शक्तिदेवता !

‘युगों-युगों से नवरात्रि का व्रत रखा जाता है । इन ९ दिनों में देवी के ९ रूपों की पूजा की जाती है । इस वर्ष की नवरात्रि के उपलक्ष्य में हम देवी के इन ९ रूपों की महिमा समझ लेते हैं । यह व्रत आदिशक्ति की उपासना ही है ! सनातन संस्था के साधक विगत अनेक वर्षाें से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में साधना कर रहे हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने आरंभ में सनातन के साधकों से आदिशक्ति की उपासना करवा ली है, उस विषय में हम समझ लेते हैं ।

आश्विन शुक्ल प्रतिपदा,
कलशस्थापना, २६.९.२०२२

१. नवरात्रि के पहले दिन प्रकट होनेवाला आदिशक्ति का ‘शैलपुत्री’ रूप !

वृषभ पर आरूढ शैलपुत्री देवी का सुंदर रूप

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम् ।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ।।

अर्थ : ‘मस्तक पर आधा चंद्रमा धारण करनेवाली, वृषभारूढ, त्रिशूलधारी एवं वैभवशाली शैलपुत्री देवी से मेरी इच्छित मनोकामना पूर्ण हो’, इसके लिए वंदन करता हूं ।

१ अ. शैलपुत्री अर्थात पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण उसे ‘शैलपुत्री’ कहा जाना तथा सभी देवताओं की भी अहंकार का हरण करनेवाली शैलपुत्री को ‘हैमावती’, भी कहा जाना : भक्तों के मनोवांछित पूर्ण करनेवाली, चंद्राभूषण धारण करनेवाली, वृषभारूढ, त्रिशूलधारी तथा यश प्राप्त करा देनेवाली शैलपुत्री देवी के चरणों में कोटि-कोटि वंदन ! ‘शैल’ अर्थात पर्वत ! दक्ष के द्वारा किए गए याग के समय दक्षपुत्री देवी सती अपने ‘आदिशक्ति’ के स्वरूप को प्रकट कर अपना अवतार समाप्त करती है । उसके उपरांत आदिशक्ति पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेती है । उसका यह रूप ‘शैलपुत्री’ नाम से पूजा जाता
है । देवी इस रूप में वृषभ पर आरूढ है । उनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमल है । शैलपुत्री पार्वती को ‘हैमावती’ भी कहा जाता है । एक बार देवताओं को भी अहंकार हुआ था, उस समय शैलपुत्री ने उनका गर्वहरण कर उनका अहंकार नष्ट कर दिया था ।

१ आ.  प्रार्थना : ‘हे देवी शैलपुत्री, जिस प्रकार आपने हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेकर एकनिष्ठा से माता-पिता की सेवा की और शिवजी की अनन्य भक्ति की, उसकी भांति हम साधकों को आप गुरुसेवा (सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की सेवा) करने की तथा गुरुदेवजी की अनन्य भक्ति करने के लिए आशीर्वाद दीजिए । हे देवी हैमावती, जिस प्रकार आपने देवताओं का अहंकार नष्ट किया, उसी प्रकार आप हमारा भी अहंकार नष्ट करें । हमारे द्वारा ‘अहं’ रहित गुरुसेवा होने के लिए आप ही हम से ‘अहं’ निर्मूलन के लिए साधना करवा लें’, यही आपके चरणों में प्रार्थना है ।’

२. दूसरे दिन प्रकट होनेवाला ‘ब्रह्मचारिणी’ रूप !

