श्रीविष्णु की योगमाया को ‘हरिमाया’ भी कहा गया है । श्रीविष्णु की माया उनके भक्तों पर ऐसा आवरण लाती है कि उस भक्त को भगवान के मूल स्वरूप का विस्मरण हो जाता है । साधकों और परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का नाता ‘गुरु-शिष्य’ का है । हम सभी ‘साधक’ इस नाते के आनंद में ही संलिप्त रहते हैं; परंतु हम साधकों को यह समझ में ही नहीं आया कि जिनका हम ‘गुरु’ के रूप में पूजन करते हैं, वे ‘साक्षात श्रीविष्णु के कलियुग के अवतार’ हैं । है न यह ‘श्रीविष्णु की माया’ ? अब हम साधक यह समझ चुके हैं कि हमारे गुरु श्रीविष्णु हैं ।’ यह भी श्रीविष्णु की माया ही है । आज हम श्रीविष्णु की इस अवतारलीला के विषय में समझ लेते हैं ।
१. भगवान की अवतारी लीला का महत्त्व
ईश्वर धर्मसंस्थापना के लिए अवतार धारण करते हैं । सरल शब्दों में बताना हो, तो ‘भक्तों की रक्षा एवं दुर्जनों के विनाश’ के लिए भगवान अवतार धारण करते हैं । यह अवतार का मूल कार्य है; परंतु अवतारी लील का एक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है अवतार द्वारा पृथ्वी पर जन्म लेने के पश्चात वे युगों-युगों से भक्तों को भवसागर से मुक्त होने का मार्ग दिखाते हैं । पृथ्वी पर अवतार प्रकट होने के कारण अवतारी लीलाएं घटित होती हैं । उस लीला के चलते ही रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत जैसी अजरामर कथाएं तैयार होती हैं । सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि लीलाओं का स्मरण, कीर्तन और श्रवण करने से मनुष्य अल्पावधि में गृहस्थ जीवन से मुक्त हो सकता है । भगवान की अवतारी लीला का यही महत्त्व है ।
२. अवतारों के कारण ही मानव जीवन में आनंद है !
भगवान के द्वारा मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, मोहिनी, श्रीनिवास (तिरुपति बालाजी) और वेदव्यास जैसे अनेक अवतार धारण किए जाने से मनुष्यजीवन को आनंद का स्रोत प्राप्त हुआ और मानव जीवन को एक ध्येय मिला । अवतार न होते, तो मनुष्य के जीवन में आनंद ही न होता ! भारत में श्रीराम और श्रीकृष्ण जहां-जहां गए, वह प्रत्येक गांव उनके आगमन के कारण स्मरणीय बन गया । मथुरा जाने पर श्रीकृष्ण का स्मरण होता है, अयोध्या बोलने पर श्रीराम का स्मरण होता है । केवल इतना ही नहीं, अपितु हमारे बंधुओं और पूर्वजों के नाम भी अवतार के नाम से ही रखे गए हैं ।
३. अवतारी लीलाएं हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं !
नदियां, पर्वत, समुद्र, सरोवर, गांव, वृक्ष, पत्थर आदि अवतारी लीला के कारण जागृत बन गए हैं । अवतारी लीलाएं हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं । माता बच्चे को रामायण और महाभारत की कथाएं बताती हैं, तो राज्यशास्त्र के विशेषज्ञ भी यहीं से पाठ लेते हैं । ‘श्रीकृष्णनीति’ और ‘रामराज्य’ ये दो शब्द अवतारी लीला के कारण ही उत्पन्न हुए हैं । कृष्णाष्टमी, श्रीराम नवमी, दीपावली, विजयादशमी आदि त्योहारों का जन्म अवतारी लीलाओं के कारण ही हुआ है ।
४. श्रीविष्णु द्वारा कलियुग में धारण किया गया अवतार हैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !
