‘विगत ८ दशकों से पिछली पीढी तक भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भी प्रत्येक छात्र का भावविश्व ‘कैमलिन’ के बिना केवल अधूरा है । अब लेखनसामग्री के भले ही अन्य प्रतिष्ठान होें, तब भी आज भी एक गुणवत्ता के रूप में ‘कैमलिन’ की सामग्री को ही परंपरा के कारण प्रधानता दी जाती है । महाराष्ट्र में अनेक विख्यात उद्यमीोगपति तैयार हुए, उन्हीं में से एक थे ‘कैमलिन’ के दांडेकर ! १५ जुलाई को ‘कैमलिन’ के सर्वेसर्वा सुभाष दांडेकर के निधन का समाचार मिला तथा प्रत्येक साक्षर को कुछ क्षणों तक के लिए वे उसकी छात्रावस्था में ले गए !
सुभाष दांडेकर के पिता ने भी उस काल में रसायनशास्त्र में स्नातक की उपाधि ली थी तथा उसके उपरांत वर्ष १९३१ में स्याही एवं गोंद (गम) बनाने का व्यवसाय आरंभ किया । ऊंट एक विश्वसनीय, कठिन काल में साथ निभानेवाला तथा लंबे समय तक चलते रहनेवाला पशु है । इसलिए उनके पिता ने सभी की स्मृति में रहेगा, इस प्रकार का सरल नाम का ‘ब्रैंड’ चुना । वर्ष १९४२ में मोहनदास गांधी द्वारा चलाए गए स्वदेशी अभियान से प्रेरणा लेकर दांडेकर के पिता ने बडे परिश्रम से स्याही तैयार की थी; परंतु उसे बेचने में समस्याएं आती थीं; क्योंकि उस समय ‘भारत में इतना अच्छा उत्पादन बन सकता है’, इसपर कोई विश्वास नहीं करता था । उसके कारण जब आगे जाकर सुभाष दांडेकर ने वर्ष १९५८ में इस व्यवसाय में ध्यान देना आरंभ किया, उस समय उन्होंने मन में दृढता रखी कि ‘इसमें नया कुछ करना है ।’ जिस काल में आलपीन से लेकर इंजिन तक प्रत्येक वस्तु का आयात किया जाता था, उस काल में उनमें उत्कट प्रेरणा थी कि ‘मैं कुछ स्वदेशी उत्पादन बनाऊंगा ।’ उसके कारण ही वे आज ‘कैमलिन’ को अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता प्राप्त कराकर उसे अनेक वर्षाें तक टिकाए रख सके । आज उनकी चौथी पीढी की भी सुभाष दांडेकर की यह बहुमोल सफलता संजोने की इच्छा है, यह प्रशंसनीय है ।
सभी भारतीय चित्रकारों ने ‘कैमलिन’ के रंगों का उपयोग किया । भारत के सभी चित्रकार ‘कैमलिन’ के सदैव ऋणी रहेंगे; क्योंकि हाल के समय में उन्होंने ही भारत में सर्वप्रथम रंगों का उत्पादन आरंभ किया तथा आगे जाकर उसमें शोधकार्य कर विभिन्न प्रकार के रंग तैयार किए । सभी भारतीय चित्रकारों को रंगमय बनने में सहायता होने से उनकी जीविका का प्रबंध हुआ । भारतीय चित्रकला के विश्व में रंगों के जगत का ‘रंगभरा जगत’ बनाने की नींव ‘कैमलिन’ के रंगों ने रची ! ‘पोस्टर कलर’, छात्रों के लिए बनाए गए ‘वॉटर कलर’, कलाकारों के लिए बनाए गए ‘वॉटर कलर’, ‘एक्रिलिक कलर’, ‘ऑईल कलर’, इस प्रकार से उनकी औद्योगिकता के रंग ऊंचाई छूते रहे ।
सफलता का रहस्य !
