शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर सात्त्विक आहार का महत्त्व !

मोक्ष तक की यात्रा की दृष्टि से सात्त्विक अन्न का महत्त्व

सत्त्वगुण की वृद्धि करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानेवाला सात्त्विक आहार !

     ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।’, अर्थात साधना करने के लिए शरीर ही खरा महत्त्वपूर्ण माध्यम है; क्योंकि मनुष्यजन्म के अंतिम लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति को साध्य करने हेतु मनुष्य को देह की अत्यंत आवश्यकता होती है । शरीर स्वस्थ रहने के लिए आहार अच्छा और सात्त्विक हो, तो शरीर का सत्त्वगुण बढता है और उसके कारण ईश्वरप्राप्ति का ध्येय सुलभ बन जाता है । सत्त्वगुण की वृद्धि करने में सात्त्विक आहार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । सात्त्विक आहार के सेवन के कारण शरीर, मन एवं बुद्धि सात्त्विक बनते हैं, जबकि मांस एवं मद्य के सेवन के कारण व्यक्ति तमोगुणी बनता है । वास्तव में मांसाहार मनुष्य का आहार ही नहीं है । सृष्टि के निर्माता ने मनुष्य के लिए मांसाहार उत्पन्न नहीं किया है । मद्य भी अन्नपदार्थ नहीं है । अध्यात्म आहार की सात्त्विकता का विचार करता है, जैसा विचार आधुनिक विज्ञान कर ही नहीं सकता, यहां इसका गंभीरता से उल्लेख करने का मन होता है ।

कलियुग का आहार

     यह रज-तमप्रधान कृत्यों के अधीन होने से वह आचार युक्त आहार न रहकर विकृतिजन्यता की छाया लेकर जन्मा हुआ एक प्रकार का कुयोग दर्शानेवाला घटक ही बन गया है । आहार पर विदेशी संस्कृति का तमोगुणी छाया होने के कारण यह आहार, आहार न रहकर असुरों का पोषण करनेवाली विकृति बन गया है ।’

– एक विद्वान (श्रीचित्शक्ति [श्रीमती] अंजली गाडगीळजी ‘एक विद्वान’ के नाम से भाष्य करती हैं । ७.३.२००८)

सात्त्विक आहार का महत्त्व

     ‘सात्त्विक आहार से सात्त्विक पिंड की निर्मिति होती है । यह पिंड आध्यात्मिक प्रगति करने में उचित होता है । आहार यदि तमोगुणी हो, तो इस तमोगुणी ऊर्जा पर चलनेवाली देह पाप युक्त कर्म की बलि चढ जाती है । यह पाप युक्त कर्म वातावरण में बडी मात्रा में अपने सूक्ष्म स्पंदन छोडकर उस संबंधित स्तर पर इन स्पंदनों को घनीभूत कर उनका विशिष्ट कार्यकारी केंद्र में रूपांतरण करता है । उचित एवं सात्त्विक आहार के बल पर बने जीव सज्जन बनते हैं और वे उन विचारों के योग से सत्त्वशील मार्ग का आचरण करते हैं । पहले ऋषि-मुनि अपने आहार पर बहुत ध्यान देते थे । सात्त्विकता का वर्धन करनेवाला उचित तेजदायी आहार तेजस्वी स्पंदन उत्पन्न कर उस संबंधित जीव को योगी बनाता है । आहार पर नियंत्रण रखना अर्थात ही जीभ के स्वाद रुचि की आपूर्ति न करना अत्यंत कठिन होता है । रसना एवं वाणी पर नियंत्रण रखनेवाला जीव ‘योगी’ पद को प्राप्त करता है ।’

– एक विद्वान (श्रीचित्शक्ती [श्रीमती] अंजली गाडगीळजी ‘एक विद्वान’ के नाम से भाष्य करती हैं । (७.३.२००८)

सात्त्विक आहार एवं सात्त्विक पिंड

     ‘शरीर का सत्त्वगुण बढा, तो उससे ईश्वरप्राप्ति का ध्येय सुलभ बन जाता है । सत्त्वगुण की वृद्धि करने में सात्त्विक आहार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अध्यात्म आहार की सात्त्विकता का जो विचार करता है, वैसे आधुनिक विज्ञान कर ही नहीं सकता । जिन अन्नग्रहण के कारण व्यक्ति को सात्त्विकता मिलती है, उस अन्न को ‘सात्त्विक आहार’ समझा जाता है । सात्त्विक आहार से सात्त्विक पिंड की निर्मिति होती है । यह पिंड आध्यात्मिक प्रगति साध लेने के लिए उचित होता है ।

सात्त्विक अन्नसेवन से पंचप्राण कार्यरत होकर उनका संपूर्ण शरीर में संक्रमित होना

     हमारा शरीर एक ईश्वरचलित यंत्र है । अन्नसेवन से शरीर में उत्पन्न होनेवाली ऊर्जा यज्ञ से उत्पन्न होनेवाले तेजतत्त्व की ऊर्जा से संबंधित है । अन्नसेवन से प्रक्षेपित होनेवाली सात्त्विक तरंगों के कारण शरीर में विद्यमान नाभिस्थित पंचप्राणों के कार्य को गति मिलती है । जबतक हम आध्यात्मिक उन्नति हेतु साधना नहीं करते, तबतक हमारे शरीर में सुप्त पंचप्राणों की शुद्धि नहीं होती; परंतु सात्त्विक अन्नसेवन ने पंचप्राण कार्यरत होकर उन्हें संपूर्ण शरीर में संक्रमित किया जाता है; इसीलिए अन्न को ‘पूर्णब्रह्म’ अर्थात ही पांचों प्राणों की शुद्धि करने की क्षमता रखनेवाला कहा जाता है ।’

– एक विद्वान (श्रीचित्शक्ति [श्रीमती] अंजली गाडगीळजी ‘एक विद्वान’ इस नाम से भाष्य करती हैं । ३०.१.२००५)