उसी निर्मितिबीज के आधार पर सप्तर्षि एवं मनु ने पुनः सृष्टि को विस्तार किया ।
सृष्टि एवं ब्रह्मांड के संचालन का दायित्व !
इस सृष्टि के निर्माता भले ही भगवान हैं; परंतु तब भी उन्होंने सृष्टि के विस्तार का कार्य सप्तर्षि को सौंपा है । उन्होंने निर्मिति का बीज सप्तर्षि को प्रदान किया है । उस बीज से ही आगे जाकर इस सृष्टि का भीषण विस्तार संभव होता है । ब्रह्मांड के व्यवस्थापन हेतु ही भगवान ने सप्तर्षि की निर्मिति की है । इस प्रकार से इस चराचर सृष्टि की निर्मिति के माध्यम, इन सप्तर्षि के चरणों में चाहे कितनी भी कृतज्ञता व्यक्त करें, अल्प ही है !