२ अ. ‘पति के रूप में शिवजी प्राप्त हो’; इसके लिए देवी सती ने की अत्यंत कठिन तपस्या ! : ‘ब्रह्मचारिणी’ देवी सती का अविवाहित रूप है । ‘ब्रह्मचारिणी’ नाम में समाहित ‘ब्रह्म’ का अर्थ है ‘शुद्ध आत्मतत्त्व’ तथा ‘ब्रह्मचारिणी’ का अर्थ है आत्मतत्त्व की उपासना में निरंतर रत (मग्न) स्त्री ! माता पार्वती ने उन्हें पति के रूप में शिवजी प्राप्त हों’; इसके लिए महर्षि नारद के कहने पर सहस्रों वर्षतक अत्यंत कठिन तपस्या की । अंत के कुछ सहस्र वर्ष वे केवल बिल्व के पत्ते खाकर जीवित रहीं, उससे उनका नाम ‘अपर्णा’ पडा । इसमें ‘पर्ण’ का अर्थ है ‘पत्ता’ एवं ‘अपर्णा’ का अर्थ है ‘व्रत का पालन करते समय जिन्होंने पत्तों का सेवन करना भी त्याग दिया वह स्त्री !’ ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप ज्योतिर्मय एवं भव्य है । देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने आकाशवाणी के माध्यम से कहा, ‘हे देवी, आज तक किसी ने भी आपके जैसी एकनिष्ठा से साधना नहीं की है । साक्षात शिवशंकरजी ही आपको पति के रूप में प्राप्त होनेवाले हैं ।’ देवी ने विश्व के सामने ईश्वरप्राप्ति के लिए अखंड साधना कर विश्व के सामने ईश्वरप्राप्ति के लिए अखंड साधना कर अविरत साधना का अतिउत्तम आदर्श रखा है ।

२ आ. प्रार्थना : ‘हे देवी ब्रह्मचारिणी, आप हम साधकों को आप की भांति साधनापथ के प्रति एकनिष्ठ रहने की शक्ति दें तथा हम इस साधनामार्ग से दूर न भटक जाएं, यह आशीर्वाद दें ।’

‘हे देवी, हम साधक श्री गुरुचरणों की प्राप्ति के लिए तडप रहे हैं । हमें साधनापथ में आनेवाली सभी बाधाएं और संघर्ष पर विजय प्राप्त करना संभव हो तथा स्थिर रहकर एवं संयम रखकर श्री गुरुचरणों की सेवा करना संभव हो’, यह आपके चरणों में प्रार्थना है । हे माता, हमसे अखंड नामस्मरण हो । हमें सदैव गुरुचरण पाने की आस लगे । ‘हे जगन्माता, आप हम साधकों से गुरुदेवजी को अपेक्षित साधना करवा लें’, यह प्रार्थना है । आपके चरणों में कोटि-कोटि वंदन !’

३. तीसरे दिन प्रकट होनेवाला ‘चंद्रघण्टा’ रूप !

३ अ. चंद्रघण्टा : देवी चंद्रघण्टा माता पार्वती का विवाहित रूप है । देवी पार्वती का शिवजी के साथ विवाह होने पर उन्होंने अपने मस्तक पर आभूषण के रूप में चंद्रमा धारण किया है । देवी का चंद्रघण्टा रूप सदैव शस्त्रसज्ज होता है । वे दशभुजा हैं तथा उनकी कांति स्वर्णिम है । चंद्रघण्टा देवी के पास घंटा से बाहर निकलनेवाली चंड-ध्वनि से दानव सदैव ही भयभीत होते हैं । देवी चंद्रघण्टा भक्तों के जीवन के दुख दूर करने हेतु सदैव तत्पर होतनी हैं । देवी उनके भक्तों के जीवन में आनेवाली भूत, प्रेत एवं पिशाच की बाधा दूर करती हैं ।

प्रार्थना : ‘हे देवी चंद्रघण्टा, जिस प्रकार आप भक्तों की जीवन की भूत, प्रेत एवं पिशाच बाधा तत्काल दूर करती हैं, उसकी भांति आप हम साधकों को होनेवाली अनिष्ट शक्तियों के कष्ट दूर कर हमारी रक्षा कीजिए । ‘हे भवभयहारिणी देवी, आप हमें गुरुसेवा के लिए सदैव तत्पर रहने का आशीर्वाद दें । जब-जब हमारे स्वभावदोष एवं अहं उभरकर आएंगे, तब हमें सतर्क रखिए और उन पर चैतन्य का वार करने की शक्ति प्रदान करें’, यह आपके चरणों में प्रार्थना है ।

४. चौथे दिन प्रकट होनेवाला ‘कूष्मांडा’ रूप !

