नाक से संबंधित बीमारियां तथा उनकी चिकित्सा !!

‘कुछ दिन पूर्व एक रोगी मेरे चिकित्सालय में आया । मेरे सामने बैठते ही वह कहने लगा, ‘मेरी नाक की हड्डी बढ गई है । इससे पूर्व मैंने ४ बार उसका शल्यकर्म (ऑपरेशन) करवाया है; परंतु तब भी वह पुनः-पुनः बढता है । अब मैं शल्यकर्म से भी ऊब चुका हूं । क्या आप इसमें कुछ कर सकती हैं ? कोई निश्चित उपचार हो, तभी आप उपचार आरंभ कीजिए । बिना किसी कारण पैसा और समय व्यर्थ न जाएं ।’ (इसका अर्थ ४ बार शल्यकर्म करने से कुछ लाभ हुआ हो अथवा न हुआ हो; परंतु उस समय उसने उन ४ बार में भी ‘गारंटी’ नहीं मांगी थी । परंतु इस बार उसमें पहली ही बार गारंटी मांगने का साहस बढ गया !)

उस पर मैंने कहा, ‘मैं कल इस कुर्सी (आसंदी) पर रहूंगी अथवा नहीं, इसका भी आश्वासन नहीं दिया जा सकता । जब तक रहूंगी, तब तक प्रयास करती रहूंगी ।’ ‘वो प्रयास आदि नहीं चाहिए, क्या निश्चित रूप से ठीक होनेवाला है ? वह युवक किसी का क्षोभ मुझ पर निकाल रहा था । मैंने उससे कहा, ‘पहले मुझे आपकी जांच कर यह बीमारी औषधि से ठीक होनेवाली है अथवा नहीं ?, इसे सुनिश्चित करने दें । आगे का सब आप पर निर्भर है । हम प्रत्येक रोगी को ग्रंथ में बताए अनुसार उपचार ही बताते हैं । रोगी वह उपचार तथा पथ्यपालन कितनी प्रामाणिकता के साथ करता है; उपचारों की सफलता-विफलता इस पर निर्भर होती है ।’ इस प्रकार से बताने पर वह थोडा शांत हुआ । उसके उपरांत उसकी जांच कर मैंने उसे उचित उपचार बताए ।

१. नाक से संबंधित बीमारी पर निरंतर शल्यकर्म करने की अपेक्षा उसकी जड तक पहूंचना आवश्यक !

नाक की हड्डी बढना (इसमें दो नासिकाओं के मध्य स्थित हड्डी के नर्म परदे पर एक बाजू में सूजन आती है), ‘साइनुसाइटीस’ (मानवीय खोपडी में दोनों भौंहों के ऊपर तथा दोनों गालों की हड्डियों पर ऐसी ४ रिक्तियां होती हैं, जिन्हें ‘साइनस’ कहते हैं । ‘साइनुसाइटीस’ की बीमारी में इन रिक्तियों में कफ अथवा पीब जैसे स्राव अथवा फफूंद जैसे घटक जमा होते हैं तथा ‘नोजल पॉलीप’ (नाक की रिक्ति में बढनेवाला मांस का अंकुर) की बीमारी आजकल बडे स्तर पर दिखाई देती है । ‘शल्यकर्म’ इन तीनों बीमारियों का निश्चित रूप से उपाय है तथा लोग वह कर भी लेते हैं; परंतु यह बीमारी बार-बार होती रहती है । यह तो नाक काटकर अवलक्षण कर लेने जैसा है । इसका कारण यह है कि इसमें नाक की रचना में विकृति लानेवाली सर्दी की जड पर वार नहीं किया जाता ।

२. सर्दी लगने के कारण

आज के समय में शहरों में सर्दी लगने का प्रमुख कारण है प्रदूषण ! इसे टालना भले ही संभव न हो; परंतु उसका कुछ तो प्रतिकार किया जाना चाहिए ! वह किया जा सकता है तथा उसके टिके रहने के भी अनेक कारण हैं ।

अ. शहरों में भी बचपन से ही वातानुकूलित कक्ष तथा बाहर के मौसम में निरंतर परिवर्तन आते रहने से गला एवं नाक की त्वचा को किस प्रकार कार्य करना चाहिए ?, यह ध्यान में नहीं आता और उससे ये स्राव होते रहते हैं ।