‘गुणवत्ता’ दांडेकर के सफल उद्योग का महत्त्वपूर्ण रहस्य है । स्याही, रंग से लेकर छोटी से छोटी सामग्री के विषय में उन्होंने कभी भी समझौता नहीं किया । उनका यह कहना था कि ‘मेरी स्याही अथवा रंग आज इस तापमान में अच्छा है, वह देहली के तापमान में भी अच्छा रहना चाहिए, तभी जाकर मेरे उत्पादन का मूल्य है ।’ अब भी उनके प्रतिष्ठान में उत्पादन बनते समय एक भी अल्प गुणवत्तावाला उत्पादन दिखाई दिया, तो कर्मचारी को बटन दबाकर उस यंत्र को बंद करने की सुविधा एवं अधिकार है । उन्होंने जापान की एक परिषद से ‘शून्य चूक’ (‘जीरो डिफेक्ट’) संकल्पना की प्रेरणा ली थी तथा उन्होंने उसका कार्यान्वयन करने का प्रयास किया । ‘टैलेंट’ (कौशल), ‘टेक्नोलॉजी’ (प्रौद्योगिकी) ‘ट्रेनिंग’ (शिक्षा) तथा ‘टीम’ (कर्मचारी), इन चार ‘टी’ का उपयोग उन्होंने उचित पद्धति से किया । रतन टाटा उनके व्यवसाय के आदर्श थे, इसका मुख्य कारण था कि वे प्रामाणिकता एवं नैतिकता से व्यवसाय करते थे । उन्होंने प्रतिष्ठान को मिलनेवाले कुल आर्थिक लाभ में से २० से २५ प्रतिशत लाभ कर्मचारियों को देने की पद्धति आरंभ की । अधिकारीवर्ग से लेकर कर्मचारियों तक सभी स्तरों को अच्छा वेतन, कर्मचारियों के साथ अत्यंत अपनेपन का व्यवहार तथा दुख एवं कठिन प्रसंगों में उनके साथ रहना; यह प्रतिबद्धता उन्होंने सदैव रखी । कर्मचारियों के वेतन उनके अधिकोष के खाते में जमा होने के कारण उन्हें कभी भी कर्मचारियों से संबंधित समस्याएं नहीं आईं । उनके पिता ने उस समय ‘प्रॉविडेंट फंड’, ‘बोनस’, ‘प्रसवकालीन अवकाश’ जैसी सुविधाएं देने की प्रथा न होते हुए भी उन्हें आरंभ किया था । उनका कहना था कि ‘कर्मचारियों को ‘यह हमारा उद्योग है’, ऐसा लगना चाहिए ।’ यह उनकी सफलता का दूसरा रहस्य था । कुछ दशकों पूर्व से संयुक्त परिवार में व्यवसाय खडा करना तथा उसे चलाते रखना सरल नहीं था । कोई नया अथवा अलग निर्णय लेना पडा, तो उससे संबंधित सभी को उससे अवगत कराना पडता था । अर्थात ही यह कौशल उनमें था तथा उन्होंने उसे प्रामाणिकता के साथ निभाया भी; इसलिए उनका व्यवसाय सफल रहा । ‘नए उद्योगपतियों को काल के आगे का विचार करना सीखना चाहिए ।दांडेकर का कहना था कि प्राणियों को जैसे भूकंप की पूर्वकल्पना होती है, वैसे उद्योगपतियों को काल के आगे की आहट पहले ही समझ में आनी चाहिए ।’
रसायनशास्त्र की स्नातकोत्तर शिक्षा हेतु वे ‘ग्लास्गो’ महाविद्यालय चले गए । वहां उन्हें रंगों का ज्ञान रखनेवाले अच्छे मार्गदर्शक मिले । उनसे उन्होंने बहुत कुछ सीखा तथा शोधकार्य किया । भारत में रंगों का ‘काम’ करना है, इस विचार को मन में रखकर ही वे वहां गए थे तथा वहां से वापस आने पर उन्होंने प्राप्त ज्ञान का उपयोग कर अभियंता तथा कलाकार जिसका उपयोग करते हैं, वह ‘वॉटरप्रूफ ड्रॉईग इंक’ सबसे पहले बनाई । ब्रिटेन एवं जर्मनी की प्रयोगशालाओं में उन्होंने विभिन्न प्रकार के परीक्षण तथा शोधकार्य किए तथा वर्ष १९६२ में विदेश में न रहकर भारत में ही अपने व्यवसाय की वृद्धि करने का निर्णय लिया । रंग उनका ‘मिशन’ (ध्येय) तथा ‘पैशन’ (रुचि) बनी । उसके आगे उन्होंने पीछे मुडकर देखा ही नहीं । ग्राहकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उन्होंने रंगों के साथ ‘कैनवास’, ‘ब्रश’, ‘ऑईल स्केचिंग पेपर’, कंपासबॉक्स जैसे अनेक उत्पादन तैयार किए । वर्ष १९७२ से उनके द्वारा आरंभ की गई ‘ऑल इंडिया कैमल चित्रकला’, इस विद्यालयीन प्रतियोगिता में अभी तक ४८ लाख छात्रों ने भाग लिया है । उन्होंने ‘कैमल आर्ट फाउंडेशन’ की निर्मिति की । भारत में उन्होंने ही पहले ‘लीड पेंसिल’ बनाई । कुछ वर्ष पूर्व कैमलिन प्रतिष्ठान ने ‘कोकूयो’ नामक जापानी प्रतिष्ठान के साथ अनुबंध कर संयुक्त प्रतिष्ठान बनाया । सुभाष दांडेकर भले ही अब हममें नहीं रहे; परंतु एक ‘आदर्श तथा ध्येयनिष्ठ उद्योगपति कैसा होना चाहिए ?’, इसका उन्होंने आदर्श स्थापित किया । नैतिकता एवं प्रामाणिकता के कारण सफल बने ‘कैमलिन’ के सुभाष दांडेकर से नए उद्योगपति प्रेरणा लें !
नैतिकता एवं प्रामाणिकता से कभी भी समझौता न कर, सफल हुए उद्योगपति ‘कैमलिन’ के सुभाष दांडेकर को श्रद्धांजलि ! |