काकभुशुण्डि ऋषि श्रीविष्णु के वाहन गरुड को बताते हैं, ‘हे गरुड, भगवान नटवरनागर हैं । इसका अर्थ एक ही अभिनेता किसी नाटक में विभिन्न किरदार निभाता है । उस किरदार का अभिनय देखकर दर्शक प्रभावित होते हैं; परंतु वह अभिनेता उससे अप्रभावित होता है । कोई नाटक देखे अथवा न देखे; परंतु पात्रधारी नाटक में अभियन कर निकल जाता है । उसके उपरांत लोग उस किरदार से अपनी तुलना करते हैं, उस किरदार के विषय में चर्चा करते हैं और उसके साथ एकरूप हो जाते हैं । प.पू. डॉक्टरजी अर्थात परात्पर गुरु डॉ. जयंत बाळाजी आठवलेजी आज के समय की अवतारी लीला के अवतार का नाम है । सनातन के सभी साधक इस अवतारी लीला के साक्ष्य हैं । श्रीविष्णु के द्वारा कलियुग के सनातन के साधकों के लिए धारण किया हुआ अवतार हैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ! और उसी कारण ही परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी भी ‘नटवरनागर’ हैं ।
५. हम जिनसे मिले, बातें कीं और जिनके साथ सेवा की, वे वैकुंठ से आए हुए साक्षात श्रीविष्णु थे’, यह समझ में आने के लिए थोडा समय लगेगा !
आनेवाले समय में सभी साधक और समाज श्रीविष्णु के इस अवतार की अर्थात परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी (गुरुदेवजी के साथ) अपनी पहचान बताएंगे, गुरुदेवजी के कार्य के विषय में बोलेंगे और उनकी स्मृतियां बताएंगे; परंतु ‘हम जिनसे प्रत्यक्ष मिले, जिनके साथ बातें कीं, जिनके साथ भोजन किया, सेवा और प्रवास किया, वैकुंठ से आए साक्षात भगवान श्रीविष्णु थे’, यह बात सभी के समझ में आने में कुछ समय लगेगा ! एक बात नित्य और सत्य है कि ‘भगवान का नाटक होता है मुक्ति का मार्ग !’
– श्री. विनायक शानभाग, (आध्यात्मिक स्तर ६६ प्रतिशत) चेन्नई. (११.५.२०२२)
श्रीमन्नारायण के अवतार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के चरणों में साधकों की आर्त्तता और लगन से प्रार्थना !
‘हे श्रीमन्नारायण, आज ‘श्रीजयंत’ अवतार के शरीर धारण को ८० वर्ष पूर्ण हुए । आज हम साधकों को ‘श्रीजयंत’ अवतार का ८० वां जन्मोत्सव मनाने का स्वर्णिम अवसर मिला है । उनमें से हम अधिकांश साधकों को २० से ३० वर्षाें तक भगवान के सगुण रूप का सान्निध्य मिला । हे भगवान, यह हमारी समझ में नहीं आया कि ‘आप ही हमें गुरुरूप में प्राप्त हुए हैं । इस बृहत् (विशाल) सनातन परिवार के पिता होने की भांति हमने आपके साथ व्यवहार किया, बातें की और कभी-कभी हठ भी किया; परंतु हे भगवान, आपने हमें भर-भरकर आनंद दिया । हम साधक आपके साथ थे, ऐसा नहीं; अपितु हे श्रीहरि, आपने ही हमें आपके सान्निध्य में रखा । हे वैकुंठाधिपति, आप वैकुंठ से केवल सनातन के साधकों के लिए ही अवतरित हुए हैं । हे भगवन, आपको यह ज्ञात था कि हम साधक इस प्रलयंकारी आपातकाल से आपकी छाया के बिना पार नहीं हो सकते हैं; इसलिए आपने ‘गुरुदेवजी’ का रूप धारण किया है । आज हम उस प्रलयंकारी आपातकाल की दहलीज पर खडे हैं । हमें एकमात्र आप ही के चरणों का आधार है । आपका सुंदर हास्य हमारा दुख दूर करता है और आपके बोल हमारे लिए उत्साहवर्धक हैं । हे श्रीजयंत, श्रीजयंत, श्रीजयंत, आप हम साधकों की रक्षा कीजिए !’
– श्री. विनायक शानभाग, चेन्नई, तमिलनाडु