आ. रात को सोते समय ठंडा पानी पीने की आदत हो, तो सर्दी, कफ तथा उससे होनेवाली बीमारियां बढती हैं ।

इ. तरबूज, खरबूज, अनानास, केले जैसे फल अथवा फलों के रस बडी मात्रा में लेते रहने से शरीर में कफ की बीमारियां मूल पकड लेती हैं ।

ई. दूध, दही, छाछ तथा मिल्क शेक जैसे पदार्थ भी कफ का बहाव बढानेवाले होते हैं ।

उ. आईस्क्रीम, चॉकलेट, केक, पेस्ट्री, कैडबरी जैसे मीठे पदार्थ शरीर में विकृत कफ की निर्मिति का कारण बनते हैं ।

ऊ. दोपहर में भोजन के उपरांत नींद लेने से शरीर में कफ बढता है ।

ए. डोसा, इडली तथा उत्तप्पम जैसे खमीर चढे पदार्थ बार-बार तथा प्रचुर मात्रा में खाते रहने से सर्दी लगती है । दक्षिण के मौसम में भले ही पदार्थ चलते हों; परंतु मुंबई एवं कोंकण के क्षेत्र में वे कष्टकारी सिद्ध होते हैं ।

ऐ. नया अनाज तथा कुकर में पकाए हुए चावल भी कफ की निर्मिति में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं ।

सर्दी के इन कारणों को जब तक दूर नहीं किया जाता, तब तक वह क्षीण न होकर शरीर में नाक से संबंधित गंभीर बीमारियों की नींव रखते ही रहते हैं । अर्वाचीन शास्त्र के मतानुसार विषाणु, जीवाणु (बैक्टीरिया), फफूंद जैसे किसी भी आक्रमण से सर्दी लगती है । जब शरीर का बल क्षीण होता है, तो वह टिकी रहती है और उससे अगले स्तर की बीमारियां उत्पन्न हो सकती हैं ।

३. साइनुसाइटीस के लक्षण

‘साइनुसाइटीस’ में सर्दी, हरारत तथा बंद नाक के साथ ही मस्तकशूल मुख्य लक्षण होते हैं । ये पीडाएं विशेष रूप से भौंहों के ऊपरी भाग में तथा गालों पर होती हैं । नीचे झुकने पर पीडा बढती है तथा भाप लेने पर वह न्यून होती है । ‘साइनस’वाले इन स्थानों में सूजन दिखाई देती है । इन लक्षणों से बीमारी का सहजता से अनुमान लग सकता है ।

नाक की हड्डी बढी हो अथवा नाक में मांसाकुंर बढा हो, तो संबंधित नासिका बंद होकर सांस लेने में बाधा उत्पन्न होती है । टॉर्च के प्रकाश में नाक का परीक्षण करने पर ये दोनों बातें आंखों को स्पष्ट दिखाई देती हैं । उसके लिए बहुत क्लिष्ट परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं होती । इन बीमारियों की उपेक्षा करने पर सांस क्षीण हो जाने से उसके कारण निरुत्साह, आलस, ग्लानि, शरीर में दर्द, एकाग्रता का अभाव जैसे नित्य जीवन के लक्षणों में बाधा उत्पन्न करनेवाले लक्षण बढते जाते हैं ।

४. नाक की बीमारियों की चिकित्सा

अ. आयुर्वेद के मतानुसार बीमारी के कारणों को दूर करना किसी भी बीमारी की चिकित्सा का पहला चरण होता है । अल्प औषधि में बीमारी शीघ्र स्वस्थ हो, ऐसा लगता हो; तो उसके लिए पथ्यपालन आवश्यक है । मीठे, खट्टे, ठंडे, दुग्धजन्य पदार्थ, कच्चा सलाद (टमाटर, खीरा इत्यादि का सलाद), पनीर, फल आदि सभी पदार्थ खाने बंद कर देने चाहिए । इसके विपरीत गर्म एवं ताजा आहार, आहार में मसाले का समावेश तथा सूर्यास्त से पूर्व भोजन जैसे नियमों का पालन करना चाहिए । कभी मीठा पदार्थ खाना ही हो, तो उसे भोजन के उपरांत न खाकर भोजन से पूर्व खाएं । फल अधिक प्रिय हो, तो रसीले फलों के स्थान पर मगजवाले फल खाएं और वह भी सवेरे, सायंकाल में अथवा भोजनोपरांत न खाकर दोपहर के भोजन में खाने चाहिए । अर्थात एक बार जीभ को इसकी छूट दी, तो औषधियों तथा उनकी अवधि बढेगी ही, इसका भी ध्यान रखें ।