४ अ. कूष्मांडा : ‘कूष्म’ का अर्थ है स्मितहास्य !’ ‘कूष्मांडा’ (टिप्पणी १) का अर्थ है केवल अपने स्मितहास्य से ही ब्रह्मांड की उत्पत्ति करनेवाली ! ‘जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था और सर्वत्र अंधकार था, उस समय देवी ने ‘कूष्मांडा’ रूप में केवल हास्य से ब्रह्मांड की उत्पत्ति की । ‘कूष्मांडा’ आदिशक्ति का आदिस्वरूप है । सूर्यमंडल के अंदर जो शक्ति है वही है ‘कूष्मांडा’ !’

(साभार : नवदुर्गा, गीताप्रेस, गोरखपुर)

‘कूष्मांडा देवी अष्टभुजा देवी हैं । संस्कृत भाषा में कुम्हडे को भी ‘कूष्मांड’ कहा जाता है । कूष्मांडा देवी को कुम्हडे की बलि अत्यंत प्रिय है । कूष्मांडा देवी भक्तों के रोग, दैन्य एवं शोक दूर करनेवाली तथा आयुर्वृद्धि की भी देवता हैं ।’

टिप्पणी १ – देवी के इस नाम के विषय में अनेक पाठभेद हैं ।

प्रार्थना : ‘हे कूष्मांडा देवी, आपने अपने स्मितहास्य से एक क्षण में ही ब्रह्मांड की उत्पत्ति की, उसी प्रकार से आप हिन्दू राष्ट्र की स्थापना कीजिए । हे देवी, हम आपके चरणों में शरणागत हैं । हम साधकों को गुरुसेवा करने के लिए तथा अध्यात्मप्रसार करने के लिए स्वस्थ शरीर की आवश्यकता है । आप रोग, दैन्य एवं शोक दूर करनेवाली हैं । आप हम साधकों को अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करें तथा हमसे एकनिष्ठता के साथ गुरुदेवजी की सेवा करवा लें’, यही आपके चरणों में प्रार्थना है ।’

५. पांचवें दिन प्रकट होनेवाला ‘स्कंदमाता’ रूप !

५ अ. बालरूप में स्थित श्री कार्तिकेय को गोद में ली हुईं आदिशक्ति ज्ञानदायिनी होने के कारण उनके ‘स्कंदमाता’ के रूप का ज्ञानस्वरूप होना : देवों के सेनापति अर्थात श्री कार्तिकेय ! कार्तिकेय का एक नाम ‘स्कंद’ है । ‘स्कंदमाता’ का अर्थ श्री कार्तिकेय की माता ! इस अर्थ को लेकर देवी का एक नाम ‘स्कंदमाता’ है । नवरात्रि की पंचमी की तिथि को आदिशक्ति का ‘स्कंदमाता’ के रूप में पूजन किया जाता है । इस रूप में देवी की गोद में भगवान कार्तिकेय बालरूप में बैठे हैं । चतुर्भुज स्कंदमाता सिंह पर आरूढ हैं । इस रूप में देवी ज्ञानदायिनी हैं । स्कंदमाता ने इस रूप में बालरूप में स्थित श्री कार्तिकेय को स्वरूप का ज्ञान प्रदान किया; इसके कारण वे ज्ञानस्वरूपिणी हैं ।

