१. प.पू. डॉक्टरजी में नित्य जीवन में घटित होनेवाली प्रत्येक घटना का अध्यात्मशास्त्र जानने की लालसा होना तथा इसी से समष्टि हेतु अमूल्य ज्ञानभंडार की निर्मिति होना !
‘प्राणशक्ति बहुत अल्प होते हुए भी प.पू. डॉक्टरजी उनके आसपास होनेवाली प्रत्येक घटना का निरीक्षण करते हैं तथा उनकी नियमित प्रविष्टियां भी रखते हैं । इस प्रत्येक निरीक्षण के विषय में वे साधकों से बात कर उनमें समाहित सूक्ष्म विशेषताएं भी जान लेते हैं तथा उस विषय में सभी को ज्ञात हो; इसके लिए उनसे संबंधित छोटी-छोटी चौखटें बनाकर उन्हें तुरंत दैनिक ‘सनातन प्रभात’ में छापने हेतु देते हैं ।
२. प.पू. डॉक्टरजी के निरीक्षण तथा उनके द्वारा निकाले गए प्रश्नों से रहस्य के रूप में एक बडा अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन विश्व के सामने आना
कक्ष में कोई कीडा भी मरा पडा, तब भी ‘वह कितने घंटे जीवित था, उसकी मृत्यु कब हुई, साथ ही कोई मक्खी भूमि पर पडी हो तथा उसके उपरांत वह उड गई’, तब भी वे यह प्रश्न पूछते हैं, ‘कुछ कीडे तुरंत मर जाते हैं, कुछ कीडे तडपकर पुनः जीवित होकर उड जाते हैं, तो कुछ कीडे वहां मृत पाए गए; जबकि कुछ समय पश्चात वे वहां नहीं होते’, इसका क्या शास्त्र है ?’ इसमें किसी को ऐसा लगेगा कि इसपर क्या प्रश्न पूछें; परंतु प.पू. डॉक्टरजी के निरीक्षण से तथा उनके द्वारा निकाले गए प्रश्नों से रहस्य के रूप में किसी प्रगल्भ शास्त्र के माध्यम से विश्व के सामने एक बडा अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन ही आता है तथा सचमुच ही प्रत्येक बात के पीछे ईश्वर का कार्यकारणभाव कितना उदात्त होता है ?, इससे इसका भी ज्ञान होता है ।
ऐसे अनेक प्रकार के निरीक्षणों से वे प्रश्न भी लिखकर रखते हैं तथा ‘सूक्ष्म जगत’ के ‘एक विद्वान’ से इन प्रश्नों के उत्तर पूछने हेतु वे उनका टंकण कर लेते हैं । अगली पीढी हेतु किसी ग्रंथ के रूप में मनुष्यजाति के लिए इन प्रश्नों का भी संरक्षण होगा, वे इतने चैतन्यमय एवं सुंदर होते हैं ।
३. प.पू. डॉक्टरजी के अविरत ज्ञानार्जन की लालसा से ही सनातन के द्वारा ४००० ग्रंथों की निर्मिति होगी, इतनी ज्ञानरूपी जानकारी इकट्ठी होना तथा अभी तक का कार्य ग्रंथरूप में पूर्ण होने हेतु अगले ३-४ पीढियों की आवश्यकता होना
अभी तक उन्होंने अनेक प्रकार के तथा अनेक विषयों पर पूछे गए प्रश्नों की सूची भी तैयार कर रखी है । ‘सूक्ष्म जगत’ से प्रत्येक प्रश्न का उत्तर आने के उपरांत वे उसपर प्रति-प्रश्न पूछते हैं । जब तक वह विषय संतुष्टि होने तक पूर्ण नहीं होता, तब तक वे प्रश्न पूछते रहते हैं । कोई सामान्य मनुष्य होता, तो उसे कभी न कभी ये बातें उबाऊ लगतीं; परंतु प.पू. डॉक्टरजी जैसे परात्पर गुरुदेवजी संपूर्ण समष्टि को छोटी-छोटी बातों का शास्त्र ज्ञात हो, इसके लिए दिन-रात परिश्रम करते रहते हैं ।
मध्यावधि में कभी थकान के कारण पलंग पर सोना पडे, तब भी उनके हाथ में कोई न कोई पुस्तक होती है, वे उस पर चिह्नित करते रहते हैं तथा समष्टि को ज्ञान मिले, इसके लिए वे उसे टंकण हेतु देते हैं । ज्ञानार्जन की यह कितनी प्रखर लालसा ! उनके इस अविरत ज्ञानार्जन की लालसा से ही सनातन के पास ४००० ग्रंथ तैयार होंगे, इतनी ज्ञानरूपी जानकारी संग्रहित है । अब तक का कार्य ग्रंथरूप में पूर्ण होने में ही आगे की ३-४ पीढियां लग जाएंगी ।
उनकी छत्रछाया में रहकर आध्यात्मिक स्तर पर हम उनका अधिक से अधिक लाभ उठाएं तथा हे भगवान, उनके जैसी समष्टि सेवा की लालसा तथा परिश्रम करने की क्षमता हमारे अंदर भी उत्पन्न हो’, श्रीकृष्ण के चरणों में यही प्रार्थना करेंगे !’
– श्रीमती अंजली गाडगीळ (वर्तमान में श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (२.५.२०१४)
भाव के कारण अद्वैत तक की यात्रा होती है !
प.पू. भक्तराज महाराजजी का एक भजन है – ‘नाथा तुझ्या पायी जैसा ज्याचा भाव । तैसा त्यासी ठाव चरणी तुझ्या ।।’, अर्थात, हे नाथ जिसका जैसा भाव होगा, तदनुसार उसपर आपकी कृपा होगी । प.पू. भक्तराज महाराजजी इस प्रकार भाव के महत्त्व का वर्णन किया है । ईश्वर के सगुण तत्त्व की उपासना करनेवाले साधक का सगुण से निर्गुण की ओर जाने की अर्थात अद्वैत तक की यात्रा ‘भाव’ के कारण ही संभव होती है । साधक के आध्यात्मिक जीवन में भाव का महत्त्व अनन्य साधारण है ।
चराचर में व्याप्त सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के द्वारा अपना अस्तित्व दिखाकर भाव के महत्त्व का ध्यान दिलाना
‘यात्रा में रहते हुए प्रकृति की ओर देखते समय ‘चराचर में प.पू. गुरुदेवजी का अस्तित्व है, पंचमहाभूतों पर उनका ही प्रभुत्व है, वर्षा की प्रत्येक बूंद में वे ही हैं तथा वृक्ष, नदी, पर्वत जैसे सभी स्थानों पर वे ही हैं’, यह विचार आकर मेरी भावजागृति हुई । गुरुदेवजी से प्रार्थना हुई, ‘जैसे पंचमहाभूतों पर आपका प्रभुत्व है, पंचमहाभूत जैसे आपके नियंत्रण में हैं; उसी प्रकार से मुझपर आपका ही प्रभुत्व रहे । मेरी प्रत्येक कृति एवं विचार आप ही के नियंत्रण में हो ।’ उसके उपरांत भावजागृति होकर आनंद मिलने लगा । इन सभी से गुरुदेवजी ने भाव के महत्त्व का ध्यान दिलाया तथा उक्त पंक्तियां भी उन्होंने ही मुझसे लिखवाईं, इसके लिए गुरुदेवजी के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता !’
– डॉ. (श्रीमती) मधुवंती चारुदत्त पिंगळे (आयु ५४ वर्ष), मंगळूरु सेवाकेंद्र, कर्नाटक (७.७.२०२२)