आ. पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र के अनुसार भी नाक की बीमारियों के लिए शल्यकर्म तो अंतिम उपाय है; इसीलिए शल्यकर्म कर नाक काटने से पूर्व आयुर्वेद में बताए गए उपचारों पर निश्चित रूप से विचार करना चाहिए । कोई लेख अथवा पुस्तक पढकर अपने मन से औषधियां नहीं लेनी चाहिए । उसके लिए अपने निकटतम वैद्य का सुझाव मानना चाहिए ।

इ. इन तीनों बीमारियों में आयुर्वेद में बताया गया ‘नस्य’ कर्म (नाक में औषधीय तेल, घी, अर्क अथवा चूर्ण डालना) बहुत उपयुक्त सिद्ध होता है, वास्तव में नस्य का उपाय नाक की बीमारी का प्रधान उपक्रम है । बीमारी तथा रोगी की आवश्यकता के अनुसार नस्य की औषधि एवं उसकी मात्रा प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप भिन्न हो सकती है । अतः उसे वैद्यों के सुझाव के अनुसार ही करते रहना चाहिए । उसमें टालमटोल नहीं करनी चाहिए । थोडा स्वस्थ लगने पर उपचार अपने मन से बंद न करें । वैद्य जब तक बताएं, तब तक उन्हें जारी रखें ।

ई. इसके साथ ही भाप लेना, नीलगिरी तेल में डुबाया हुआ रुमाल रखकर उसकी गंध लेते रहना, बाहर जाते समय नाक पर रुमाल बांधकर जाना, माथे तथा गाल पर सवेरे अथवा रात में सोंठ अथवा बच का लेप लगाना, समय-समय पर गर्म पानी पीना जैसे उपाय आरामदायक सिद्ध होते हैं ।

उ. कपालभाती, भस्त्रिका एवं सूर्यभेदन का नियमित अभ्यास करने से नाक एवं उसकी रिक्तियों में स्थित कफ पतला होकर उसे बाहर निकलने में सहायता मिलती है । वैद्यों से उसकी मात्रा सुनिश्चित कर लें, उसका अतिरेक टालें । योगाभ्यास में स्थित ‘जलनेती’ भी नाक की बीमारियों में लाभप्रद सिद्ध होती है; परंतु उसे विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में ही करें । उसमें कोई चूक हुई, तो कान में पानी जाकर वह पूरे जीवन के लिए कष्टदायक सिद्ध होता है ।

५. शरीर पर स्थित एलर्जी को अल्प करने के लिए ध्यान का बहुत अच्छा उपयोग होना

हवा का प्रदूषण करनेवाले किसी घटक की एलर्जी हो, तो निश्चित रूप से नाक की बीमारियां होती हैं । (एलर्जी का अर्थ किसी बात पर शरीर के द्वारा दी जानेवाली तीव्र प्रतिकूल प्रतिक्रिया) यह प्रतिक्रिया सर्दी के बहावों के रूप में होती है । उसे अल्प करना हो, तो ध्यान का बहुत अच्छा उपयोग होता है । ध्यान के कारण मन शांत होता है । उससे मन की प्रतिक्रियाओं की तीव्रता एवं शीघ्रता क्षीण होती है । उससे शरीर पर परिणाम होकर शरीर भी एलर्जी के रूप में अपनी प्रतिक्रियाएं अल्प करता है ।

नाक की बीमारियों में यदि शल्यकर्म टालना हो, तो आयुर्वेद में उसके लिए उचित उपाय बताए गए हैं । अंग्रेजी नामों से घबराकर ‘आयुर्वेद में इसका उपाय नहीं होगा’, इस पूर्वाग्रह में न रहें । ग्रंथ में उन बीमारियों का नाम कदाचित अलग हो सकता है अथवा नहीं भी होगा; परंतु शरीर में आए परिवर्तनों का अध्ययन कर वैद्य ऐसी बीमारियों की निश्चित रूप से चिकित्सा कर सकते हैं ।’

– वैद्या सुचित्रा कुलकर्णी (साभार : ‘साप्ताहिक विवेक’, १७ मार्च २०१८)