प्रार्थना

‘हे देवी स्कंदमाता, हम अज्ञानी हैं । हम साधकों के लिए आप ज्ञान प्रदान करनेवाली ‘ज्ञानमाता’ हैं । आप हमें हमारे श्रीविष्णुस्वरूप गुरुदेवजी को प्रसन्न करने का रहस्य सिखाइए । ‘हे माता जगदंबा, आप हमें गुरुकृपा प्राप्त करने के लिए हमें कैसे साधना करनी चाहिए ?’, इसका ज्ञान प्रदान करें । हे स्कंदमाता, हे ज्ञानांबिका, आप हमें चिरंतन अध्यात्म का ज्ञान प्रदान करें, उचित-अनुचित का ज्ञान दें, इष्ट-अनिष्ट का ज्ञान दें तथा संस्कृति-विकृति का ज्ञान दें ! हे ज्ञानदायिनी माता, हम में स्थित अज्ञान का अंधकार दूर करनेवाली आपके चरणों में हम सभी साधक शरणागत हैं ।’

६. छठे दिन प्रकट होनेवाला भय एवं शोक दूर करनेवाला ‘कात्यायनी’ रूप !

१. ‘महर्षि कात्यायन द्वारा ‘स्वयं के घर आदिशक्ति ‘पुत्री’ के रूप में जन्म लें; इसके लिए घोर तपस्या की जाना, तब देवी ने ‘उचित समय आते ही मैं जन्म लूंगी’, यह आशीर्वचन देना : ‘महर्षि कत के पुत्र कात्यऋषि तथा कात्यऋषि के पुत्र थे महर्षि कात्यायन ! महर्षि कात्यायन की इच्छा थी कि ‘देवी को उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लेना चाहिए ।’ उसके लिए उन्होंने आदिशक्ति की कठोर तपस्या की । महर्षि की तपस्या पर प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उन्हें आश्वासन दिया कि ‘उचित समय आने पर मैं आपके घर पुत्री के रूप में जन्म लूंगी ।’

२. महिषासुर का प्रकोप बढने पर ब्रह्मा-विष्णु-महेश की संयुक्त ऊर्जा से कात्यायनी ऋषि के आश्रम में देवी की उत्पत्ति होना : कालांतर में महिषासुर का प्रकोप बढने से ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की संयुक्त ऊर्जा से शक्तिस्वरूपिणी की जो उत्पत्ति हुई, उस शक्ति ने आश्विन कृष्ण चतुर्थी के दिन कात्यायन ऋषि के यहां जन्म लिया । देवी द्वारा कात्यायन ऋषि के घर जन्म लेने से उनका नाम ‘कात्यायनी’ पडा । दुर्गा, भवानी एवं चामुंडा सभी कात्यायनी देवी के ही रूप हैं । नवरात्रि के छठे दिन देवी कात्यायनी का पूजन किया जाता है ।

३. कात्यायनी भय एवं शोक दूर करनेवाली देवी हैं । उन्होंने ही महिषासुर का वध किया ।

प्रार्थना

‘हे देवी कात्यायनी, आपने अहंकार का दूसरा रूप महिषासुर का नाश किया । उसकी भांति आप हम में विद्यमान अहंरूपी महिषासुर का नाश कीजिए । हे देवी, आप शोक दूर करनेवाली एवं भय नष्ट करनेवाली आदिशक्ति हैं । आप हम साधकों के सभी शोख और भय दूर कीजिए । एकनिष्ठा से गुरुसेवा करने के लिए हमें आशीर्वाद दें । आप हमें किसी भी संकट पर विजय प्राप्त करने के लिए आवश्यक मानसिक बल एवं धैर्य प्रदान
करें । हे देवी, पृथ्वी पर आज भी महिषासुर की वृत्ति के लोग हैं । आनेवाले समय में उन्हें दंडित कर आप ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना कीजिए ।’, यह आपके चरणों में प्रार्थना है ।

७. सातवें दिन प्रकट होनेवाला ‘कालरात्रि’ रूप अर्थात ‘शुभंकरी’ रूप !

अ. नवरात्रि के सातवें दिन प्रकट होनेवाला आदिशक्ति का ‘कालरात्रि’ रूप बहुत भयंकर होना, तथा उस रूप से सभी दानवों, भूतों और प्रेतों में भय होना; परंतु उनके शुभफलदायिनी होने के कारण उन्हें ‘शुभंकरी’ कहा जाना : नवरात्रि के सातवें दिन देवी कालरात्रि की पूजा की जाती है । कालरात्रिदेवी का रंग काला है । इस देवी के उच्छ्वास से अग्नि की ज्वालाएं निकलती हैं । देवी को ब्रह्मांड की भांति वृत्ताकार ३ नेत्र हैं । उनका वाहन गर्दभ (गधा) है । कालरात्रि देवी का स्वरूप भयंकर है; परंतु वे सदैव शुभफल प्रदान करनेवाली हैं । उसके कारण ही कालरात्रि देवी को ‘शुभंकरी’ (मंगलदायिनी) नाम दिया गया है । देवी कालरात्रि तो आदिशक्ति का विनाशकारी रूप हैं । देवी का यह रूप देखकर सभी दानव, भूत, प्रेत आदि भयभीत होते हैं । कालरात्रि देवी की उपासना करने से ग्रहपीडा, अग्निभय, जलभय, जंतुभय और शत्रुभय दूर होते हैं । कालरात्रि देवी शुभंकरी होने से वे पापनाशिनी एवं पुण्यप्रदायिनी हैं । काली एवं कालिका भी कालरात्रि देवी के ही रूप हैं ।

प्रार्थना

‘हे कालरात्रि देवी, इस विश्व में सुर एवं असुर ये दोनों रूप आप के ही हैं । आप असुरों एवं देवताओं की जननी हैं । जब असुरों का वर्चस्व बढता है तथा धर्म का पतन होने लगता है, उस समय आप असुरों का नाश करती हैं । आज भी पृथ्वी पर अनिष्ट दुष्प्रवृत्तियों ने उत्पात मचाया है । उन्होंने पृथ्वी पर स्थित स्त्रियों और दुर्बल लोगों पर अनेक अत्याचार किए हैं । मनुष्य में नास्तिकता बढने लगी है और उनकी वृत्ति पशु की भांति होने लगी है । अतः हे महाकाल स्वरूपिणी कालरात्रि देवी, अब आप इन असुरी दुष्प्रवृत्तियों के नाश के लिए प्रकट हों तथा उनका समूल निर्मूलन करें ।’, यह आपके चरणों में प्रार्थना है ।

८. आठवें दिन प्रकट होनेवाला ‘महागौरी’ रूप !

अ. ‘पति के रूप में शिवजी प्राप्त हों’; इसके लिए देवी द्वारा किए गए कठोर तप के कारण उनका शरीर काला पड जाना, शिवजी द्वारा प्रसन्न होकर पवित्र गंगाजल से उन्हें स्नान कराना और तब देवी का गौर रूप दिखाई देने के कारण उन्हें ‘महागौरी’ कहा जाना : नवरात्रि की अष्टमी तिथि को आदिशक्ति की ‘महागौरी’ रूप में पूजा की जाती है । इस रूप में देवी को आठ वर्ष की बालिका माना गया है । देवी द्वारा धारण वस्त्र का रंग श्वेत है । देवी की चार भुजाएं हैं तथा देवी का वाहन वृषभ है । देवी ने छोटी आयु में ही शिवजी को पति मान लिया था । ‘शिवजी पति के रूप में प्राप्त हों’; इसके लिए देवी ने पार्वती रूप में कठोर तपस्या की, जिससे देवी का शरीर काला पड गया । देवी की तपस्या से शिवजी प्रसन्न हुए । उन्होंने पवित्र गंगाजल से देवी का शरीर धोया । उससे देवी का शरीर स्वच्छ श्वेत बना । संस्कृत भाषा में स्वच्छ श्वेत रंग को ‘गौर वर्ण’ कहा जाता है । इसके कारण देवी को ‘महागौरी’ नाम पड गया ।

शास्त्रों में कहा गया है कि आदिशक्ति उनके महागौरी रूप में ‘भक्तों के ताप, पाप और संचित धो देती हैं’ । संक्षेप में कहा जाए, तो महागौरी की उपासना से भक्त पवित्र बन जाता है और वह अंतर्बाह्य शुद्ध होता है । महागौरी की विशेषता यह है कि देवी मनुष्य को सत् की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती हैं ।

प्रार्थना

‘हे महागौरी, जिस प्रकार आप भक्तों के ताप, पाप एवं संचित नष्ट करती हैं, उसी प्रकार आप हम साधकों के भी ताप, पाप एवं संचित नष्ट कीजिए । हे देवी, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हमें जो सिखाया है, उसके अनुसार हमारे स्वभावदोषों एवं अहं का उचित पद्धति से निर्मूलन होकर हम अंतर्बाह्य शुद्ध हो जाएं’, यह आपके चरणों में प्रार्थना है । ‘हे देवी, आप हमें सदैव सत् में रहने की प्रेरणा दें और हमसे निर्मल मन से गुरुसेवा हो’, यह आपके चरणों में प्रार्थना है ।

९. नौवें दिन प्रकट होनेवाला ‘सिद्धिदात्री’ रूप !

अष्टमहासिद्धि प्राप्त तथा भक्तों की लौकिक एवं पारलौकि मनोकामनाएं पूर्ण करनेवाली देवी सिद्धिदात्री ! : ‘नवरात्रि के नौवें दिन देवी सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है । मार्कंडेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व एवं वशित्व, ये ८ सिद्धियां हैं । इन सिद्धियों को प्रदान करनेवाली वे ‘सिद्धिदात्री !’ देवीपुराण के अनुसार देवी सिद्धिदात्री की कृपा से शिवजी ने ये ८ सिद्धियां प्राप्त कीं और उन्हीं की कृपा से शिवजी का आधार शरीर देवी का बन गया । उसके कारण शिवजी को ‘अर्धनारीश्वर’ नाम पड गया । देवी कमल पर विराजमान हैं तथा वे चतुर्भुजा हैं । श्री सिद्धिदात्री देवी भक्त की लौकिक एवं पारलौकिक दोनों मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं । सभी भक्त ईश्वरप्राप्ति की इच्छा करेंगे, ऐसा नहीं है । तो जिसे सिद्धिप्राप्ति की इच्छा है, उसे सिद्धिदात्री देवी सिद्धि प्रदान करती हैं तथा जिसे अष्टसिद्धियों के स्वामी ‘ईश्वर’ की प्राप्ति की इच्छा है, उसे वे ईश्वर की प्राप्ति करा देती हैं अर्थात वे मोक्षदायिनी हैं । ऐसी मोक्षदायिनी सिद्धिदात्री देवी के चरणों में कोटि-कोटि नमन !

प्रार्थना

‘हे देवी सिद्धिदात्री, हम साधकों को लौकिक विषयों की कामना नहीं है; किंतु हम साधकों को गुरुचरणों के प्राप्ति की कामना है । हे देवी, हम साधकों में गुरुभक्ति की इच्छा उत्पन्न करनेवाली आप ही हैं । हम साधकों का जन्म गुरुसेवा के लिए ही हुआ है । हमसे अंतिम सांस तक अधिकाधिक गुरुसेवा हो’, यही आपके चरणों में प्रार्थना है ।

– श्री. विनायक शानभाग (आध्यात्मिक स्तर ६६ प्रतिशत), बेंगळूरु, कर्नाटक. (२६.९.२०२१)